इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत अवध के लोकगीतों में स्त्री-प्रतिरोध के स्वर का इतिहास

अवध के लोकगीतों में स्त्री-प्रतिरोध के स्वर का इतिहास

क्या सदियों से स्त्रियां प्रतिरोध कर रही थीं इस व्यवस्था के प्रति। फिर मन में यह सवाल भी आता है कि स्त्रियों ने जो प्रतिरोध किया उससे बदलाव क्यों नहीं हुआ। जवाब भी लगभग हम सब जानते हैं। एक तो प्रतिरोध पर्याप्त नहीं हुआ और दूसरे सत्ता की अपनी व्यवस्था के विरुद्ध उठे प्रतिरोध को कुचलने की नीति।

क्या स्त्री-प्रतिरोध की परिपाटी नयी है, इसका कोई आदिम इतिहास नहीं है? ये चेतना क्या आधुनिक समाज में ही उपजी थी या पहले भी इसके बीज हमारी माटी में थे जिन्हें कभी अंकुरित नहीं होने दिया गया। सवाल का जवाब यह हो सकता है कि हर सत्ताधारी समाज अपने उपेक्षित का इतिहास गौण कर देता है। जब हम लोकगीतों, किस्से, कहानियों ,पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के अन्य संदर्भ को देखते हैं तो पाते हैं कि वे प्रतिरोध का संकेत करते हैं। 

बेटी के बाबा जे वर खोजई निकले बेटी अरज लिहे ठाढ़ि…
हमारे जोगे के वर खोज तू मोरे बाबा नाहीं हम रहब कुवांरि…!

ये अवधी के लोकगीतों में उठा स्त्री प्रतिरोध का स्वर है। यह गीत बना होगा तो स्त्री प्रतिरोध का शब्द भले ही अस्तित्व में नहीं था लेकिन इसकी संवेदना का जन्म हो चुका था। ये अवधी के लोकगीत जाने कितनी पीढ़ियों से गाए जा रहे हैं तो सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या सदियों से स्त्रियां प्रतिरोध कर रही थीं इस व्यवस्था के प्रति। फिर मन में यह सवाल भी आता है कि स्त्रियों ने जो प्रतिरोध किया उससे बदलाव क्यों नहीं हुआ। जवाब भी लगभग हम सब जानते हैं। एक तो प्रतिरोध पर्याप्त नहीं हुआ और दूसरे सत्ता की अपनी व्यवस्था के विरुद्ध उठे प्रतिरोध को कुचलने की नीति। हम जब इतिहास में प्रतिरोध करनेवाली स्त्रियों को देखते हैं तो एक गिरती फिर से उठती प्रतिरोधी परंपरा की रोशनी दिखती है। उससे पर्याप्त प्रकाश भले न हो पाया हो लेकिन हमारी प्रतिरोध की परंपरा बहुत आदिम है। तभी ये लोकगीत बने और सदियों से जीवित हैं। समाज की विवाह संस्था को जिस तरह लोकगीत उघाड़ते हैं ये दृष्टि दुर्लभ दिखती है जिसमें वे बाज़ार के दखल को चिन्हित करते हुए बताती है कि यह विवाह संस्कार जीवन से कैसे बड़ा बन गया है।

मंगिया के सिंदूरा महंग भइले बाबा चुनरी बिचाये अनमोल …!
यही रे सिन्हुरवा के कारण बाबा छोड़ऊ देश तोहार

फिर गीत की आगे पंक्तियों में विस्थापन की पीड़ा और कैसे अपने ही विस्थापितों से मुंह मोड़ते हैं उसकी मार्मिक व्यथा गीत में चलती रहती हैं।

अम्मा कहे बेटी निति उठि आवऊ
बाबा कहे छठि मास….
भइया कहे बहिनि काज परोजन….!
भउजी कहै कस बात…!

तो एक इसी बात पर हम ठहरकर सोचते हैं कि क्या सदियों पहले स्त्री चेतना के साथ ही समाज जन्मा था। चूंकि लोकगीत लोक चेतना से ही जन्मे हैं तो स्त्री-चेतना उतनी ही आदिम है जितनी लोक चेतना। इस लिहाज़ से यह स्त्री प्रतिरोध की हमारी परंपरा भी उतनी ही आदिम है। जाने कितने समय से एक समाज के लोग जिस तरह के खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, विश्वास, मान्यताएं, परंपराएं और धर्म-कर्म का निर्वाह करते हैं उन सभी से उनकी संस्कृति बनती है। वह संस्कृति हमारे समूचे जीवन को प्रभावित करती है। लेकिन यह तो समझना ही होगा कि संस्कृति कोई आसमानी चीज नहीं है। हमारी लोक परंपराएं, मान्यताएं, लोक साहित्य आदि में संस्कृति के रंग होते हैं और इन्हीं घटकों से उसका ढांचा भी बनता है।

क्या सदियों पहले स्त्री चेतना के साथ ही समाज जन्मा था। चूंकि लोकगीत लोक चेतना से ही जन्मे हैं तो स्त्री-चेतना उतनी ही आदिम है जितनी लोक चेतना। इस लिहाज़ से यह स्त्री प्रतिरोध की हमारी परंपरा भी उतनी ही आदिम है।

आप जब इस गीत की पंक्तियों पर ठहरेंगे तो लगता है कि स्त्री अपने प्रति होते अन्याय के लिए प्रतिरोध आज से नहीं कर रही है, सदियों से करती आ रही है। यह बेटी के विवाह के लिए वर ढूढने का प्रसंग है। पिता अपनी बेटी के लिए जीवनसाथी का चयन करने जा रहे हैं तो बेटी अपनी इच्छा का निवेदन कर रही है। अवधी में गाए जानेवाले लोकगीतों में अवध क्षेत्र की लोक आस्थाओं, परंपराओं, प्रथाओं, रीति-रिवाजों सामाजिक, विधि-निषेध, खान-पान रहन-सहन आदि का जो सहज चित्रण हुआ वही  समाज की सांस्कृतिक चेतना का अविरल प्रवाह अवधी लोकगीतों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाता रहा है। अवधी लोकगीतों में रामकथा की प्रधानता है और यहां वर को ‘राम’ बहू को सीता’ के रूप में अक्सर चित्रित किया गया है।

इसी तरह गौरा को बेटी और शिव को दामाद के रूप में उद्घृत करते हैं जिसमें वह बेटी के लिए सुख-सुहाग का प्रतीक शिव देवता को ही मानते हैं और मर्यादा के देवता भगवान राम को बेटे या कुलनायक के रूप में देखते हैं। इसमें खूब विभिन्नताएं भी देखने को मिलती हैं जैसे बेटी का प्रतीक गौरा हैं बहुत से गीतों में और वहीं कहीं-कहीं बेटी को वह सीता कहकर भी संबोधित करते हैं। किसी-किसी लोकगीत में यही सीता या गौरा कुल मर्यादा के बोझ में दबी है तो कहीं बहुत मुखर होकर विद्रोह कर रही हैं व्यवस्था से। कहीं-कहीं तो विद्रोहिणी बनकर विवाह के कलश ,मंडप तक को भी तोड़ देती हैं। एक विवाह गीत की पंक्तियां हैं:

बरहऊ बजनवा बाजत आवई!
महुवरी ढुरी-ढरि जाई !
नगर के दूती जे लइया लगावें सीता तोहार वर छोट
कंगन तोड़ी कलश ढरकाइन!
मड़वा दिहली उजारि !
अईसन वर के हम न बिहबई वो वर बाटेन छोट
भितरा के पंडित बहरे होई जाला
अब नाही होई है सीता बियाह ।

लोक के इस विवाह गीत में एक व्यवहारिक विद्रोह उस लड़की का है जिसका विवाह होने जा रहा है। उसे जब पता चलता है कि उसका वर उसके अयोग्य है तो वह अपने हाथ में बंधे शगुन के कंगन को जो कि विवाह परंपरा में एक मुख्य रस्म होती है, तोड़कर फेंक देती है और विवाह के भरे कलश को ढरका देती है। साथ ही विवाह के लिए बने मंडप को अपने हाथ से उजाड़ देती है। एक संपूर्ण मुक्ति की बात के साथ कहती है कि मैं ऐसे वर से ब्याह नहीं करूंगी। इस तरह का लोक में विद्रोह या विद्रोह की यह स्वतंत्रता जो कन्या की इच्छा से उठती है लोकगीतों में अब कम दिखती है। कहीं-कहीं उलाहना या पीड़ा का स्वर दिखता है। ज्यादातर दुख, विडंबना, समाज के तिरस्कार ही गीत के बोलों में मिलते हैं, लेकिन वे भी अपने आप में बहुत गहरा शीत विद्रोह हैं। एक विवाह के गीत का प्रसंग है

बेईली के फूल अस बेटी हो गौरा
भइली मड़वना में ठाढ़
झीन मड़ुउआ जिनी छाये मोरे बाबा कोमल बदन कुम्हिलाई
कहाऊ त मोरी बेटी छत्र छवाऊ
कहाऊ सूरज अलोपी

इस गीत में वियोग से भरी हुई बेटी विवाह के मंडप में आई और पिता से दुलार में कहती है कि धूप तेज चढ़ आई है जो मेरी देह को झुलस रही है। पिता जो कि बेटी के विवाह की ज़िम्मदारी से हलकान है वह व्यंग से कहता है कि बेटी कहो आकाश पर छावन तनवा दूं या सूर्य को अलोप कर दूं। बेटी इस अप्रत्याशित उत्तर से दुख में भरकर कहती है पिता तुम ये सब क्यों करोगे मैं तो आज ही तुम्हारे यहां हूं, कल तो परदेश में अंजाने वर के साथ चले जाना है। अब यह विस्थापन की पीड़ा, जो विवाह के लोकगीत हैं उनमें अक्सर आती ही रहती है जहां अपने अधिकार की बात सटीक न कहकर पीड़ा की शक्ल में कही जाती रही है। आज जब संपत्ति में बेटी के अधिकार की बहस हो रही तो लगता है कि ये बहस सदियों पहले नहीं थी। लेकिन लोकगीत कहते हैं कि ये बहस नयी नहीं है। पैतृक सम्पत्ति में बेटी अधिकार की बात कई विवाह के गीतों में पहले से ही उठती है और जब वह कहती है:

भैया के दिहे बाबुल महला अटारी..
हमका दिहे रे परदेस रे बाबुल.

गौरतलब है कि इस गीत में बेटी अपने अधिकार की बात बखूबी कर रही है लेकिन पिता इस अधिकार की बात को परंपरा की बेबसी बताकर उसे पराया बता देता है। इस तरह पितृसत्ता अपनी सदियों की चालाकी से अधिकार की बात पीछे कर देता है। किसी भी ज़मीन के लोकगीतों में उस क्षेत्र के जनमानस की, उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थितियों के सटीक दृश्य मिलते हैं। वे बताते हैं कि उस समाज में स्त्री की दशा क्या थी और उसी परिपेक्ष्य हम जब इस वर्तमान समय का अध्ययन करेंगे तो देखेगें कि वह यातना और पीड़ा स्त्री की अब भी बहुत कम नहीं हो पाई है।

जो कुछ बिढ़ये बाबा भइया बरियरिया
ओहमें से आधा अहई हमार
आधा -आधा जिनी कर बेटी सरवस अहई तोहार
चुटकी सिंधुरवा खातिर हो बेटी तू तो हो गईलू पराई

इसी तरह का एक अवधी में विवाह का ही लोकगीत है 

झिलमिल झिलमिल दियना जरत हैं
जरई समासी की राति
झिलमिल-झिलमिल दियना बरत हैं
बरई सवांसी राती
माया जे सांजई आपन धेरीया ,बड़े भेनुसार
खाई ल बेटी ! खाई ल बेटी ! आपन दही औऊ भात
धई रखु माया रे ! धई रखु माया ! आपन दही औऊ भात
भइया के कलेवना माया हँसी ख़ुशी दिहीऊ
हमरी की दईयां माया उठिऊ रिसियाई
बजर की छतिया रे बेटी , बजर की छतिया बेटी बिहणी न जाई
चलत की बेरिया रे बेटी ! हमका दिहु समझाई।

ये विवाह के बाद माँ और बेटी के संवाद पर है जिसमें विदा होती बेटी से माँ दही और भात खाने की मनुहार करती है कि तुम अपना कलेवा (सुबह का नाश्ता) खा लो क्यों आज तुम्हारी विदाई का दिन है और तुम्हें बहुत भोर में ही निकलना है। बेटी जो कि छूटने के दुख से भरी है इतनी पीड़ा और वियोग के बाद भी वह भेदभाव के रंज को न भूल सकी और माँ से कह बैठती है कि भइया को तो हमेशा तुम हंसी-खुशी से दुलार कर नाश्ता करवाती थी। जब मेरी बारी आती तो तुम नाराज़ होकर उठती थी। माँ जो कि संतान बिछोह की पीड़ा में है लेकिन इस भेदभाव से उठे बेटी के मन के रंज को समझ कर तड़प उठती है और अपने कठोर कलेजे को लानत देती है जो एक ही कोख और एक ही रक्त-मांस के बच्चों में दिन-रात का अंतर रखती है।

बेटी-बेटे के भेदभाव की दुनिया के लिए शायद ही कोई और ऐसा गीत हो जब लोक की आदिम राग पर स्त्रियां ये गीत गाती हैं तो लगता है इस करुण स्वर नाद से धरती का कलेजा फट जाएगा। इस गीत के शब्द स्वयं मुखर होकर गैरबराबरी के उस समाज से सवाल करने लगते हैं लेकिन पितृसत्तात्मक समाज इसे महज स्त्रियों द्वारा गाए जानेवाला एक परंपरागत गीत समझकर अपनी धुन में जाने कितनी कोमल इच्छाओं को कुचलता हुआ चला जा रहा है।


Comments:

  1. Raviranjan says:

    बहुत प्रभावशाली आलेख, सादर।

  2. Savita says:

    बहुत ही जरूरी बात तलमबध्द हो रही है ।

  3. Jai Prakash Mandal says:

    बहुत सुंदर लेख। बधाई रूपम।

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