संस्कृतिकला सिवान के ‘विद्रोही’ घनश्याम शुक्ल का गांव आज उन्हें कैसे याद करता है

सिवान के ‘विद्रोही’ घनश्याम शुक्ल का गांव आज उन्हें कैसे याद करता है

पेशे से सरकारी मध्य विद्यालय के शिक्षक रहे घनश्याम शुक्ल को गांव के सभी छोटे-बड़े 'माटसाब' (मास्टर साहब) कहते थे। वह जवानी के दिनों में राजनीतिक रूप से खूब सक्रिय रहे।

सरकार की अपनी कोशिशों और सिविल सोसाइटी की गोष्ठियों के बावजूद दहेज संबंधी मामलों और दहेज के लिए महिलाओं की हत्या के मामले में बिहार देश में दूसरे स्थान पर है। ज़ाहिर है यह मंच से दिए जाने वाले भाषणों और निजी जीवन के कर्मों के बीच का अंतर बताता है। लेकिन उसी बिहार के सिवान ज़िले में एक ऐसे कर्मयोगी हुए, जो दहेज के ख़िलाफ़ अपने बेटे की शादी तक तोड़ने को तैयार हो गए थे। महिलाओं की शिक्षा के लिए अनके संस्थान बनाने वाले, विधवा विवाह के लिए समाज से लड़ जानेवाले और छुआछूत के खिलाफ काम करते हुए अपनी जिंदगी खपा देने वाले उस शख़्स का नाम था- घनश्याम शुक्ल।

सिवान ज़िले के पंजवार गांव निवासी घनश्याम शुक्ल का पिछले वर्ष 23 दिसंबर को निधन हुआ था। पेशे से सरकारी मध्य विद्यालय के शिक्षक रहे घनश्याम शुक्ल को गांव के सभी छोटे-बड़े ‘माटसाब’ (मास्टर साहब) कहते थे। वह जवानी के दिनों में राजनीतिक रूप से खूब सक्रिय रहे। उन्होंने किशन पटनायक, महेंद्र टिकैत, मेधा पाटेकर, योगेंद्र यादव के साथ काम किया। किसानों, मजदूरों के लिए सामंतों से लोहा लिया। जब थोड़ी उम्र ढली तो संस्थानों के निर्माण के जरिए राष्ट्रनिर्माण का काम शुरु किया। आमतौर पर लोग रिटायरमेंट के पैसों से घर बनाते हैं, गाड़ी खरीदते हैं, शादी करते हैं, भविष्य के लिए उसे बैंक में जमा करते हैं, लेकिन शुक्ल ने अपनी पूंजी लड़कियों के लिए महाविद्यालय खोलने में लगा दी।

जब गांव की लड़कियों ने खेलने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने मैरीकॉम के नाम से खेल एकेडमी ही शुरू कर दिया। कला को समाज की बेहतरी का माध्यम मानने वाले माटसाब ने उस छोटे से गांव में संगीत महाविद्यालय की भी स्थापना की। हालांकि ग्रामीण परिवेश में इस तरह के काम को करना आसान नहीं था। संगीत महाविद्यालय के खिलाफ गांव के लोगों ने तो पुलिस में शिकायत तक कर दी थी। कोई गाने-बजाने के खिलाफ था तो कोई संगीत महाविद्यालय के नाम के विरुद्ध था। लेकिन उनके त्याग और निष्ठा के सामने रूढ़िवादियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। आइए जानते हैं समाज की कुरीतियों से लड़ने के उनके कुछ किस्से:

दहेज प्रथा के खिलाफ अपने ही घर में खोल दिया मोर्चा

सादा जीवन जीने वाले शुक्ल भौतिक चीजों के प्रति बेहद उदासीन थे। यही वजह रही कि उन्होंने अपने बेटों की शादी तक में दिखावे से परहेज किया। एक मौका तो ऐसा भी आया, जब दहेज की बात पर शादी टूटने की नौबत आ गई। दरअसल, घनश्याम शुक्ल समाज की विभिन्न बुराइयों की तरह ही दहेज प्रथा के भी कट्टर विरोधी थे। बात घनश्याम शुक्ल के बड़े बेटे चंद्रभूषण शुक्ल की शादी के वक्त की है। चंद्रभूषण शु्क्ल अभी पुलिस विभाग में बड़े पद पर हैं। शादी के वक्त उन्होंने पीएसआई (पुलिस सब-इंस्पेक्टर) की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी यानी गांव वालों को उम्मीद थी कि मोटा दहेज मिलेगा। लेकिन घनश्याम शुक्ल अलग मिजाज़ के व्यक्ति थे, उन्होंने लड़की के पिता के सामने शादी की शर्त रख दी कि विवाह सादगी से होगा।

सिवान जिला के पंजवार गांव निवासी घनश्याम शुक्ल का पिछले वर्ष 23 दिसंबर को निधन हुआ था। पेशे से सरकारी मध्य विद्यालय के शिक्षक रहे घनश्याम शुक्ल को गांव के सभी छोटे-बड़े ‘माटसाब’ (मास्टर साहब) कहते थे। वह जवानी के दिनों में राजनीतिक रूप से खूब सक्रिय रहे।

घनश्याम शुक्ल के शिष्य और शादी के तय होने से लेकर संपन्न होने तक के गवाह रहे रमन तिवारी बताते हैं कि घनश्याम शुक्ल ने लड़की के पिता से साफ़ कह दिया था कि न बैंड बाजा बजेगा, न भीड़भाड़ वाली बारात आएगी। हम 10 लोग अपनी-अपनी सवारी से आएंगे और शादी कर के लड़की को ले जाएंगे। लड़की के पिता मान गए। बिहार में शादी से पहले जब वर पक्ष के लोग लड़की से पहली बार मिलते हैं, तो उसे शगुन के रूप में सोने की अंगूठी, चेन, कपड़ा आदि देते हैं। लेकिन शुक्ल ने अपनी होनेवाली बहु को शिव खेड़ा की किताब दी, जिसका शीर्षका था- ‘जीत आपकी।’

इसी दौरान लड़की की माँ ने लड़के वालों से भोजपूरी में कहा, “हमरा लइका के बाबूजी से बात करे के बा।” शुक्ल ने कहा, “जी कहीं।” इस पर लड़की के मां ने बोला, “हमरा अपना बेटी खातिर कुछ श्रद्धा बा, हम कुछ तैयार कइले बानी, हम देवे के चाह तानी। लेकिन रऊआ कह तानी कि हम कुछ लेबे न करेम, त हमार श्रद्धा कइसे पूरा होई।” इस पर शुक्ल ने कहा, “देखी रऊआ आपन इहे श्रद्धा पूरा करे के बा, त दुनिया में ढ़ेर लइका बारन स। ओही में से कोनो के खोज के आपन श्रद्धा पूरा कर लीं। हमारा दहेज के नाम पर एगो धोतियो ना चाहीं। शादी करे के बा, त करीं। ना त रहे दीं।” इतना सुनने के बाद लड़की की मां ने कुछ नहीं कहा और शादी तय हो गई।

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पंकज त्रिपाठी के साथ घनश्यमा शुक्ल

दुल्हे के पिता साइकिल से गए बारात

चंद्रभूषण शुक्ल के बाराती रहे घनश्याम शुक्ल के शिष्य संजय अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि कैसे गांव के सम्मानित शिक्षक अपने बेटे की शादी में साइकिल से बारात गए थे। शादियों में पैसों बर्बादी के खिलाफ लोगों को जागरूक करने वाले घनश्याम शुक्ल को जब अपने बेटे की बारात ले जानी थी, उन्होंने बारातियों से कहा, ‘सभे लोग आपन-आपन सवारी ले लेवे।’ जिसके पास जो सुविधा से थी, वह उसे से चल पड़ा। बड़ी संख्या साइकिल वालों की थी, जिसमें सबसे आगे खुद दूल्हे के पिता चल रहे थे। सिर्फ दो मोटर वाहन की व्यवस्था, जिसमें दूल्हा और कुछ बुजुर्ग सगे-संबधी बैठे थे। लड़की के घर से कुछ दूर पहले सभी ने अपने-अपने वाहन को खड़ा किया और पैदल ही, बिना किसी बैंड, नाच गाना, वधू के घर की तरफ चल पड़े।

संजय बताते हैं कि यह सब देख बाराती में से ही किसी ने धीरे से कहा, ”माट साहेब बारात लेके आइल बानी कि डांडी मार्च करे ! ना नाच ना बाजा…ए ले बढियाँ त सियारन के बारात निकलेला! कम से कम हूँआ-हूँआ त बोलेले सन!” सुबह जब लड़की की विदाई का वक्त आया तो वर-वधू की गाड़ी में सामान रखा जाने लगा। यह देखते ही घनश्याम शुक्ल बिफर पड़े। उन्हें साफ कहा कि कोई सामान नहीं जाएगा। घरवालों ने निवेदन किया कि लड़की का सामान है, जाने दीजिए। लेकिन वह अड़ गए। साफ कहा, एक भी सामान नहीं जाएगा।

अंत में सभी को उनकी बात माननी पड़ी। लड़की का सारा सामान, जेवर, कपड़े, सब वहीं रह गए। दुल्हन सिर्फ अपने पहने कपड़ों के साथ ससुराल आई। गांव के लोगों के लिए यह विस्मित करनेवाला दृष्य था। जिस देश में देहज लेना या देना कानून अपराध हो, वहां ऐसा कर घनश्याम शुक्ल ने कुछ अनोखा नहीं किया। बस वही किया जो सही था। लेकिन वह अनोखा इसलिए हो गया क्योंकि, जो सही है उस सही को करना भी समाज में सजह और सामान्य नहीं है।

अंतरजातीय विवाह और घनश्याम शुक्ल का समर्थन

अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारें कई तरह की योजनाएं चलाती हैं। भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाला आंबेडकर फाउंडेशन अंतरजातीय विवाह करनेवाले लोगों को ढ़ाई लाख रुपये बतौर प्रोत्साहन राशी देता है। बिहार सरकार की बात करें तो, राज्य सरकार अंतरजातीय विवाह करने वालों को कुल 2.5 लाख रुपये देती है।

बावजूद इसके बिहार समेत देशभर में जाति से बाहर प्रेम करनेवाले लड़के-लड़कियों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। पिछले साल जुलाई में मुजफ्फरपुर में एक 17 साल के दलित लड़के की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि वह एक ब्राह्मण लड़की से प्रेम करता था। लड़के की ना सिर्फ हत्या की गई, बल्कि उसका प्राइवेट पार्ट भी काट दिया गया। इसी तरह नवंबर 2022 में सिवान ज़िले के भीतर ही दूसरी जाति के लड़के से प्रेम करने की वजह से एक 22 वर्षीय युवक ने कथित तौर पर अपनी बहन और उसके प्रेमी की हत्या कर दी थी।

शिक्षक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद शुक्ल ने अपने रिटायरमेंट का पूरा पैसा लड़कियों के लिए महाविद्यालय खोलने में खर्च कर दिया। जब उससे भी बात न बनी तो अपने साथियों के साथ सड़क पर चंदा के लिए बैठ गए। शुक्ल के स्कूल के दिनों के दोस्त बीएन यादव बताते हैं कि, ”शुक्ल कहा करते थे कि अगर चंदा के पैसों से शिवालय बन सकता है, तो विद्यालय क्यों नहीं।”

शुक्ल समाज की इस कटु सच्चाई को खूब समझते थे। वह न सिर्फ जातिवाद के खिलाफ अभियान चलाते थे बल्कि अंतरजातीय विवाह का समर्थन कर अपने लिए मुश्किल भी खड़ी कर लेते थे। एक बार गांव के ही एक लड़के ने दलित लड़की से प्रेम कर अंतरजातीय विवाह कर लिया था। नवदंपत्ति को गांव से निकाल दिया गया। लड़की गर्भवती थी। जब शुक्ल को इस मामले की जानकारी हुई, तो वह लड़के और लड़की को अपने घर ले आए।

घनश्याम शुक्ल की पत्नी- चंद्रावती देवी

शुक्ल की पत्नी, चंद्रावती देवी जिन्हें पूरा गांव चाची कहता हैं, वह भी अपने पति की तरह भी खुले दिल की महिला हैं। गांववाले बताते हैं कि ‘चाची’ ने उस लड़की की अपनी बेटी की तरह सेवा की। शुक्ल ने गर्भवती के लिए खान-पान, दूध, मसाला सबकी व्यवस्था की। शुक्ल की पत्नी गर्भवती लड़की को चापाकल तक नहीं चलाने देती थीं। प्रसव के वक्त घर में नर्स को बुलाया गया। इस तरह शुक्ल के घर में दलित लड़की ने बच्चे को जन्म दिया। आम तौर पर तिथि-पंचाग, पूजा-पाठ, कर्मकांड का विरोध करनेवाले शुक्ल ने पुरोहित को बुलाकर छठियार की तिथि निकलवाई। घर में सोहर गवाया। आस-पास के लोगों को बुलाकर मुंह मीठा कराया।

रिटायरमेंट के पैसों से लड़कियों के लिए खोला महाविद्यालय

गांव में कोई स्कूल नहीं था। यही वजह थी कि गांव की ज्यादातर लड़कियों को पढ़ाया भी नहीं जाता था। लड़के गांव से 10 किलोमीटर दूर जाकर स्कूली शिक्षा लेते थे। शिक्षक के रूप में बगल के गांव में पढ़ाते हुए घनश्याम शुक्ल ने जनसहयोग से साल 1982 में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला। मध्य विद्यालय के रूप में खुला स्कूल अब हाईस्कूल बन चुका है। साथ ही स्कूल का सरकारीकरण भी हो गया। उस स्कूल को वर्तमान में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय के नाम से जाना जाता है।

उनके द्वारा खोला गया स्कूल

शिक्षक के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद शुक्ल ने अपने रिटायरमेंट का पूरा पैसा लड़कियों के लिए महाविद्यालय खोलने में खर्च कर दिया। जब उससे भी बात न बनी तो अपने साथियों के साथ सड़क पर चंदा के लिए बैठ गए। शुक्ल के स्कूल के दिनों के दोस्त बीएन यादव बताते हैं कि, ”शुक्ल कहा करते थे कि अगर चंदा के पैसों से शिवालय बन सकता है, तो विद्यालय क्यों नहीं।”

जहां लड़कियों को शिक्षा मयस्सर नहीं, वहां खोला खेल एकेडमी

शुक्ल अपने पेंशन की राशि और जनसहोयग से महाविद्यालय चला रहे थे। उन्हीं दिनों की बात है। गांव में लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। शुक्ल लड़कों का खेल देख रहे थे, गांव की दो लड़कियां आई और शुक्ल से भोजपुरी में कहा, ”गुरुजी हमनीयो के खेले के चाह तानि सन (गुरुजी हम लोग भी खेलना चाहते हैं।) ” लड़कियों की बात शुक्ल, पहले तो थोड़ी देर सोचे, फिर कहा, “काल्ह आव लोग (कल आना दोनों)”

खेल अकादमी में मौजूद लड़कियां

शुक्ल द्वारा शुरु किए गए खेल एकेडमी के कोच संतोष बताते हैं, ”अगली सुबह गुरुजी ने 25,000 रुपये का खेल का सामान मंगाया। शाम में दोनों लड़कियां आई और इस तरह एक औपचारिक शुरुआत हुई।” बाद में इस पहल को एक आकार दिया गया और मैरी कॉम खेल एकेडमी की शुरुआत हुई। इस एकेडमी में मुख्य रूप से लड़कियां हॉकी खेलती हैं। मैरीकॉम से अब तक चार लड़कियां राज्यस्तरीय टूर्नामेंट जीत चुकी हैं।

निजी स्वार्थ से ऊपर उठ, व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर समाज की बेहतरी के लिए अपने अंतिम समय तक जूझनेवाले घनश्याम शुक्ल कहते थे, ”मैंने कुछ नहीं। सब कुछ जनसहयोग से हुआ है। अगर हम 50 हजार कमाते हैं, तो उस पर एक-दो प्रतिशत का हक समाज का बनता है। आप जो कुछ भी हैं, वह केवल परिवार की वजह से नहीं हैं। उसमें समाज का भी देन होता है। इसलिए समाज से अगर आपको कुछ मिला है, तो आप भी समाज को वापस कीजिए।”

घर तक नहीं पहुंचा नारीवाद

घनश्याम शुक्ल ने भी वही गलती की, जो उनके पुरखे बुद्ध, लियो टोल्स्टोय, आदि ने की। शुक्ल ने समाज की बेहतरी के लिए महिलाओं की आजादी और उनकी इच्छाओं की वकालत तो कि लेकिन उस बहस की गूंज उनके अपने आंगन तक नहीं पहुंच पाई है। शुक्ल ने अपनी पत्नी चंद्रावती देवी को लगातार उपेक्षित किया। उन्होंने गांव की बच्चियों के कहने पर पूरा का पूरा खेल एकेडमी खोल दिया लेकिन अपनी पत्नी से कभी उनकी इच्छा नहीं पूछी। वह न घर में रहते थे, न उनसे खुलकर बात करते थे।

घनश्याम शुक्ल के गुजरने के बाद उनके शिष्य और परिवारवाले भी उनके इस व्यवहार को सही नहीं ठहराते। हालांकि, शुक्ल के छात्र रहे रमन तिवारी बताते हैं कि आखिरी वर्षों में उनके गुरु जी को अपनी गलती का अहसास हो रहा था। शुक्ल कहते थे, ”मैंने अपने परिवार के लिए कुछ नहीं किया। परिवार के लोगों को इसका विरोध करना चाहिए था।”


सभी तस्वीरें श्वेता द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।

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