अपने आप में एक सार्वजनिक मुद्दा होने के बावजूद, भारत में शिक्षा को दो भागों में बांटा जा सकता है। एक शिक्षा जो हमारे सरकारी स्कूलों में बच्चों को दी जा रही है और दूसरा गैर-सरकारी संस्थानों में दी जानी वाली शिक्षा। भारत में शिक्षा का स्तर लोगों के जेंडर, समुदाय, धर्म, जाति, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हालात या पृष्ठभूमि से जुड़ा है। अच्छी शिक्षा के लिए अच्छे शिक्षकों के साथ-साथ शैक्षिक संस्थानों के बुनियादी ढांचा और बच्चों के सीखने-सिखाने के लिए एक सुरक्षित, समान और अच्छे वातावरण की भी ज़रूरत होती है।
भारत एक ऐसा देश है, जहां हर बच्चे की शिक्षा के अधिकार के लिए मुहिम तो चल रही है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अच्छी शिक्षा तक पहुंच जेंडर, वर्ग, जाति और धर्म जैसे कई कारकों से प्रभावित है। हमारे देश में महिलाओं और पुरुषों की शिक्षा के स्तर में आज तक व्यापक अंतर बना हुआ है। आज भी महिलाओं की शिक्षा को ज़रूरी नहीं समझा जाता। बड़ी संख्या में आज भी महिलाओं को पढ़ने का कोई अवसर नहीं दिया जाता। अमूमन, आर्थिक तंगी से जूझते हुए परिवारों के लिए लड़कियों को पढ़ाना एक अतिरिक्त खर्च होता है। इसके साथ -साथ, महिलाओं का पढ़ाई न पूरा कर पाने का एक बहुत बड़ा कारण उनका विस्थापन और उसके वजह से हुआ माइग्रेशन यानि पलायन होता है।
और पढ़ें: जेंडर स्टीरियोटाइप और भेदभाव के कारण दुनियाभर में गणित में पिछड़ रही हैं लड़कियां
विस्थापन के दौरान, परिवारों को अक्सर अलग होना पड़ता है या कर दिया जाता है। इसमें संपत्ति और आजीविका का नुकसान भी होता है। जगह के बदलने से भाषा की समस्या, कानूनी बाधाएं और भेदभाव होने की संभावना बनी रहती है। लेकिन ये सभी बाधाएं और समस्याएं पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को बहुत अलग तरीके से और ज्यादा गंभीर रूप में प्रभावित करती हैं।
युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं के बीच आज विस्थापन सिर्फ कुछ देशों का नहीं बल्कि एक वैश्विक समस्या बन चुका है। लेकिन भारत में विस्थापन का एक बहुत बड़ा कारण गरीबी, रोज़गार की समस्या और महिलाओं के संदर्भ में उनकी शादी है। जहां आम तौर पर हमारे देश में पुरुषों के लिए विस्थापन और पलायन रोज़गार से जुड़ा हुआ होता है, वहीं महिलाओं के लिए यह उनकी शिक्षा, रोज़गार, शादी, परिवार के मर्द सदस्यों द्वारा लिए गए फैसले से जुड़ा हुआ होता है। पितृसत्तात्मक वजहों से अक्सर पलायन के फैसलों में महिलाओं की राय शामिल नहीं होती है।
बच्चों के जीवन में गरीबी पर शोध करने वाली संस्था यंग लाइव्स इंडिया ने साल 2020 में ‘अंडरस्टैंडिंग चाइल्ड माइग्रेशन इन इंडिया‘ नाम की एक रिपोर्ट प्रकाशित की। यह रिपोर्ट बताती है कि साल 2011 के जनगणना के अनुसार, भारत में 455.78 मिलियन प्रवासी हैं जिनमें 67.9 प्रतिशत महिलाएं हैं। बात अगर बाल प्रवासियों की करें, तो इसमें लड़कियों का प्रतिशत 50.6 फीसद था जो लड़कों की संख्या से कहीं अधिक थी। विस्थापन के दौरान, परिवारों को अक्सर अलग होना पड़ता है या कर दिया जाता है। इसमें संपत्ति और आजीविका का नुकसान भी होता है। जगह के बदलने से भाषा की समस्या, कानूनी बाधाएं और भेदभाव होने की संभावना बनी रहती है। लेकिन ये सभी बाधाएं और समस्याएं पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को अधिक गंभीर रूप में प्रभावित करती हैं।
और पढ़ें: ग्रामीण किशोरियों के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए ज़रूर करें इन बातों को उनकी शिक्षा में शामिल
भारत में सीजनल यानि किसी एक समय या मौसम के दौरान पलायन आम है। कई बार पुरुषों या माता-पिता के रोज़गार के लिए किए गए पलायन के बाद बच्चे या महिलाएं पीछे छूट जाती हैं। यह पीछे रह चुके बच्चों विशेष कर महिलाओं की शिक्षा को चुनौती देता है।
क्या है विस्थापन, पलायन और शिक्षा का संबंध
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्थापन मुख्य रूप से कम आय वाले देशों को प्रभावित करता है। इन देशों में भले दुनिया की 10 फीसद आबादी रहती है, लेकिन वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों की आबादी का ये 20 फीसद हैं। ये अक्सर देश के शैक्षिक रूप से वंचित क्षेत्रों में रहते हैं। गौरतलब हो कि जबरन दुनिया में विस्थापित हुए लोगों में आधे से ज्यादा की उम्र 18 साल से कम की है। वहीं, भारत की बात करें, तो यहां बड़ी तादाद में आतंरिक पलायन होता है। आंतरिक प्रवासी अपने ही देश के भीतर, आमतौर पर किसी गांव से शहर की ओर, अपनी आजीविका की खोज में जाते हैं। यह प्रक्रिया एक निश्चित क्रम में चलती रहती है।
पलायन और विस्थापन शिक्षा को गंभीर रूप में प्रभावित करते हैं। पलायन एक ऐसी शैक्षिक व्यवस्था और संस्थानों की ज़रूरत पर ज़ोर देता है, जो उन लोगों को अपना सके, जो पलायन कर दूसरी जगहों में बस चुके हैं या जो पलायन के कारण पीछे छूट जाते हैं। पलायन हाशिये पर रह रहे लोगों की शिक्षा तक पहुंच में एक चुनौती के रूप में काम करता है।
भारत में सीजनल यानि किसी एक समय या मौसम के दौरान पलायन आम है। कई बार पुरुषों या माता-पिता के रोज़गार के लिए किए गए पलायन के बाद बच्चे या महिलाएं पीछे छूट जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर घर के मुखिया और रोज़गार करने वाले की जगह पलायन की वजह से खाली रह जाता है। यह पीछे रह चुके बच्चों विशेष कर महिलाओं की शिक्षा को चुनौती देता है। पितृसत्तात्मक सोच के कारण घर पर बच्चियों की शादी और लड़कों के रोज़गार का दबाव बना रहता है।
और पढ़ें: बंद स्कूल और ऑनलाइन शिक्षा : वंचित तबकों से आने वाले बच्चों के भविष्य अधर में
पलायन और विस्थापन शिक्षा को गंभीर रूप में प्रभावित करती है। यह एक ऐसी शैक्षिक व्यवस्था और संस्थानों की ज़रूरत पर ज़ोर देती है, जो उन लोगों को अपना सके, जो पलायन कर दूसरे जगहों में बस चुके हैं या जो पलायन के कारण पीछे छूट जाते हैं।
किस तरह विस्थापन महिलाओं की शिक्षा को कर रहा है प्रभावित
आम तौर पर महिलाओं की शिक्षा उनका निजी निर्णय नहीं होता। भारतीय परिवेश में जहां पुरुषों की शिक्षा या तो सामाजिक बाध्यता या ज़रूरत के अंतर्गत होती है, वहीं महिलाओं की शिक्षा को या तो गैर-ज़रूरी समझा जाता है या फिर सिर्फ शादी के लिए एक हद तक ही उनकी शिक्षा को महत्व दिया जाता है। इसलिए, महिलाओं और पुरुषों की शिक्षा के स्तर में ही नहीं, इसकी जरूरत और उपयोग में भी बुनियादी अंतर है।
शिक्षा, विस्थापन और जेंडर का आपस में गहरा संपर्क है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट अनुसार विस्थापन की स्थिति घरेलू स्तर पर अभाव की स्थिति से जुड़ी है। साथ ही जेंडर का परिवार के अंदर व्यक्तिगत अभाव से गहरा संबंध है। यह रिपोर्ट बताती है कि विस्थापित परिवारों में स्कूली शिक्षा का पूरा न होने जैसी समस्याओं में जेंडर एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में काम करता है। हाशिये पर रह रहे गरीब परिवारों में लड़कियों के स्कूल पूरा करने की संभावना लड़कों की तुलना में कम होती है। यह उनके लिए आजीवन एक प्रतिकूल परिस्थिति की तरह काम करता है।
विश्व आर्थिक मंच के साल 2017 के आंकड़ों के अनुसार भारत में आतंरिक पलायन की दर 2001 और 2011 के बीच दोगुनी हो गई। भारत के साल 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, 2011 और 2016 के बीच, आंतरिक पलायन करनेवाले लोगों की संख्या सालाना 90 लाख थी। भारत ने पिछले तीन दशकों में आंतरिक पलायन में बढ़त देखी है। पलायन या विस्थापन में शामिल महिलाओं की संख्या की अक्सर पितृसत्तात्मक कारणों से गिनती ही नहीं होती।
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट बताती है कि शिक्षा, पलायन और विस्थापन के बीच का जुड़ाव लैंगिक रूप से समान नहीं होता। इस रिपोर्ट में इथियोपिया के छह क्षेत्रों में लगभग 5300 स्कूल न जाने वाली लड़कियों पर किए गए एक अध्ययन को शामिल किया गया। इसमें पाया गया कि जहां सिर्फ कुछ महिलाओं ने पलायन के बाद स्कूली पढ़ाई को जारी रखा, वहीं अधिकांश महिलाएं रोज़गार में लग गई।
और पढ़ें: “सबका साथ-सबका विकास” के नारे के कितने पास है नई शिक्षा नीति
आम तौर पर महिलाओं की शिक्षा उनका निजी निर्णय नहीं होता। भारतीय परिवेश में जहां पुरुषों की शिक्षा या तो सामाजिक बाध्यता या ज़रूरत के अंतर्गत होती है, वहीं महिलाओं की शिक्षा को या तो गैर-ज़रूरी समझा जाता है या फिर सिर्फ शादी के लिए एक हद तक ही महत्व दिया जाता है। इसलिए, महिलाओं और पुरुषों की शिक्षा के स्तर में ही नहीं, इसकी जरूरत और उपयोग में भी बुनियादी अंतर है।
भारत में महिलाओं की शिक्षा की स्थिति
बात भारत में शिक्षा की करें, तो राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के 75वें दौर के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों के 81.5 के मुकाबले महिलाओं की साक्षरता दर 65 प्रतिशत पाई गई। वहीं शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की साक्षरता दर 82.8 और पुरुषों का 92.2 पाई गई। 15 साल और उससे ज्यादा के उम्र के व्यक्तियों का सफलता से उच्च शिक्षा पूरा करने का प्रतिशत देखें, तो यहां भी महिलाओं और पुरुषों में व्यापक अंतर है।
मिडिल स्कूल की शिक्षा को देखें, तो 18 फीसद पुरुषों के मुकाबले 14 फीसद महिलाएं पढ़ाई कर पाने की सूचना दी। माध्यमिक शिक्षा में 18.2 प्रतिशत पुरुष और 14.2 फीसद महिलाओं ने अपनी शिक्षा पूरी करने की जानकारी दी। यह फासला उच्च माध्यमिक, स्नातक या उससे आगे की पढ़ाई में और बढ़ती नजर आती है। 3 से 35 वर्ष की के व्यक्तियों के नामांकन स्थिति पर गौर करें, तो ग्रामीण क्षेत्रों में 19 फीसद से ज्यादा महिलाओं और 12.6 फीसद पुरुषों ने कभी भी नामांकित न होने की सूचना दी। शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए यह 9.6 और पुरुषों के लिए 7.1 प्रतिशत दर्ज किया गया।
और पढ़ें: पढ़ाई की तरफ़ बढ़ती लड़कियां क्यों रुक जाया करती हैं?
बात अगर ड्रॉपआउट की करें तो भारत में महिलाओं और पुरुषों का शिक्षा से दूर होने का कारण बहुत अलग है, इसलिए हमें ड्रापआउट के पीछे कारण, प्रवृत्ति और समय के अवधि को देखना होगा। जैसे कि 3 से 35 वर्ष की उम्र के व्यक्तियों के शिक्षित नहीं होने की प्रमुख वजहों में शिक्षा में दिलचस्पी न होना, शादी, आर्थिक तंगी और घरेलू काम पाया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा में दिलचस्पी न होने के कारण 21 फीसद पुरुषों ने पढ़ाई न करने की सूचना दी, जबकि महिलाओं के मामले में यह लगभग 16 फीसद दर्ज हुई। घरेलू काम के कारण शिक्षा पूरा न कर पाने में महिलाओं की भागीदारी लगभग 30 फीसद रही, जबकि पुरुषों के लिए यह महज 4 प्रतिशत था। वहीं शादी की वजह से पढ़ाई छूटने में सिर्फ महिलाओं की ही हिस्सेदारी पाई गई।
समाज का यह मानना कि महिलाओं का अपने साथी या परिवार के साथ विस्थापित होना अनिवार्य है, उन्हें शैक्षिक ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों से भी दूर कर देता है। वहीं, अक्सर हमारे स्कूल प्रवासियों को पूरे साल नामांकन नहीं देते। न ही हमारे शैक्षिक संस्थान ऐसे बच्चों के लिए तैयार नज़र आते हैं। वंचित तबकों से आनेवाले प्रवासियों को सामाजिक सुरक्षा और बेहतर जीवन देने के लिए न सिर्फ हमें लक्षित कार्यक्रमों की ज़रूरत है बल्कि इसे लैंगिक नजरिए से देखने की ज़रूरत है।
और पढ़ें: ऑनलाइन क्लास के बाद स्कूल और ग्रामीण क्षेत्रों में किशोरी शिक्षा की नयी चुनौती