ग्राउंड ज़ीरो से ‘महिला घरेलू कामगार संगठन’ की नींव रख ‘चिंता दीदी’ कैसे बनीं हज़ारों महिला कामगारों की आवाज़

‘महिला घरेलू कामगार संगठन’ की नींव रख ‘चिंता दीदी’ कैसे बनीं हज़ारों महिला कामगारों की आवाज़

आज मध्यप्रदेश महिला घरेलू कामगार संगठन में लगभग 1000 से भी अधिक महिलाएं शामिल हैं । शहर की लगभग 12 बस्तियों में उनकी समितियां हैं। चिंता दीदी घरेलू कामगार महिलाओं को एक मंच देने के लिए प्रदेश भर में अपने संगठन का विस्तार करना चाहती हैं।

चिंता तिलवारी वह नाम जिन्होंने तमाम संघर्षों के बीच मध्यप्रदेश के भोपाल ज़िले में ‘महिला घरेलू कामगार संगठन’ की नींव रखी। आज हम चिंता तिलवारी के नज़रिए से समझेंगे कि इस संगठन को उन्होंने किस तरह खड़ा किया और आज वह कैसे खुद को और दूसरी घरेलू कामगार महिलाओं को देखती हैं। 36 वर्षीय चिंता तिलवारी नेहरू नगर के मोची मोहल्ले की निवासी हैं। उन्होंने कक्षा चार तक पढ़ाई की है। वह बैतूल ज़िले के एक छोटे गाँव से पलायन कर रोज़गार की तलाश में 20 साल पहले भोपाल आई थीं अपने पति के साथ। उनके पति भोपाल की बस्तियों में घूम-घूमकर जूते-चप्पल सिलने का काम करते हैं।

चिंता दीदी अपने काम की शुरुआत के बारे में बताती हैं, “मैंने आर्थिक तंगी के चलते घर से बाहर अपने लिए काम तलाशे। जल्द ही आस-पास की महिलाओं के साथ दौड़-भागकर मैंने चार घरों में काम पकड़ लिया। यहां साफ-सफाई करने का काम मिला। उन दिनों मैं चार घरों में काम करके करीब 12 हज़ार रुपये महीना कमा लेती थी। आज करीब बीस सालों बाद भी चार घरों में काम कर के मैं बस 16 हज़ार रुपये महीना ही कमा पाती हूं।”

आगे वह बताती हैं, “हमारी बस्तियों में अलग-अलग संस्थाओं के लोग अक्सर आते रहते थे। वे हमारे स्वास्थ, बच्चों की शिक्षा के बारे में जागरूकता फैलाते। जब कोरोना आया तो मैं अपने और मेरे जैसी दूसरी घरेलू कामगार महिलाओं के बारे में बात करना चाहती थीं। किसी से पूछना चाहती थी कि क्या हमारे बारे में बात करनेवाली कोई संस्था है? तब हमारे यहां विस्थापन के मुद्दे पर बात करने के लिए आशीष नाम के भैया आए तब मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे। जैसे, क्या हम घरेलू कामगार औरतों के लिए कोई नियम कानून है क्या? हम अपना समूह भी बना सकते हैं क्या? हम इतना दिन-रात एक कर के मजदूरी करते हैं लेकिन हमें कोई कामगार क्यों नहीं मानता। क्यों हम बुआ, बाई, नौकारानी, बहन,  दीदी बनकर रह गए? कौन हमारी सुध लेगा? तब भैया ने कहा था कि वह हमें इस के बारे में मालूम करके बताएंगे।”

संगठन की अध्यक्ष चिंता दीदी

वह आगे बताती हैं, “कुछ दिनों बाद वह अपने साथ एक दूसरी महिला फरहा (बदला हुआ नाम) को लेकर आए जो महिला अधिकारों के लिए काम करती हैं। उन्होंने एक पर्चा पढ़ा जो कामगार महिलाओं के बारे में था। उन्होंने बताया कि देश के कुछ प्रदेशों में तो घरेलू कामगार महिलाओं के लिए कानून बना हुआ है। साथ ही उन ने हमें यह भी बताया कि ये कानून घरेलू कामगार महिलाओं ने ही सरकार के साथ बात करके बनवाया है। हमें उन महिलाओं के बारे में जानकार बहुत अच्छा लगा जैसे हमने उन महिलाओं को सचमुच देख लिया।”

आज मध्यप्रदेश महिला घरेलू कामगार संगठन में लगभग 1000 से भी अधिक महिलाएं शामिल हैं । शहर की लगभग 12 बस्तियों में उनकी समितियां हैं। चिंता दीदी घरेलू कामगार महिलाओं को एक मंच देने के लिए प्रदेश भर में अपने संगठन का विस्तार करना चाहती हैं।

इस मुलाकात ने ही चिंता दीदी के दिमाग में इस विचार को पैदा किया कि क्यों न वह खुद घरेलू कामगार महिलाओं का अपना एक संगठन बनाएं जहां वे अपनी बातें, अपनी समस्याएं कह सकें। इस बारे में वह आगे बताती हैं, “मैंने उन दीदी भैया को जाते-जाते कहा आप अगली बार जल्दी आना। इसके बाद मैंने अपने मोहल्ल्ले की बाक़ी घरेलू कामगार महिलाओं से बात की और उनको भी आने का कह दिया। मैं पहले कभी इतना नहीं बोलती थी। अपने पति और बच्चों से भी नहीं। मीटिंग में मैंने सभी महिलाओं को भी इकठ्ठा किया। वहां सभी महिलाओं,  रमा, शकुंतला अम्मा, ज्योति दीदी सबने अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बोला। यह पहला मौका था उनके लिए जहां उनके काम से जुड़ी समस्याओं को सुना जा रहा था। उन्होंने बताया कि कैसे जब वे किसी दिन की छुट्टी कर लेती हैं तो पैसे काट लिए जाते हैं। अगर कभी वे सप्ताह के बीच में छुट्टी कर लें तो उन्हें उसके बदले ओवरटाईम काम करना पड़ता है। ईद और दिवाली जैसे त्योहारों पर भी काम पर जाना पड़ता है।

कैसे हुई चिंता तिलवारी के सफर की शुरुआत

जब पूरा देश कोविड से बचने के संघर्ष में लगा था तब चिंता दीदी को बस यही परेशानी खाई जाती थी कि क्या वह कामवाली बाई का मंच नहीं बना सकते? तब उनकी फिक्र में घरेलू कामगार महिलाओं के सवाल, उनकी सुरक्षा, उनकी समस्याओं को वह लगातार साझा करती। वह शकुंलता अम्मा जैसी बूढ़ी कामगारों के लिए फिक्रमंद रहती और कहती कि देखो यह अम्मा 60 वर्ष की हो गई हैं। अब इन्हें कोई भी मालिक काम पर नहीं रखता बोलती तो हम कामवाली औरतें बुढ़ापे मे में क्या करें, हमारा भविष्य कैसे सुरक्षित हो?”

बैठक में शामिल लता कहती हैं, “वैसे भी तो हम ही घर चलाते हैं तभी तो ये लोग काम पर जाते हैं। अगर घरेलू कामगार महिलाएं काम करने नहीं जाए तो इस देश का कलेक्टर भी काम पर नहीं जा सकता। मैडमों के बच्चे स्कूल नहीं जा सकते हैं। ये हम सभी जानते हैं मगर इसके बाद भी हम महिलाओं को कामगार का दर्जा नहीं दिया जाता है।”

चिंता दीदी के सवालों को और विस्तार देने के लिए उनकी मदद से घरेलू कामगार महिलाओं की बैठक आयोजित की गई। फिर हर कामगार महिला के सवालों को इकट्ठा किया। इस प्रकार चिंता दीदी ने एक राह पकड़ ली। जब उन्होंने महिलाओं के लिए बैठक का आयोजन किया तो सभी महिलाएं चिंता दीदी के साथ सम्मान के साथ जुड़ने लगीं। चिंता दीदी की गली, उनका छोटा सा घर बैठकों का अड्डा बन गया। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी बस्ती से बाहर निकलकर भोपाल में अपने मोहल्ले की आस-पास की बस्तियों में जा-जाकर, घरेलू कामगार महिलाओं से संपर्क कर उनके साथ मिलना-जुलना शुरू किया। इस तरह घरेलू कामगार की एक से बढ़कर दो और फिर तीन समितियां शुरू हो गई। मांडवा और नवग्रह बस्ती में भी। जब साझी समितियों को मिलाते हुए एक संगठन बनाने की बात हुई तब सभी जगह की महिलाओं ने चिंता दीदी के नेतृत्व को देखते हुए उन्हें ही संगठन के मुख्य अध्यक्ष के रूप में चुन लिया।

महिला घरेलू कामगार संगठन की बैठक में शामिल महिलाएं

इस प्रकार धीमे-धीमे बात करने वाली, अंदर से सबकी चिंताओं को बाहर लानेवाली चिंता संगठन की प्रमुख बन गई आज वह महिला घरेलू कामगार संगठन की अध्यक्ष हैं। हाल ही में चिंता दीदी की अध्यक्षता में भोपाल स्तर पर समितियों का गठन और साझे संगठन की बैठक की गई है। आज वह अपने संगठन के ज़रिये अलग-अलग बस्तियों में जाकर घरेलू कामगार महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करती हैं। साथ ही अधिक से अधिक कामगारों को अपने संगठन से जोड़ने की कोशिश में लगी हुई हैं। आज इन बस्तियों के घरेलू कामगार अपने पैसे कटने पर, छुट्टी न मिलने पर, बीमार होने पर भी काम पर जाने के लिए मजबूर होने की सूरत में चिंता दीदी का रुख़ करते हैं। ख़ास बात इस संगठन की यह है कि यहां बूढ़ी कामगार महिलाओं के हक पर भी बात की जाती है जिन्हें उम्र के कारण काम से निकाल दिया जाता है। आज मध्यप्रदेश महिला घरेलू कामगार संगठन में लगभग 1000 से भी अधिक महिलाएं शामिल हैं। शहर की लगभग 12 बस्तियों में उनकी समितियां हैं। चिंता दीदी घरेलू कामगार महिलाओं को एक मंच देने के लिए प्रदेश भर में अपने संगठन का विस्तार करना चाहती हैं।

“अगर हम काम पर न जाएं तो इस देश का कलेक्टर भी काम पर नहीं जा सकेगा”

चिंता दीदी के सफर को और करीब से जानने के लिए हम उनकी एक बैठक का हिस्सा भी बने। वहां हमने देखा कि सिर्फ चिंता दीदी ही नहीं साझे संगठन की बैठक में उनके द्वारा संगठन में जोड़ी गई हर महिला कामगार धीरे-धीरे अपनी समस्याओं पर खुलकर बात करने लगीं। बैठक में शामिल सुमन ने पूछा कि वे कामगार महिला हैं लेकिन उन्हें एक कामगार क्यों नहीं माना जाता है? क्या इसलिए क्योंकि वे औरतें है या फिर उन्हें काम नहीं आता है?

वहीं, बैठक में शामिल लता कहती हैं, “वैसे भी तो हम ही घर चलाते हैं तभी तो ये लोग काम पर जाते हैं। अगर घरेलू कामगार महिलाएं काम करने नहीं जाए तो इस देश का कलेक्टर भी काम पर नहीं जा सकता। मैडमों के बच्चे स्कूल नहीं जा सकते हैं। ये हम सभी जानते हैं मगर इसके बाद भी हम महिलाओं को कामगार का दर्जा नहीं दिया जाता है।” बैठक में शामिल अधिकतर घरेलू कामगारों का मानना था कि इस देश की तरक्की में उनकी भी उतनी ही भागीदारी है जितनी की मर्दों की है। लेकिन मेहनताने और पहचान में उनकी हिस्सेदारी कितनी है यह बताने को कोई तैयार ही नहीं होता है।

धीरे-धीरे चिंता दीदी ने अपनी बस्ती से बाहर निकलकर भोपाल में अपने मोहल्ले की आस-पास की बस्तियों में जा-जाकर, घरेलू कामगार महिलाओं से संपर्क कर उनके साथ मिलना-जुलना शुरू किया। इस तरह घरेलू कामगार की एक से बढ़कर दो और फिर तीन समितियां शुरू हो गई।

बैठक में शामिल घरेलू कामगार

संगठन की युवा साथी ज़ेबा ने घरेलू कामगार के मुद्दों को जोड़ते हुए बताया कि लाखों घरेलू कामगार स्त्रियों के श्रम को पूरी तरह से अनदेखा किया किया गया है। अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू काम और उनमें सहायक के तौर पर लगे लोगों के काम को, गैर उत्पादक श्रम की श्रेणी में रखा जाता है। सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी ही कहा जाता है। उसे एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो मूल कार्य नहीं करता बल्कि मूल कार्य पूरा करने में किन्हीं तरीकों से मदद करता है। इस वजह से ना तो उनका कोई वाजिब मेहनताना तय होता है ना ही देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आंकलन किया जाता है।

बता दें कि मध्य प्रदेश की सरकार ने साल 2009 में ‘मुख्यमंत्री घरेलू कामकाजी महिला कल्याण योजना’ लागू की थी जो केवल कागजों पर ही चली। कामकाजी महिलाओं को सम्मानजनक जिंदगी और समान अधिकार देने के लिए क़ानून बनाने के बजाय केवल सतही योजनाओं से ही काम चलाया गया। इस योजना के तहत कामकाजी महिलाओं के परिवारों को उपचार, शिक्षा, छात्रवृत्ति, बीमा, प्रसूति, विवाह सहायता, कौशल उन्नयन के अवसर उपलब्ध कराने की घोषणा तो की गई थी लेकिन इस पर अमल नहीं किया गया। बैठक में सभी महिला घरेलू कामगार की चिंता ज़ाहिर करते हुए चिंता दीदी ने बताया कि इस संगठन के बनने के बाद भी कोई यह नहीं कहता की इन महिलाओं को भी एक कामगार का हक़ मिलाना चाहिए, जो सामाजिक सुरक्षा है उसका लाभ भी हम महिलाओं को मिलाना चाहिए। 


(सभी तस्वीरें सबा द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं)

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