जब हम देश, समाज, घर -परिवार आदि में पूर्वाग्रहों, कुंठाओं ,जड़ताओं और उनसे उपजी कुंठाओं आदि से हो रहे तमाम अपराधों की बात करते हैं तो एक समवेत मत बनता है कि इन अपराधों के प्रति एक संवेदनशील नज़रिया रखा जाए। ये अपराध दमित इच्छाओं और पितृसत्तात्मक समाज के ही बनाए नियमों आदि की जकड़ से होते हैं। इस तथ्य के आधार पर एक वैज्ञानिक और संवेदनशील दृष्टिकोण तो बनता है जो कि सच है और मौलिक भी है लेकिन तब मन में एक यही दारुण सवाल उठता है कि ऐसे अपराधों को समाज में सहता कौन है, जवाब है स्त्री और बच्चे।
औरतें सामाजिक सत्ता के किस पायदान पर आती हैं हम सभी बेहतर जानते हैं। इस असमानता का विद्रूपपन ध्यान से देखने पर मन में दुख और रोष दोनों होता है कि आखिर संसार की लगभग आधी आबादी के फटे कलेजे को कैसे सिला जाए जिनके लिए आज भी समाज काऊ करी..! कहां जाई …! की बेबसी ,पीड़ा विकलता और छटपटाहट का यातना गृह है। वह समाज जो उनके सपने देखने के मौलिक अधिकार, एक मनुष्य की मनुष्यगत इच्छाओं को कुचलता रहता है। ख़ैर यह सवाल अपनेआप समाज के सामने एक आईना लेकर खड़ा है कि कितनी ज़रूरत है इस पर सोचने -समझने और इन पीड़ाओं की जगहों को और करीब से देखने की और इन पर अब तक हुए विमर्शों की पुनर्व्याख्या की।
कहीं स्त्री-हिंसा की बात होती है तो मन एक अजीब तरह से वहां से छूटने लगता है क्योंकि इतनी घटनाएं होती रहती हैं गांव-जवार में कि जैसे इस हिंसा, क्रूरता की हर घटना मन में गिजबिज होकर संताप की तरह उठती है। इन अन्यायों को गिना जाए जो छुटपन से देखती-सुनती आई हूं तो कहते-लिखते सांझ-विहान हो जाए लेकिन कुछ बेहद विद्रूपता से भरी क्रूरताओं और समाज के एकदम से पक्षपातपूर्ण व्यवहार को दर्ज करते हुए दृश्य ज्यादा स्पष्ट होंगे क्योंकि उनकी चलन, मान्यताएं और उनका विचार ही वहां की परिस्थितियों को तय करते हैं।
औरतें सामाजिक सत्ता के किस पायदान पर आती हैं हम सभी बेहतर जानते हैं। इस असमानता का विद्रूपपन ध्यान से देखने पर मन में दुख और रोष दोनों होता है कि आखिर संसार की लगभग आधी आबादी के फटे कलेजे को कैसे सिला जाए जिनके लिए आज भी समाज काऊ करी..! कहां जाई …! की बेबसी ,पीड़ा विकलता और छटपटाहट का यातना गृह है।
मैं अपनी तरफ से बहुत कुछ अलग से नहीं कहना चाहती। सामाजिक व्यवहार और उनके पूर्वाग्रहों ,धारणाओं आदि को बस कुछ घटनाओं और उन पर लोगों की प्रतिक्रियाऔर व्यवहार को रेखांकित करना चाहती हूं कि समाज में स्त्री शोषितों में भी शोषित है। कैसे एक ही संवेदना में दोनों के साथ अलग-अलग व्यवहार होता है और उसकी बानगी भर ही हम देख पा रहे हैं क्योंकि पूरा तो देखना कठिन है।
अब यह कई सालों पहले की बात हो गई गाँव में घर के सामने ही एक परिवार था संयुक्त परिवार जिसमें ढेर सारे बच्चे और स्त्री-पुरुष रहते थे। अपने सामने घटी यह घटना मुझे हमेशा याद रही रात भर एक स्त्री कराहती रही आवाज़ मेरे घर तक आ रही थी। उस परिवार की बहू को बेटे ने पीटा था जो कि आए दिन की बात थी गाँव-घर कोई भी उस बात को गंभीरता से लेता ही नहीं था। ये भारतीय मर्दवादी समाज का सामान्य व्यवहार है, उनकी मर्यादा का हिस्सा। जिस स्त्री की बात कर रही हूं उसकी सीधे-सीधे पति ने ‘हत्या’ की थी लेकिन गाँव में हर कोई उसे दुर्घटना कहता रहा।
गांववालों का मानना था बेचारा झगड़ालू पत्नी से परेशान था, पत्नी थी ही मनबढ़ थी आखिर वह अनायास भला क्यों मारता-पीटता उसे। उस दिन भी उसी झगड़े में मार रहा था कहीं कुघात लग गया और वह मर गई। हत्या के बाद किसी तरह पुलिस आ भी गई तो भी गाँववालों को बहुत खल गया कि किसने पुलिस को फोन किया। गाँवों में अक्सर ऐसे काम किसी न्यायप्रियता से नहीं आपसी रंजिश और द्वेष से हो जाते हैं। लेकिन एक प्रमुख बात जो मैं इन घटनाओं में देखती हूं कि यह वह कि अगर अपराध स्त्री के प्रति हुआ है तो वह अपराध है ही नहीं है बल्कि एक गलती या दुर्घटना है।
यह इस तरह की घटनाएं गांवों में आम हैं, अपराधियों को बचाने के लिए उनकी जाति-बिरादरी और उनका सामंती समाज खड़ा रहता ही है। हालात यह है कि यहा कोई स्त्री अगर थाने में पति के खिलाफ़ या यौन उत्पीड़न के लिए शिकायत करने जाती है तो अव्वल तो उसे सुना नहीं जाएगा। अगर सुन भी लिए गया तो रिपोर्ट तो बिल्कुल नहीं लिखेंगे, उलटा सिर्फ डांट-फटकार से काम लेते हैं क्योंकि वहां बैठे लोग इस तरह का अपराध करते रहते हैं और उसे अपना अधिकार समझते हैं। इस तरह समाज के ये पुरुष अपनी बिरादरी का सहयोग करते हैं। आप इसमें भी बहुत साफ देख सकते हैं कि स्त्री समाज की दोहरी सर्वहारा है क्योंकि शोषितों और वंचितों में भी सबसे ज्यादा प्रताड़ित होती है। अब इस बात को इस तरह देख सकते हैं कि अगर स्त्री के प्रति आप अपराध कर रहे हैं तो आपके लिए जरूरी नहीं है कि आप समाज के बहुत वर्चस्वशाली व्यक्ति हो उसके लिए आपका पुरुष होना काफी होता है।
इस विषय में किसी की कोई भी राय हो लेकिन जो मैं इस जमीन पर रहकर लगातार देख रही हूं वह यह कि कमज़ोर से कमज़ोर तबके के समुदाय में स्त्री हिंसा एक सामान्य पहलू है। लाख कानून हमारे देश में मौजूद हो लेकिन पहले उसके क्रियान्वयन के लिए वह समाज कहां से लाएंगे, उस समाज के अपने परंपरागत मूल्य और चलन हैं ,बहुत कठिन संघर्ष हैं। इसके लिए ज़रूरी है पुराने मूल्यों, धारणाओं और रीति-रिवाजों, जड़ मान्यताओं आदि पर एक तटस्थ और वैज्ञानिक पुनर्मूल्यांकन की। यह हमारी ज़िम्मेदारी भी है कि हम समाज में इस विषय पर तथ्यपरक विचार न्याय और विज्ञान की दृष्टि से बात रखते रहे। बाकी ये सब सदियों की कंडीशनिंग है तो समय बहुत लगेगा और बहुत असफलता भी मिल सकती है, बदलाव की दिशा कुछ भ्रमित भी हो सकती। हम इस आस में बहुत निराश न हो कि बदलाव का स्वरूप एकदम आदर्श स्वरूप हो क्योंकि जब चीजें टूटती हैं तो जरूरी नहीं है कि एकदम सही फ्रेम में जुड़ेंगी ही।
अपराधियों को बचाने के लिए उनकी जाति-बिरादरी और उनका सामंती समाज खड़ा रहता ही है। हालात यह है कि यहा कोई स्त्री अगर थाने में पति के खिलाफ़ या यौन उत्पीड़न के लिए शिकायत करने जाती है तो अव्वल तो उसे सुना नहीं जाएगा। अगर सुन भी लिए गया तो रिपोर्ट तो बिल्कुल नहीं लिखेंगे, उलटा सिर्फ डांट-फटकार से काम लेते हैं क्योंकि वहां बैठे लोग इस तरह का अपराध करते रहते हैं और उसे अपना अधिकार समझते हैं। इस तरह समाज के ये पुरुष अपनी बिरादरी का सहयोग करते हैं।
यहां एक घटना अभी तीन साल पहले की है मेरे इलाके के कचहरी परिसर की बात है। गाँव का कुछ पारिवारिक ज़मीनी विवाद था जो मारपीट और कोर्ट कचहरी तक गया। दोनों पक्ष कचहरी परिसर में ही थे। दूसरे पक्ष के एक वरिष्ठ पुरुष जो कि वकील भी हैं, वहीं उनके वादी पक्ष में जिसमें एक स्त्री और कुछ-एक परिवार के लोग थे। वहीं उस स्त्री से वकील साहब की झड़प शुरू हो गई, किसी भद्दी गाली के एवज में स्त्री ने उन्हें वहीं कचहरी परिसर में ही उन्हें थप्पड़ मार दिया। लेकिन एक थप्पड़ का बहुत क्रूर प्रतिकार लिया गया। घटना के बाद बाद स्त्री को उसी बाज़ार में सुलह के बहाने किसी जगह पर बुलाया गया और वकील और उसके युवा असिस्टेंट ने मिलकर इतना मारा उस स्त्री को कि चोट और आकस्मिक भय से उसने घटनास्थल पर ही पेशाब कर दिया था।
उस औरत की पूरी देह पर उस बर्बर मारपीट के निशान थे लेकिन आसपास में जो कुछ लोग थे उनके लिए एक स्त्री का पिटना बहुत हैरत की बात नहीं। इस घटना की बाज़ार में खूब चर्चा रही। पूरा पुरुष समाज खुश था इस घटना से। उनका मानना था कि आखिर एक गंवार स्त्री की इतनी हिम्मत कैसे हुई कि वह पुरुष पर हाथ उठाए। वह भी एक रसूख़दार व्यक्ति पर। बहुत दिन तक यह बात मेरे मन में रह गई। लेकिन इस घटना की पीड़ा ने मन को बेध दिया था कि अगर स्त्री है सामने तो हिंसा करनेवाला अपने प्रतिकार से कई गुना ज्यादा हिंसक हो जाता है।
एक इसी तरह की एक घटना मुझे याद है जिसका अभी तक मुकदमा चल रहा है। बात तबकी है जब मायावती सरकार में थीं। कादीपुर तहसील की घटना है। राज्य की ओर से ठंड में कंबल बंट रहे थे। खतीरपुर गांव की एक स्त्री अपनी विकलांग बच्ची को लेकर कंबल के लिए जाती है। वहां बैठे एक कर्मचारी उन्हें कंबल नहीं देना चाहते थे क्योंकि वह कर्मचारी जबकि वह जरूरतमंद थीं। जमीन का एक टुकड़ा उनके पास नहीं था। वह प्राइमरी स्कूल में रसोइया थीं। इस झड़प में उस कर्मचारी ने भी उन्हें भद्दी गाली दी। जवाब में उन्होंने भी थप्पड़ मार दिया जिसके कारण उनपर कार्यवाही हुई, उन्हें छुड़ाने और ज़मानत देनेवाला कोई नहीं था तो वह कई महीने तक जेल में रहीं। आज तक उस स्त्री पर मुकदमा चल रहा है मेहनत़ मजदूरी से जो मिलता है जाकर वकील को दे आती है।
इस विषय में इतनी तरह की हिंसा और क्रूरता है कि लिखते हुए जैसे संवेदना थक जाती है मैं जैसे ही एक घटना का ज़िक्र करती हूं, कई घटनाएं आकर खड़ी हो जाती हैं जो स्त्री के प्रति हुए अन्याय का दस्तावेज हैं, जिनको किसी ने पलटकर भर निगाह नहीं देखा। दुनिया की तमाम त्रासदियों में यह सबसे व्यापक और करुण त्रासदी है जिनको क्रमबद्ध लिखना कहना मुश्किल है।
तो यह सज़ा है इस समाज में स्त्री के लिए अन्याय का प्रतिकार करने पर। ये तीनों अलग-अलग परिदृश्य से आनेवाली स्त्रियों पर होने वाले अन्याय का स्वरूप है जिसमें हर परिदृश्य में हिंसा करनेवाले विभिन्न वर्ग के पुरुष हैं। इस हिंसा से से पीड़ित जो वर्ग है स्त्री है उसके लिए हर वर्ग का पुरुष हिंसक हो जाता है क्यों कि समाज ने उसे यही ट्रेनिंग दी है, स्त्री पूर्ण मनुष्य नहीं है यह बात उसकी चेतना में पैबस्त है।
जहां तक मेरा अनुमान है कि शहरी स्त्रियां गवई स्त्रियों की अपेक्षा इन मामलों में कम उत्पीड़ित होंगी क्यों कि पहली बात यह कि वहां कुछ सीमा तक थाने में शिकायत हो जाती है। दूसरे पुरुष उन्हें देखते भी हैं कि वे एक हद तक सशक्त और सक्षम भी हैं। एक तरह से या एक सीमा में उन्हें सत्ता भी मानते हैं क्योंकि मुझे याद आता है पहले गाँव में कोई महानगरों से लौटता तो हैरत के साथ यह बात कहता कि अरे बंबई में तो लड़कियां फिल्मों की तरह बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलाती हैं और किसी महिला पुलिस की कमर में लटकती गन उन्हें ताकत की एक नयी दिशा दिखती। ख़ैर यह उनकी सत्ताधारी सोच है और सत्ता का वह हिस्सा उन्हें अपने से दूर-दूर दिखता है तो उन्हें कुछ रोमांटिज्म जैसा लगता है लेकिन अपने आसपास की स्त्री की सत्ता उन्हें चिढ़ाती है।
स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा की नींव समाज में बहुत गहराई से धंसी हुई है। पुरुष को उनको घर-परिवार समाज और कुछ हद तक फिल्में, सीरियल, सोशल मीडिया पर बनते स्त्रीद्वेषी वीडियो ,रील्स, स्त्रियों पर बने भद्दे चुटकुले, स्थानीय भाषाओं में बनते सस्ते और बेहद अश्लील गीत आदि सब उनको एक तरह से स्त्री-उत्पीड़न की बाकायदा ट्रेनिंग देते हैं। इस यौन हिंसा में लिथड़े मर्दवादी समाज की यौन हिंसा का स्वरूप शैलजा पाठक की एक कविता “बुझी लालटेन के शीशे काले होते हैं” में बहुत साफ दिखता है जिसमें वह लौंडा नाच का दृश्य रखते हुए समाज की इस विद्रूपता और हिंसा का बहुत साफ आईना रखती हैं कि कैसे कोई पुरुष कुछ देर के लिए जब स्त्री बनने का स्वांग करता है नाचने के लिए तो कितनी यौन हिंसा झेलता है तो ऐसे यौन कुंठित समाज में तो सचमुच की स्त्री की पीड़ा का तो कोई अंत ही नहीं।
इस विषय में इतनी तरह की हिंसा और क्रूरता है कि लिखते हुए जैसे संवेदना थक जाती है मैं जैसे ही एक घटना का ज़िक्र करती हूं, कई घटनाएं आकर खड़ी हो जाती हैं जो स्त्री के प्रति हुए अन्याय का दस्तावेज हैं, जिनको किसी ने पलटकर भर निगाह नहीं देखा। दुनिया की तमाम त्रासदियों में यह सबसे व्यापक और करुण त्रासदी है जिनको क्रमबद्ध लिखना कहना मुश्किल है, क्योंकि कोई भी काल हो इस अपराध क्रम में लगातार इतनी नयी घटनाएं आ जाती हैं कि हर पल एक नया त्रासद इतिहास बन जाता है। इसकी जबाबदेही हमारे उस समाज के पास नहीं होती जो स्त्री पर नियंत्रण को अपना अधिकार समझता है। आज ज़रूरत है व्यक्ति समाज के विचारों में एक आमूलचूल परिवर्तन हो, गैरबराबरी की सारी सतहों को उधेड़कर न्याय और वैज्ञानिक तर्क पर देखा जाए। समाज के स्त्री विरोधी दृष्टिकोण को बदलने की ज़रूरत है और यह काम निरंतर किए जानेवाला काम है क्योंकि स्त्री विरोध की पूरी परंपरा सदियों के सामाजिक व्यवहार का नतीजा है।
हमारे सामने लड़ाई की बहुत लंबी रात है जिसकी सुबह शायद उतनी खुशनुमा न हो जितनी हमें आस है लेकिन संघर्ष नहीं करना अपने लिए और आने वाली नस्लों के प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार है , अभी बड़ी ही लम्बी राह तय करनी है एक समता और सद्भाव के समाज के नव-निर्माण के लिए , मानवीय मूल्यों और संवेदनशील संसार के लिए एक वैज्ञानिक और द्वंदात्मक दृष्टि बनानी होगी।