हम अक्सर देखते हैं कि मोहल्ले के नुक्कड़ पर कुछ लोग तमाशा दिखा रहे हैं, ज़ोर-ज़ोर से बोलकर कुछ बता रहे हैं, लोगों की पूरी मंडली है जो बीच-बीच में गाने भी गा रही है। हम जिसे आम बोलचाल में तमाशा कहते आए हैं दरअसल वह नुक्कड़ नाटक यानी स्ट्रीट थिएटर है। यह थिएटर का ही एक रूप है जो बहुत औपचारिकताओं की मौजूदगी में नहीं होता है। नुक्कड़ नाटक एक ऐसा नाट्याभिनय होता है जो खुली जगहों में जनता के बीच प्रस्तुत किया जाता है। यह खुली जगहें कुछ भी हो सकती हैं जैसे सड़क का किनारा, कोई पार्क, कोई शॉपिंग का केंद्र, कॉलेज, विश्वविद्यालय, आदि।
यह नाटक ऐसी जगहों पर होते हैं जहां भीड़ ज़्यादा हो। सभी कलाकार अपनी आवाज़ में ही ज़ोर-ज़ोर से संवाद करते हैं ताकि लोग उन्हें सुन सकें। किसी तरह के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होता है। यह नाटक जनता के मुद्दों को प्रमुख रूप से प्रस्तुत करते हैं जैसे भुखमरी, रेप, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, शिक्षा, राजनीतिक मुद्दे आदि। जिन अच्छी सरकारी नीतियों को लोग नहीं जानते उनके बारे में जानकारी भी नुक्कड़ नाटक द्वारा दी जाती है। सरकार के खिलाफ रोष से लेकर किसी साहित्यिक कहानी, कविता का मंचन आदि भी इन नाटकों द्वारा किया जाता है। यह नाटक जनता की पहुंच में आसानी से होते हैं बजाय किसी सभागार के जहां नाटक देखने की टिकट अधिक मूल्य में उपलब्ध होती है।
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नुक्कड़ नाटक परंपरागत ग्रामीण अंचल से निकला हुआ थिएटर माना जाता है। वहीं शहरों का थिएटर एक ख़ास वर्ग के दर्शक के लिए था, वे दर्शक जिन्हें प्रगतिशील मुद्दों के बारे में भी बताना था लेकिन मंहगी टिकट नहीं खरीद सकते थे उनके लिए क्या किया जाता? तब नुक्कड़ नाटक को शहरों तक लाया गया और संवाद का ऐसा माध्यम बनाया गया जिसे देखने, सुनने के लिए मोटी रकम खर्च करने की ज़रूरत नहीं थी। धीरे-धीरे नुक्कड़ नाटक राजनीतिक मुद्दों को, जनता की बात रखने का एक माध्यम बन गया।
यह नाटक जनता के मुद्दों को प्रमुख रूप से प्रस्तुत करते हैं जैसे भुखमरी, रेप, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, शिक्षा, राजनीतिक मुद्दें आदि। जिन अच्छी सरकारी नीतियों को लोग नहीं जानते उसके बारे में जानकारी भी नुक्कड़ नाटक द्वारा दी जाती है।
आज़ादी के दौर में नुक्कड़ नाटक विधा का इस्तेमाल फासीवादी, पूंजीवादी ब्रिटिश सरकार के विरोध में और स्वतंत्रता की लड़ाई के हित में लेफ़्ट की पार्टियां करती थीं। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में नुक्कड़ नाटक का उदय राजनीतिक हलचल रही है जिसमें वह वामपंथी विचारधारा में अपनी राजनीतिक विचारधारा देखता है जिसका काम शोषितों की आवाज़ को जन-जन तक पहुंचने का है।
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नुक्कड़ नाटक को आगे बढ़ाने में भारतीय जन नाट्य संघ या ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन‘ की रही है। इस संस्था ने नुक्कड़ नाटक की विधा को मुख्यधारा में लाने का काम किया। यह कहा जा सकता है कि इप्टा ने बाकी कलाकारों के लिए थिएटर में एक मोटिवेशन का काम किया। आज भारत में बड़ी संख्या में थिएटर एसोसिएशन इस वक्त देश भर में मौजूद हैं जिनमें थिएटर यूनियन, संवेदन, लोक कला मंच, निशांत, अस्मिता थिएटर ग्रुप आदि शामिल हैं।
आज़ादी के बाद भी पचास साठ के दशक में नुक्कड़ नाटक प्रचलित रहे जिसमें हबीब तनवर, उत्पल दत्त जैसे कलाकार शामिल हैं। लेकिन जब सत्तर-अस्सी के दशक में राजनीतिक उठापटक देश में चलने लगी और जब 1975 में भारत सरकार द्वारा आपातकाल की घोषणा हुई, कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लोगों पर हमले हुए, बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा तब अभिनय कलाकार तक पर हमले हुए, इसी दौरान नुक्कड़ नाटक ने एक नए अध्याय में कदम रखा कि वह देश के विभिन्न क्षेत्रों में लोग इस आर्ट को जानने लगे। इसी कड़ी में एक नाम बहुत अदब के साथ लिया जाता है, बादल सरकार। बादल सरकार ने मुख्यधारा का थिएटर छोड़कर नुक्कड़ नाटक में आए और शहरों की कामगार जनता के मुद्दों को लोगों के बीच रखा।
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नुक्कड़ नाटक की बात करें और उसमें सफदर हाशमी और उनके संगठन जन नाट्य मंच की बात न हो तो हम भारतीय परिपेक्ष्य में नुक्कड़ नाटक का फैलाव नहीं जान पाएंगे। सफदर हाशमी, सत्तर-अस्सी के दशक के जानेमाने कलाकार थे जिन्होंने भारत में स्ट्रीट थिएटर मूवमेंट की शुरुआत की। सफदर हाशमी नुक्कड़ नाटक को इस तरह परिभाषित करते हैं कि नुक्कड़ नाटक विरोध का एक उग्रवादी राजनीतिक रंगमंच जिसका कार्य लोगों को उत्तेजित करना और उन्हें लड़ने वाले संगठनों के पीछे लामबंद करना है। हाशमी ने 1973 में जन नाट्य मंच की नींव रखी, जिसके बैनर तले 2002 तक 58 नुक्कड़ नाटकों की सात हज़ार तक प्रस्तुतियां देश भर में की जा चुकी हैं।
सफदर हाशमी की हत्या 1989 में दिल्ली के साहिबाबाद के कामगारों के लिए नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ के मंचन के हत्या कर दी गई। हाशमी ने मशीन, औरत, स्क्रीम आदि नाटकों का मंचन किया था। सफदर हाशमी के जज्बे, सम्मान में 12 अप्रैल जो उनका जन्मदिवस है, आज उसे राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस के रूप में मनाया जाता है। हाश्मी की हत्या यह दर्शाने के लिए काफ़ी है कि नुक्कड़ नाटक जनता के नजरिए को बदलने में, सत्ता के फासीवादी रवैए से लड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं। इसीलिए सरकार किसी की भी हो, उसकी सत्ता पर जब आंच आती है तब वह विद्रोही कलाकारों पर सबसे पहले हमला बोलते हैं।
नुक्कड़ नाटकों के विषय में महिलाएं भी केंद्र में रही हैं। चाहे वह सफदर हाशमी का नाटक औरत हो या 1980 का मथुरा रेप केस जिसके विरोध में और रेप के कड़े कानून बनाने के पक्ष में जगह जगह नाटक हुए। वहीं, 1984 में जब भोपाल गैस त्रासदी हुई, 2012 में दिल्ली गैंगरेप केस हुआ तब भी नुक्कड़ नाटक प्रमुख रूप से लोगों के मध्य रोष प्रकट करता हुआ नज़र आया। उसी दौरान ‘ओम स्वाहा’ नाम से नुक्कड़ नाटक दजेह प्रथा के कारण हुई महिलाओं की हत्या पर नाटकों का मंचन किया गया।
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हाशमी की हत्या यह दर्शाने के लिए काफ़ी है कि नुक्कड़ नाटक जनता के नजरिए को बदलने में, सत्ता के फासीवादी रवैए से लड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं। इसीलिए सरकार किसी की भी हो, उसकी सत्ता पर जब आंच आती है तब वह विद्रोही कलाकारों पर सबसे पहले हमला बोलते हैं।
आज नुक्कड़ नाटकों का इस्तेमाल कई बड़ी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए कर रही हैं। वर्तमान में प्रचलित अस्मिता थिएटर के संस्थापक अरविंद गौर द हिंदू में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक इस तरह के नाटक को के लिए कहते हैं कि “तकनीकी रूप से यह नुक्कड़ नाटक नहीं है, बल्कि उन्हें केवल प्रचार थिएटर (प्रचार नाटक) कहा जा सकता है। जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों का विज्ञापन करने के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं, तो यह विज्ञापन और रोड शो से ज्यादा कुछ नहीं है। हालांकि, यह नुक्कड़ नाटक को ज्यादा प्रभावित नहीं करता है क्योंकि लोग अंतर देख सकते हैं।”
अरविंद गौर की बात को ध्यान में रखते हुए देखें तो 2018 में भोपाल में युवाओं के संगठन अंश (ANSH) हैप्पीनेस सोसाइटी ने नुक्कड़ नाटक ‘मैराथन’ को हकीकत में तब्दील किया। 77 नाटकों का भोपाल की अलग-अलग जगहों पर मंचन किया गया था। साल 2018, यानी बहुत पुरानी बात नहीं है कि इतनी तादाद में ये नाटक किए गए इसका अर्थ है कि नुक्कड़ नाटक आज भी लोगों के मध्य उनके बीच जाकर बात करने का अच्छा जनता का ध्यान अपनी ओर खींचने का अच्छा माध्यम है।
दिल्ली विश्विद्यालय जैसी जगहों पर नाटक करने की सोसाइटी होती हैं जो नुक्कड़ नाटक को आधुनिक समय के साथ चलना सिखा रही हैं। नुक्कड़ नाटक का बदलते वक्त के साथ बदलाव पर अरविंद गौर कहते हैं जनता आज नई है, बहुत अधिक जागरूक है और एक है कि एक बटन के स्पर्श पर दुनिया से जुड़ा हुआ है। इस जागरूकता को संवाद और संभावित कार्रवाई में बदलने की चुनौती है। इसके लिए हमें प्रारूप, सामग्री को बदलना होगा और स्थानीय भाषा का उपयोग करना होगा। आज पात्र अधिक यथार्थवादी हैं। इसमें राजनीतिक रूप से सही होना जरूरी है, ताकि थिएटर लोगों का बना रह सके।”
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तस्वीर साभार: Popular Education