गाँव-समाज परिवार एक समूह होता है जहां हम रहते हैं एक मनुष्य की आवश्यकता और चेतना के साथ। लेकिन जब हम देखते हैं कि यही समाज हमें हमारे अधिकारों से वंचित करता है हमें मनुष्य होने की गरिमा से बहिष्कृत रखता है तब मन में विद्रोह की संवेदना फूटती है। हमारी दृष्टि सारी सामाजिक और राजनीतिक रीति-नीति का मूल्यांकन करने लगता है। जब समाज में इतना कुछ हो रहा हो जो चेतनाशील स्त्री की आत्मा में समा न रहा हो तो प्रतिरोध वहीं कहीं से फूट पड़ता है और वह किसी न किसी रूप में दर्ज होता। इसी द्वंद में ‘हिस्टीरिया’ जैसी किताबें लिखी जाती हैं।
इसी क्रम में मैंने सविता पाठक की किताब हिस्टीरिया पढ़ी। हिस्टीरिया जैसी बीमारी को लेकर मेरी कुछ मनोवैज्ञानिक सामाजिक समझ बनी थी वह बहुत गहरी नहीं थी। लेकिन जब कहानी ‘हिस्टीरिया’ पढ़ी तो स्त्री जीवन के चेतन-अवचेतन के बारीक तार और सुलझ गए, उसके बहुत से धुंधले परिदृश्य मुझे साफ दिखने लगे। कहानी की नायिका है अर्चना, अवध के गाँवों के सामंती परिवेश से जूझती लड़की के जीवन में घटती घटनाओं से चलती है कहानी। अधूरी पढ़ाई, अधूरे सपने के साथ अवध के एक गाँव की लड़की अर्चना का ब्याह हो गया। शादी के दौरान दौरा पड़ा या नहीं, वह खुद भी नहीं जानती। अबकी बार तो उसने सब का मुखर विरोध किया। जो नहीं कहना था वह सब कहा। सब के चरित्र की बखिया उधेड़ दी। खूब रोई-चिल्लाई और पुलिस की भी धमकी दे दी। वैसे इस धमकी के बाद वह खुद ही डर गई। पुलिसवाले तो बदनाम ही करेंगे। उल्टे घरवालों से पैसा भी लेंगे। आंगन में शादी का बाँस गड़ा। सात पुश्तों के पितरों को जगाया जाने लगा। गांवभर की सुहागिनें इकट्ठा थीं और तभी अर्चना को हिस्टीरिया का दौरा पड़ा।
अर्चना की साधारण मनुष्य जैसी इच्छाएं थीं, जिसे वह किसी कीमत पर दबा नहीं सकी। समाज उसे हिस्टिरिक मरीज़ बना देता है या यूं कहिए कि कितनी गलीज स्थिति है कि अपनी इच्छाओं और बातें कहने भर के लिए एक स्त्री को हिस्टीरिया बीमारी की अवस्था में आना होगा। समाज में वह साहस और दम नहीं कि सामान्य ढंग से वह गुलामी की सत्ता-संरचना को सुन सके। इसलिए स्त्रियां बीमार हैं, ‘अक-बक’ कर रही हैं क्योंकि सभ्यता-संस्कृति के भव्य निर्माणों के बावजूद आप उन्हें चाबी वाली गुड़िया नहीं बना सके। वह हर हाल में अपनी बात कहती है और साबित करती है कि हिस्टिरिक स्त्रियां नहीं, यह समाज है, पितृसत्ता की कुंठाओं से भरा हुआ। कहानी का अंत जिस तरह होता है वह रोमांचक और प्रतिरोध के नये रास्ते और एक नई आस किरण फूटती है।
जब समाज में इतना कुछ हो रहा हो जो चेतनाशील स्त्री की आत्मा में समा न रहा हो तो प्रतिरोध वहीं कहीं से फूट पड़ता है और वह किसी न किसी रूप में दर्ज होता। इसी द्वंद में ‘हिस्टीरिया’ जैसी किताबें लिखी जाती हैं।
अर्चना जब कहती है- हां, हम बदमाश हई! न जाब!’ अर्चना बोलते-बोलते विकराल होने लगी। उसका शरीर ऐंठने लगा और मुंह से फुंफकार के साथ झाग निकलने लगी। उसकी आवाज़ पूरे गांव में गूंज रही थी। ताल तलैया हिल गए। शादी के शगुन वाला आंगन का बांस कांपने लगा। सुरसत्ती देई, अनारा देई सहित पुरखों की आत्मा चिंहुक गई। वे कांपने लगीं। आंचल से चावल झर गया। पूरे परिवार में साहस नहीं था कि कोई कुछ बोलता। ससुर साहब वापस लौट गए। कहते हैं इस बात को बीते बीस बरस हो गए, अब यहां लड़कियां साइकिल से स्कूल जाती हैं और यहां अब यदि कोई लड़की ‘न’ कहती है तो बारात वापस लौट जाती है। हिस्टीरिया फैल चुका है। यह महिलाओं में सेक्स से जुड़ी बीमारी है। अब तो यह बेहद गंभीर और लाइलाज बीमारी हो गई है। मास्टर चंद्रभान रोज बड़बड़ाते हैं।”
इसी हिस्टीरिया संग्रह की जो एक दूसरी कहानी है ‘प्रतिस्मृति’ वह समाज के उस सच का आईना हैं जहां लड़कियों के अधिकार की बात करना गुनाह माना जाता है। कहानी जहां से शुरू होती है वही वेदना और अन्याय के लोकगीत कोरस में चलते रहते हैं। मीना बुआ आई हुई हैं। बुआ हर तरह से शऊरदार थीं। घर-गाँव में कोई ऐसा नहीं था जो उनकी तारीफ नहीं करता थ। हाथ में जैसे कोई वरदान हो एक टहनी भी तोड़कर लगा दें तो पौधा बन जाता है ,घर के पीछे सातों पेड़ उन्हीं के लगाए हुए हैं। धनिया , मिर्ची , हल्दी का पौधा भी लगाती थी। उनका लगाया सूरन और अरवी अभी तक चल रहा है। बुआ ससुराल से लड़कर आई थीं। एक कोने में बैठी रोए जा रही थीं। दादा चिल्ला रहे थे, पापा बार-बार भीतर बाहर आ जा रहे थे। चाची चुप करवा रही थीं, माँ ने थोड़ी देर में अरबी की सब्जी और रोटी बुआ को पकड़ा दी। इसी बीच दादा ने खींचकर थाली फेंक दी रोटी। सब्जी आँगन में छितरा गई। पापा ने माँ को एक भद्दी सी गाली दी। माँ भागकर कमरे में चली गई। अगले दिन बुआ वापस ससुराल भेज दी गई। बादल बरस रहे थे, आंगन में कहीं-कहीं काई जम गई थी। माँ-चाची चावल छांट रही थीं, उनका गीत खत्म नहीं हो रहा था, जैसे उनका रोना खत्म नहीं हो रहा था।
दूरी से आवे ननदिया डेवढ़ीया के बाटी हो ..!
भौजी एक लोटा पानी हमें दई देतू हो ..!
पीई के अपने घर जाईती हो..!
इहवां डोरिया टूटल बा बाल्टी हमार फुटल बा इनार झुराइल बा हो …!
ननदी फेरि जाऊ घर के लवटी जाऊ हो ..!
ननदी एक लोटा पानी भयल नोहर हो …!
ननदी लवटी अपने घर जयतु हो..!
ये अंश सविता पाठक के कहानी संग्रह की प्रतिस्मृति कहानी से है। प्रसंग है लड़की ससुराल से मायके आसरे के लिए आती है और वहां से उसे तिरस्कृत करके ससुराल लौटाया जाता है। कहानी में वर्तमान और अतीत दोनों के दृश्यों को आमने -सामने रखकर चलती है। किस्सागोई की जो प्राचीन परंपरा रही है, इसी शिल्प में कहानी चलती है जिसे कहा-सुना जा सके। संग्रह की सभी कहानियां बड़ी बातें कहती हैं। लेकिन कहानी प्रतिस्मृति और नीम के आँसू और हिस्टीरिया कहानी मन में ठहर जाती है। ये लोकगीत प्रतिस्मृति कहानी में चलते रहते हैं। माँ और चाची जांत पीसते हुए जो जतवढ़ गा रही हैं वह सिर्फ़ पीड़ा का गान नहीं है निर्वासन का प्राचीन विलाप है।
यहां बात हम सिर्फ अधिकार की करें तो वह प्रलाप भर रह जाएगा। यह प्रश्न पूरी विवाह नामक व्यवस्था पर प्रश्न है जिसमें दहेज और तमाम शादी की फिजूलखर्ची और तामझाम पर है। जब हम अधिकार की बात कर रहे थे कर्तव्य की बात आएगी ही लेकिन सवाल वही है कि जो इस व्यवस्था के नियंता हैं उनका न्याय, उनकी करुणा इतनी एकपक्षीय क्यों हो जाती है। बस इसलिए कि जो सदियों का रिवाज है उसमें शामिल भीड़ में हम क्यों न शामिल रहें और उसमें शामिल होने के लिए वे अपनी संतान को देस निकाला देता है और उसे विवाह कहता है।
कहानी में ये प्रसंग कुछ दशक पहले की स्मृति पर है जब बेटियां मायके आकर कई महीने रहती थी। तब सब सहज भी था। अब गाँव में ढूंढने से भी कोई विवाहित लड़की नहीं मिल सकती। सदियों की उस परंपरा को तोड़ना कितना कठिन है पीढ़ी दर पीढ़ी। ये सांस चलने की तरह स्त्री की आत्मा में चलता है। वे अपना अलग अस्तित्व देख ही नहीं पातीं। पुरुष जीवन उनके अवचेतन तक स्थापित है। विडम्बना है जहां से वे हमेशा के लिए निर्वासन पातीं उसी देस की खुशहाली के लिए प्रार्थना करती हैं।
अपनी इच्छाओं और बातें कहने भर के लिए एक स्त्री को हिस्टीरिया बीमारी की अवस्था में आना होगा। समाज में वह साहस और दम नहीं कि सामान्य ढंग से वह गुलामी की सत्ता-संरचना को सुन सके। इसलिए स्त्रियां बीमार हैं, ‘अक-बक’ कर रही हैं क्योंकि सभ्यता-संस्कृति के भव्य निर्माणों के बावजूद आप उन्हें चाबी वाली गुड़िया नहीं बना सके।
मीना बुआ ससुराल से लड़कर आई थीं तो उनके हाथ की रोटी फेंककर उसी ससुराल भेज दिया गया। उसी परिवार की दूसरी पीढ़ी की बड़ी लड़की जब भाई से माँ के नाम का घर बेचने पर सिर्फ सवाल कर लेती है कि क्यों नहीं बताया तो दोबारा वही प्रतिक्रिया हुई जो पिछली पीढ़ी की मीना बुआ के घर आने से हुई थी। जबकि लड़की भाई से सिर्फ पूछ रही थी अपना हिस्सा नहीं मांग रही थी। भाई एक आधुनिक व्यक्ति है। बहन भाई के लिए समर्पित बहन थी लेकिन पितृसत्ता से सवाल क्यों कर लिया।
किताब की एक और कहानी ‘नीम के आंसू’ एकबारगी हमें गहरे दुख में डुबो देती है पर वहीं से मुक्ति का रास्ता खुलता है। यह कहानी प्रेमचंद की चर्चित कहानी कफ़न के समकक्ष लगी। सामाजिक विद्रूपता की अंतहीन सतहें और वर्जनाएं एक जैसी टूटती हैं दोनों कहानी में। कहानी में सत्ता किस तरह परंपरा और ढांचे को तोड़ती है और वे लोग जो संस्कृति की दुहाई देते हैं सत्ता के सामने कैसे सिर झुकाते हैं। बड़की बिट्टी ने अंतरजातीय विवाह किया तो उसे गाँव आने नहीं दिया गया लेकिन जब उसका पति दरोगा हो जाता है, वह उसकी गाड़ी से आती है तो गाँववाले अंत्येष्टि के काम में जुट जाते हैं। कहानी का अंत जितना मार्मिक है मुक्ति की दिशा भी वहीं झटके से खुलती है।
सविता जिस भाषा में कहानी कहती हैं वह पारंपरिक नहीं है, एकदम सहज और प्रवाह के साथ कहन में बहती रहती है और कहानी कहने में उन्होंने कोई तकनीकी प्रयोग नहीं किए हैं। किस्से की तरह जैसे कहती-गुनती जा रही हैं। कहानी की भाषा कहीं-कहीं खूबसूरत कविता सी चलती है। प्रकृति को निहारने में लेखिका सौंदर्य के गहरे बिम्ब रचती है, तब कहानी अपनी रुमानियत में बहती है तभी जैसे कहानीकार को उद्देश्य का खयाल आ जाता है और वह फिर यथार्थ में लौटती है, जैसे दुख और वेदना को कहना है अन्याय को चिन्हित करना है, याद आ जाता है।
भाषा की लोकरंगता पर कई बार बचपन के किस्सों की याद आ जाती है। जैसे किस्से में नायिका के हंसने से फूल झरता और रोने से मोती। ऐसी ही संवेदना से कहानियां लिखी गई जहां कहानी किसी विमर्श को आरोपित करने की कोशिश नहीं कर रही है बल्कि जो उसकी मौलिकता है उसी में सब कहती है अर्थात कहानी में कहानी खूब है। किताब की अंतिम कहानी ‘हिदुस्तान का दिल’ अंतरजातीय विवाह की मुश्किलों पर है। तमाम विडम्बना और संघर्षों के बाद कहानी का अंत अच्छा लगा , समाज की परम्पगत सोच और अभावों से लड़ते हुए चाँद और सोनी बचे रहने चाहिए नहीं तो प्रेम और सौहार्द की दुनिया कैसे बचेगी।