संस्कृतिसिनेमा 200 हल्ला हो: सच्ची घटना पर आधारित एक फिल्म जो आपको झकझोर देगी

200 हल्ला हो: सच्ची घटना पर आधारित एक फिल्म जो आपको झकझोर देगी

'200 हल्ला हो' फिल्म 2021 में रिलीज हुई फिल्म है। यह फिल्म 2004 में नागपुर कोर्ट में मॉब लिंचिंग की सच्ची घटना पर आधारित है जिसमें 200 महिलाओं के झुण्ड द्वारा अक्कू यादव (एक गैंगस्टर, रॉबर, सीरियल रेपिस्ट एंड किलर) की हत्या कर दी जाती है। इस हत्या के बाद सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इन सभी महिलाओं को बाइज्जत बरी कर दिया जाता है।

‘200 हल्ला हो’ फिल्म साल 2021 में रिलीज़ हुई फिल्म है। यह फिल्म साल 2004 में नागपुर कोर्ट में हुई मॉब लिंचिंग की सच्ची घटना पर आधारित है जिसमें 200 महिलाओं के झुण्ड द्वारा आरोपी अक्कू यादव की लिचिंग कर दी जाती है। इस हत्या के बाद सुप्रीम कोर्ट इन सभी महिलाओं को बाइज्ज़त बरी कर देता है। फ़िल्म की शुरुआत ही होती है जहां लगभग 200 महिलाएं अपने हाथ में घर में इस्तेमाल किए जानेवाले सामान लेकर कोर्ट परिसर में पुलिस फोर्स की देखरेख में रह रहे बल्ली चौधरी की लिचिंग करती नज़र आती हैं।फिल्म में अक्कू यादव का किरदार ‘बल्ली चौधरी’ के नाम से है जिसे साहिल खट्टर निभा रहे हैं। इसके बाद हत्या की जांच-पड़ताल होती है और न्यायिक प्रक्रिया के साथ सामाजिक ताने-बाने के साथ कहानी कहीं जाती है।

और पढ़ेंः झुंड : स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी की दीवार से उस पार का भारत

फिल्म में सुरेश पाटिल नामक पुलिस ऑफिसर की अगुवाई में बस्ती में जाकर बिना अपराध घोषित हुए, केवल शक के आधार पर अपराधी मानकर बस्ती की पाँच महिलाओं को काल कोठरी में लाया गया। एक महिला कांस्टेबल द्वारा रात के समय निर्वस्त्र करके उन्हें बेरहमी से मारा जाता है। पुलिस के द्वारा बेहद अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। फिल्म में पुलिस प्रशासन की लापरवाही और दलित महिलाओं के साथ व्यवहार को दिखाने का प्रयास किया गया है। महिलाओं की गिरफ्तारी का दृश्य में महिलाओं के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है। शक के आधार पर गिरफ्तार हुए इंसान से कानूनी तौर पर केवल पूछ्ताछ करने का ही अधिकार होता है लेकिन यहां बिना दोष साबित हुए यातनाएं दी जाती है।

फिल्म मूल रूप से महिलाओं के साथ हो रहे शोषण का विरोध करती है। कहानी में महिलाएं न्याय पाने के लिए किसी भी हद तक अपने आप को झोंकने के लिए तैयार रहती हैं।

फिल्म में बस्ती की महिलाओं को गिरफ्तार करते ही जातिवादी राजनीति शुरू हो जाती है। मामले पर जब सभी मीडिया वालो की नज़र पड़ने लगती है तो एक दलित नेता देशमुख की एंट्री होती है। फिल्म यह दिखाने में सफल होती है कि किस प्रकार की राजनीति हमारे समाज में चल रही है। फिल्म मूल रूप से महिलाओं के साथ हो रहे शोषण का विरोध करती है। कहानी में महिलाएं न्याय पाने के लिए किसी भी हद तक अपने आप को झोंकने के लिए तैयार रहती हैं। फ़िल्म में ‘वीमन राइट्स कमीशन’ की हेड पूर्णिमा को इस मु्द्दे पर गर्म मसाला लगाकर समाज में परोसने का आग्रह किया जाता है और विधायक की सीट का लालच देकर, केस को चर्चा में लाने का ज्ञान दिया गया है। फिल्म के ऐसे दृश्यों में वास्तविकता को बयां किया गया है जो कहानी को संजीदगी से दिखाने का काम करते हैं।

फिल्म की प्रमुख स्टारकॉस्ट, तस्वीर साभारः The Envoy Web

और पढ़ेंः महिलाओं की दोस्ती, शोषण से आज़ादी और उनकी मर्ज़ी को उकेरती एक मज़बूत कहानी है पार्च्ड

कहानी में आगे केस की जांच में फैक्ट फाइंडिंग कमिटी का गठन किया गया है। इसके हेड, रिटायर्ड ऑफिसर जस्टिस विट्ठल दागड़े को बनाया गया है। इस कमेटी में तीन और मेंबर होते हैं। यह केस मुख्य रूप से महिलाओं से जुड़ा मुद्दा होने पर भी कमेटी में तीन पुरुष और एक महिला पत्रकार हैं। फिल्म में महिलाओं को अयोग्य दिखाकर, आखिर किस इस तरह के संदेश देने की की मंशा है इस पर हमें विचार करना होगा।

केस को फास्ट ट्रैक में डाला जाता है। फ़िल्म में आशा सुर्वे बस्ती की एकमात्र पढ़ी-लिखी लड़की है। इसका किरदार रिंकू राजगुरु निभा रही हैं। आशा सुर्वे, बस्ती की औरतों को जमानत दिलाने के लिए भरपूर प्रयास करती हैं। समाज की जद्दोजहद में बस्ती के सब लोग अपने-अपने मुकाम को पाने में लगे हैं। इस फ़िल्म में बड़े ही मार्मिक ढंग से दिखाया गया है।

फिल्म का एक दृश्य, तस्वीर साभारः Koimoi

कहानी में दूसरी तरफ शुरू से अंत तक बूंदभर प्रेम की बारिश में बिछड़ने का क्षोभ भी है। बस्तीवालों का केस लड़नेवाले ब्राह्मण वकील और आशा सुर्वे की प्रेम कहानी। जाति व्यवस्था के भार में भावनाओं को दबाने के भाव को पर्दे पर उतारा गया है। कहानी का यह भाग दलित लड़की के प्रेम पर जाति के दंश को दिखाने में कामयाब होता है। हालांकि, कहानी को एक कदम आगे बढ़ाकर प्रेम की जीत को दिखाकर नया संदेश दिया जा सकता था।

और पढ़ेंः मिमी : महिला अधिकार और संघर्षों पर पितृसत्ता की एक खोल | नारीवादी चश्मा

फिल्म के एक दृश्य में भावुकता का सहारा लेकर पूर्वा साहनी अपना एक वक्तव्य देती हैं और कहती हैं, “ये पांचों औरतें झूठ नहीं बोल सकती है, तभी अलवर शेख कहते हैं क्यों नहीं बोल सकती हैं, बिल्कुल बोल सकती हैं क्योंकि ये औरतें हैं?” ऐसे संवाद पितृसत्ता को साफ दिखाते हैं।

फिल्म के एक दृश्य में भावुकता का सहारा लेकर पूर्वा साहनी अपना एक वक्तव्य देती हैं और कहती हैं, “ये पांचों औरतें झूठ नहीं बोल सकती है, तभी अलवर शेख कहते हैं क्यों नहीं बोल सकती हैं, बिल्कुल बोल सकती हैं क्योंकि ये औरतें हैं?” ऐसे संवाद पितृसत्ता को साफ दिखाते हैं। साथ ही यह सोचने को मजबूर करती है कि आखिर अलवर के दिमाग में इसका क्या मतलब होगा, उन्होंने यह सवाल क्यों पूछा होगा। यह पूरी फिल्म किसी पुरुष के दिमाग की खिचड़ी है अर्थात इस फ़िल्म में मैंने देखा कि महिला से जुड़ा मुद्दा होने के बावजूद एक सशक्त नारी का किरदार देखने को नहीं मिला। प्रश्न है आखिर क्यों? यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या भीड़ के न्याय को न्याय कहा जा सकता है?

और पढ़ेंः सावित्री सिस्टर्स एट आज़ादी कूच : सामाजिक न्याय का संघर्ष दिखाती डॉक्यूमेंट्री


तस्वीर साभारः IMDb

Comments:

  1. ANKIT GUPTA says:

    This is ery positive story and good critical analysis. Keep on written such a knowledgeable hidden stories of our society that impacts us

  2. Sweta tripathi says:

    आपसे ऐसे ही लेख की उम्मीद की जाती है, वास्तव में आपके इस लेख में वो गहरी और छिपी हुई सच्चाई नज़र आई जो हम नही देख पाते, आप आगे भी ऐसे ही समाज मे हो रही महिलाओं के साथ शोषण और गरीबों के साथ हो रहे शोषण को आप ऐसे ही सरलता के साथ सबके सामने लाएंगी और सबको वस्विकता से परिचित करायेंगी ।

  3. नवनीत पांडेय says:

    कुछ कहानियां हमे समाज के उन पहलुओं से रूबरू कराती है जिन्हें हम कल्पना भी नही कर सकते …अद्भुत विश्लेषण है ऐसी घटनाओं से रूबरू कराने के लिए बहुत धन्यवाद

  4. Supriya Tripathi says:

    Dhanyvaad 🤘bhajya🙏

  5. Shubham says:

    उम्मीद है आप ऐसे ही लोगों को जागरूक करती रहेंगी |

    लाज़वाब !

  6. Supriya Tripathi says:

    शुक्रिया

Leave a Reply to ANKIT GUPTACancel reply

संबंधित लेख

Skip to content