इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत घरेलू हिंसा को ‘सामान्य’ बनाने में पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग की भूमिका

घरेलू हिंसा को ‘सामान्य’ बनाने में पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग की भूमिका

भले ही घरेलू हिंसा के अलग-अलग रूप (शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और यौनिक हिंसा) पर बात की जाती है लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि ज़्यादातर महिलाएं आज भी शारीरिक हिंसा को ही घरेलू हिंसा मानती हैं। ऐसे में गाली-गलौच करना या फिर घर में तोड़फोड़ करना समाज की नज़रों में घरेलू हिंसा के दायरे में नहीं आता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में 3 में से 1 महिला द्वारा यौन मारपीट या अंतरंग साझेदार हिंसा (इंटिमेट पार्टनल वॉयलेंस) का सामना किया गया है। अगर हम बात करें भारत की तो यहां घरेलू हिंसा को लेकर स्थिति हर दिन बुरी होती ही दिखाई पड़ती है। हाल ही में जारी हुए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों को देखें, तो साल 2021 में आत्महत्या से होने वाली महिलाओं की मौत में 51.5 फीसद गृहिणियां शामिल थीं।

ये सभी आंकड़े घर में महिलाओं की स्थिति और उनकी अधिकारों की सुरक्षा को दर्शाते हैं। विकास की दिशा में आगे बढ़ते भारत में एक हद तक घरेलू हिंसा के हिंसात्मक स्वरूप को कम तो किया है, लेकिन आज भी घरेलू हिंसा के अलग-अलग रूप हमें हर स्तर पर दिखाई देते हैं। बीते कुछ हफ़्तों से हमने ग्रामीण महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा को लेकर सामुदायिक बैठकें कीं जिसका उद्देश्य घरेलू हिंसा को लेकर महिलाओं के अनुभवों और इसकी बुनियादी वजहों को जानना है।

इन बैठकों में जो अनुभव सामने आए, वे हमें आस-पास कई महिलाओं के साथ होते नज़र आ सकते हैं। साथ ही इन अनुभवों में पितृसत्ता की गहरी जड़ें दिखाई पड़ती हैं। ये वही जड़े हैं जो महिलाओं को सालों-साल घरेलू हिंसा सहने के लिए अभ्यस्त करती हैं। आज अपने इस लेख में मैं उन्हीं अनुभवों और इसकी पितृसत्ता की उन जड़ों को साझा करने जा रही हूं, जो गाँव की महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा को लेकर हुई सामुदायिक बैठक में सामने आए हैं।

“कभी-कभार घर में हिंसा होती है पर किस लिए यह मालूम नहीं”

जब भी किसी गाँव में घरेलू हिंसा के मुद्दे पर बैठक में आई महिलाओं के साथ बातचीत शुरू करो तो उसमें अधिकतर महिलाओं के ज़वाब यही होते हैं कि हमारे घर में ऐसा कुछ नहीं होता है। लेकिन जब बारी-बारी से सभी के घर में महिलाओं का हाल जानने से बात शुरू करो तो बहुत सारे पहलू सामने आने लगते हैं। पांच गाँवों की क़रीब दो सौ से अधिक महिलाओं के साथ बैठक करने के बाद यह एक बात सामने आई जो अधिकतर घरों में बेहद सामान्य थी। बैठक में शामिल ज्यादातर युवा लड़कियों का कहना था कि उनके घर कभी कोई हिंसा नहीं होती है। लेकिन कभी-कभार मम्मी-पापा या फिर भाई-भाभी में झगड़ा होता है और पापा या भाई, मम्मी या भाभी को मारते हैं। लेकिन ऐसा महीने या दो महीने में एक-दो बार ही होता है। लेकिन झगड़ा किसलिए होता है यह पता नहीं चलता।

घरेलू हिंसा को हमेशा घर का मामला ही कहा जाता है, फिर भले ही ये पूरे समाज को क्यों न प्रभावित करे। महिलाएं इसके बारे में बात न करें इसलिए हमेशा इसे परिवार-घर की इज़्जत से जोड़ दिया जाता है। साथ ही इसकी बागडोर महिलाओं के हाथ में दे दी जाती है कि अगर वे घरेलू हिंसा के बारे में बोलती हैं तो इससे परिवार की इज़्जत चली जाएगी।

इस पूरी बात की शुरुआत और अंत इसी के साथ होती है कि घर में महिलाओं के साथ हिंसा होती है लेकिन कभी-कभार, जिसे घर के अन्य सदस्य सामान्य मानते हैं। ताज्जुब की बात यह है कि इस हिंसा की वजह क्या है, ये झगड़े क्यों होते हैं। इसके बारे में जानने में उनकी कोई रुचि नहीं होती या अगर वे इसे जानने की कोशिश भी करती है तो उन्हें ये कहकर चुप करवा दिया जाता है कि अगर आदमी दो बात कह दे या कभी हाथ उठा भी दे सह लेना चाहिए।

“मारपीट नहीं करते, सिर्फ़ गाली देते है और समान तोड़ देते हैं”

घरेलू हिंसा को लेकर हुई महिलाओं के साथ चर्चा में यह बात कई महिलाओं ने खुद को शारीरिक हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं से बेहतर बताते हुए रखी। उनका कहना था कि उनके घर के मर्द (पति, ससुर या बेटा) कभी महिलाओं के साथ मारपीट नहीं करते हैं। सिर्फ़ गाली देते हैं या फिर अगर उन्हें ग़ुस्सा आता है तो कभी खाने की थाली या फिर घर का कोई सामान तोड़ देते हैं।

भले ही घरेलू हिंसा के अलग-अलग रूप (शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और यौनिक हिंसा) पर बात की जाती है लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि ज़्यादातर महिलाएं आज भी शारीरिक हिंसा को ही घरेलू हिंसा मानती हैं। ऐसे में गाली-गलौच करना या फिर घर में तोड़फोड़ करना समाज की नज़रों में घरेलू हिंसा के दायरे में नहीं आता। जबकि घरेलू हिंसा के ये रूप भी महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं, धीरे-धीरे घरेलू हिंसा के रूप हिंसात्मक रूप में बदलने लगते हैं।

“घर में थोड़ा-बहुत झगड़ा तो चलता है”

घरेलू हिंसा को लेकर अधिकतर महिलाएं यह कहती नज़र आई कि ये तो घर की बात होती है और घर में थोड़ा-बहुत झगड़ा तो चलता है। लेकिन यही महिलाएं यह कहने से हमेशा कतराती हैं कि इस थोड़े-बहुत वाले झगड़े की वजह से कई बार महिलाएं गंभीर रूप से घायल भी हो जाया करती हैं।

महिलाओं से जब हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने पर बात की गई तो उनका कहना था कि उनके घरों में हमेशा से यही माहौल रहा है। चाहे ससुराल हो या मायका, इतना लड़ाई-झगड़ा तो हमेशा से घर का हिस्सा है ही। लेकिन आज तक घर की किसी महिला ने इस हिंसा के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठाई, इसलिए वे कैसे आवाज़ उठा सकती हैं। महिलाओं के इन अनुभव से पितृसत्ता के तहत की गई महिलाओं की कंडीशनिंग का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इस कंडीशनिंग में वे हिंसा को हमेशा अपने जीवन का हिस्सा मान लेती हैं।

भले ही घरेलू हिंसा के अलग-अलग रूप (शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और यौनिक हिंसा) पर बात की जाती है लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि ज़्यादातर महिलाएं आज भी शारीरिक हिंसा को ही घरेलू हिंसा मानती हैं। ऐसे में गाली-गलौच करना या फिर घर में तोड़फोड़ करना समाज की नज़रों में घरेलू हिंसा के दायरे में नहीं आता।

“विरोध करने के बाद पनाह कहां मिलेगी”

बैठक में शामिल रज़िया (बदला हुआ नाम) ने घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को लेकर कहा, “किसको हिंसा पसंद होती है? मुझे भी बुरा लगता है जब पति मेरे साथ गाली-गलौच और मारपीट करते हैं। शुरुआत में मैंने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और कुछ दिनों के लिए मायके भी चली गई। लेकिन फिर मायकेवालों ने कहा वे मुझे ज़्यादा दिन तक पनाह नहीं दे सकते। इसके बाद वापस यहीं आना पड़ा। अब मैं कुछ भी नहीं बोलती हूं। जब भी आवाज़ उठाने का सोचती हूं तो मन में यही सवाल आ जाता है कि मुझे पनाह कहां मिलेगी और बच्चों के साथ कहां जाऊंगी?”

कई सर्वे में यह पाया गया है कि जब महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त होती हैं या उनके पास किसी भी तरह संपत्ति होती है तो उनके ऊपर हिंसा का स्तर एक हद तक कम हो जाता है। शायद इसीलिए भारतीय संविधान में भी बेटियों को संपत्ति का अधिकार दिया गया। लेकिन यह बात अभी भी सिर्फ़ क़ानून तक ही सीमित है। गांव में आज भी अधिकतर महिलाएं कम पढ़ी-लिखी हैं। उनके पास अपने रोज़गार का कोई साधन नहीं। आर्थिक निर्भरता घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने में एक मज़बूत आधार के रूप में काम करता है।

“घरेलू हिंसा पर बात करने से परिवार की इज़्ज़त चली जाती है”

घरेलू हिंसा को हमेशा घर का मामला ही कहा जाता है, फिर भले ही ये पूरे समाज को क्यों न प्रभावित करे। महिलाएं इसके बारे में बात न करें इसलिए हमेशा इसे परिवार-घर की इज़्जत से जोड़ दिया जाता है। साथ ही इसकी बागडोर महिलाओं के हाथ में दे दी जाती है कि अगर वे घरेलू हिंसा के बारे में बोलती हैं तो इससे परिवार की इज़्जत चली जाएगी। इसलिए बैठकों में भी अक्सर महिलाएं अपने घरों में होने वाली हिंसा के बारे में खुलकर बात नहीं करती हैं, लेकिन वे घरेलू हिंसा पर आवाज़ न उठाने या फिर इसे नज़रंदाज़ करने के मौके खोजती हैं।

अब हमें यह समझना होगा कि पितृसत्ता ने ‘इज़्ज़त’ के नाम पर सदियों से महिलाओं के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ किया है। हिंसा चाहे जो भी करे, उसकी इज़्जत को कभी अहमियत नहीं दी जाती है, लेकिन जैसे ही कोई महिला इसके ख़िलाफ़ बोलती है तो कहा जाने लगता है कि ‘महिला की इज़्जत चली गई। अगर हम गांव स्तर पर बाल विवाह, स्कूल ड्रॉपआउट, महिला अशिक्षा या अन्य लैंगिक आधारित हिंसा और भेदभाव की वजहों को देखते हैं तो हमेशा उसकी मुख्य जड़ में घरेलू हिंसा को ज़रूर पाते हैं।

और पढ़ें: वे छह कारण जिनकी वजह से महिलाएं हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा पाती

घरेलू हिंसा से जुड़ी ये कुछ ऐसी बातें है जो इस समस्या की जटिलता को दिखाती है। जब तक हमें किसी भी समस्या का पता नहीं होता है तब तक हम उस समस्या का हल नहीं कर सकते हैं। घरेलू हिंसा के अधिकतर मामलों में हम देखते हैं कि सालों-साल या कई बार तो महिलाएं ज़िंदगीभर हिंसात्मक रिश्ते में बिना आवाज़ उठाए ज़िंदगी बीता देती हैं। इसलिए ज़रूरी है कि घरेलू हिंसा से जुड़ी उन परतों और पहलुओं को समझा जाए जो महिलाओं के मन में सालों से अपनी पैठ जमाए बैठी है। इन पर काम किए बिना हम कभी भी घरेलू हिंसा को जड़ से ख़त्म नहीं कर सकते हैं।


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