नारीवाद मीडिया ने कैसे गढ़ी नारीवादियों की एक नकारात्मक छवि!

मीडिया ने कैसे गढ़ी नारीवादियों की एक नकारात्मक छवि!

मीडिया ने नारीवाद को लेकर लोगों में गलत धारणा को बनाने में मदद की है। नारीवाद को एक अजूबे की तरह पेश किया गया है। नारीवादियों को उग्र, गुस्सैल और समाज के ख़िलाफ़ दिखाकर उन्हें केवल इसी खांचे में सीमित करने की कोशिश की है। एक वजह यह भी है कि सार्वजनिक रूप से ख़ासतौर पर महिलाएं खुद को नारीवादी कहलाने से बचती दिखती हैं। साथ ही मीडिया ने नारीवाद को तंज या उपहास की तरह इस्तेमाल करने का चलन बनाया हुआ है।

बीते कुछ दशकों में जेंडर आधारित मुद्दों को लेकर काफी संजीदगी से बात हुई है। समाज में इन सवालों को उठाने का काम किया है नारीवादियों ने। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि आज भी नारीवाद की बात करनेवाले लोगों को एक अलग नज़रिये से देखा जाता है। इस नज़रिये को स्थापित करने में एक बड़ी भूमिका संचार माध्यमों की भी है। मीडिया हो या सिनेमा दोंनो ही प्लैटफॉर्म पर नारीवाद को जिस तरीके से दिखाया गया है, उसने इस विचारधारा की नकारात्मक छवि बनाने का काम किया है। इस बात को कहने की वजह यह है कि मास मीडिया संचार के ऐसे सशक्त और विशाल माध्यम हैं जिनकी पहुंच लोगों तक आसानी से बनती है। इनसे लोग प्रभावित होकर अपनी राय बनाने का काम करते हैं। 

बात जब भी नारीवाद की आती है तो मीडिया की भूमिका पर रूढ़िवादी पितृसत्ता की मानसिकता हावी होती दिखती है। न्यूज़ मीडिया हो, टीवी मीडिया इंडस्ट्री हो या भारतीय सिनेमा का बड़ा पर्दा दोंनो ही जगह से आज भी नारीवाद को लेकर एक पूर्वाग्रह मज़बूती से काम करता नज़र आता है। इसका नतीजा यह है कि मीडिया ने नारीवाद को लेकर लोगों में गलत धारणा को बनाने में मदद की है। नारीवाद को एक अजूबे की तरह पेश किया गया है। नारीवादियों को उग्र, गुस्सैल और समाज के ख़िलाफ़ दिखाकर उन्हें केवल इसी खांचे में सीमित करने की कोशिश की है। एक वजह यह भी है कि सार्वजनिक रूप से ख़ासतौर पर महिलाएं खुद को नारीवादी कहलाने से बचती दिखती हैं। साथ ही मीडिया ने नारीवाद को तंज या उपहास की तरह इस्तेमाल करने का चलन बनाया हुआ है।

मीडिया और सिनेमा नारीवाद को कैसे दिखाता है

साल 2020 में रिलीज हुई फिल्म ‘थप्पड़’ में जब तापसी पन्नू के किरदार अमृता महज एक थप्पड़ की वजह से तलाक लेने की बात करती है तो फिल्म में अमृता का साथ देनेवाली महिलााएं उनकी वकील नेत्रा जय सिंह या फिर उसके भाई की मंगेतर स्वाति संधु को फिल्म के पुरुष किरदार यह कहते नज़र आते हैं कि वे वकील से ज्यादा फेमिनिस्ट बन रही हैं। फिल्म में कई जगह इन दोंनो किरदारों को अमृता को सपोर्ट करने की वजह से अपने मेल कलीग या पार्टनर से इस तरह की बातें सुनने को मिलती हैं। इस तरह के डायलॉग दिखाते हैं कि सिनेमा नारीवाद को लेकर आज भी कितना पीछे है। वह जेंडर के मुद्दों पर फिल्म बनाने को तो तैयार है लेकिन नारीवादी विचारधारा से कोसों दूर भागता है।

इसकी एक वजह यह है कि हम एक पुरुष प्रधान समाज में रहते हैं। हमारे उद्योग, मीडिया, कला और सिनेमा इंडस्ट्री भी इससे अछूती नहीं है। यही वजह है कि भले ही आज मीडिया या सिनेमा में महिलाओं की सशक्त और आत्मविश्वास से भरी छवि प्रस्तुत करता हो लेकिन आज भी यहां पुरुषों का एकाधिकार बना हुआ है। हर फैसले में उनका पक्ष हावी है। समावेशी नारीवाद से अधिक यहां ‘गर्ल बॉस फेमिनिज़म‘ हावी है।

नारीवादियों को परंपरा और संस्कृति की विरोधी के तौर पर दिखाया गया है। इससे अलग नारीवादियों की एक खास छवि बनाने की कोशिश की गई है जिसके अनुसार नारीवादी पुरुषों से नफरत करती है। नारीवादी मेकअप विरोधी होती है उनकी बातों का केंद्र ब्रा, सेक्स पर ज्यादा होता है। नारीवादी स्वभाव से गुस्सैल होती है।

नारीवाद के पक्ष को नज़रअंदाज कर उससे अति महत्वाकांक्षी बताया जाता है। नारीवादियों को परंपरा और संस्कृति की विरोधी के तौर पर दिखाया गया है। इससे अलग नारीवादियों की एक खास छवि बनाने की कोशिश की गई है जिसके अनुसार नारीवादी पुरुषों से नफरत करती हैं। नारीवादी मेकअप विरोधी होती हैं, उनकी बातों का केंद्र ब्रा, सेक्स पर ज्यादा होता है। नारीवादी स्वभाव से गुस्सैल होती हैं। वे शादी के ख़िलाफ़ होती हैं। इन सारी वजहों के पीछे जाकर मीडिया इनका विश्लेषण करने से बचता है। वह इन मुद्दों को एक सामाजिक समस्या न मानते हुए नारीवादियों की निजी समस्या मानता है। इस तरह की बहुत सारी नकारात्मक धारणाएं बनाकर लगातार नारीवाद के ख़िलाफ़ एक स्थिति को मीडिया या फिल्मों द्वारा बरकरार रखा जाता आ रहा है।

मास मीडिया के माध्यमों में मौजूदा स्त्रीविरोधी सोच और नीतियों में बदलाव लाने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और अध्ययनों में मीडिया और नारीवाद के मुद्दे पर विचार रखे गए हैं। कई रिसर्च में यह बात कही गई है कि नारीवाद को लेकर बनाई मीडिया की नीतियों को बदलने की सबसे पहली ज़रूरत है। साल 2006 में लिंड और सैओ के एक अध्ययन से पता चलता है कि नारीवाद को मीडिया में जगह ही नहीं दी जाती है। अक्सर उन्हें नकारात्मक छवि वाले प्रारूप से ही जोड़ा जाता है। उन्हें ‘नियमित’ महिलाओं से अलग चित्रित किया जाता है। अक्सर उन्हें केवल आंदोलन और उसके लक्ष्य तक ही जोड़कर देखा जाता है। 

साल 1993 में मीडिया पर लिखनेवाली क्रीडॉन ने लिखा था कि मीडिया नारीवादियों की हमेशा से एक गलत छवि पेश करने की कोशिश करता है। उन्हें पारिवारिक मूल्यों को खत्म करने और पुरुषों से घृणा करने वाली कहा जाता है। मीडिया में यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि नारीवादी पारिवारिक नहीं हो सकती हैं। दशकों से इस तरह से टीवी पर नारीवाद की प्रस्तुति की वजह से ही कई युवा महिलाएं नारीवाद के समर्थन से पीछते हटती नज़र आती हैं।

साल 2019 की बीबीसी में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार यूरोप के कई देशों में बहुत सी युवा महिलाओं ने खुद को नारीवादी कहने से इनकार कर दिया। मीडिया में नारीवाद को केवल आंदोलनकारी समझनेवाली सोच का ही एक परिमाण यह भी हो सकता है कि मीडिया जेंडर आधारित संघर्षों और उन्हें हकों को उस तरह से नहीं दिखाता है जिस तरह के इन मुद्दों को कवरेज कर लैंगिक समानता स्थापित करने में आवश्यकता है। नारीवाद को रोज़मर्रा की पितृसत्तात्मक सोच और धारणाओं के रूप में नहीं दिखाया जाता। इसे केवल सिसजेंडर, हेट्रोसेक्सुअल महिलाओं तक सीमित रखा जाता है। मीडिया ने नारीवाद को एक समावेशी विचारधारा से अधिक निजी जीवन जीने के एक तरीके के रूप में चित्रित किया है, जहां नारीवादी औरतें इस पितृसत्तात्मक विचारधारा की परिभाषा में फिट नहीं बैठती हैं।

हिंदी फिल्मों में नाम से लेकर किरदार तक नारीवाद की समझ

भारतीय सिनेमा में महिलाओं की छवि को नाजुक, घर-परिवार या फिर एक वस्तु की तरह दिखाने का चलन है। महिला सशक्तिकरण के नाम पर इंडस्ट्री नारीवाद का जो रूप दिखाती है उसमें महिला किरदार नफरती और बदला लेनेवाली होती हैं। सिनेमा के पर्दे पर नारीवादी को टॉक्सिक, परिवार तोड़नेवाली, मनमौजी, महिला संगठन बनानेवाली, महिलाओं के दिमाग में पति के ख़िलाफ़ नफरत और साजिश कर बदला लेनेवाली औरतों के रूप में दिखाया गया है। मेनस्ट्रीम में महिला केंद्रित फिल्मों में महिलाओं के किरदारों को लंबे समय तक पुरुषों से बदला लेने तक ही सीमित रखा। ऐसी फिल्मों के टाइटल भी प्रतिशोध को दिखाते हुए नज़र आते हैं। 

1980 से 2000 के दशक के बीच अर्थ, मासूम, मिर्च मसाला, मृत्युदंड और अस्तित्व जैसी फिल्मों में शक्तिशाली महिलाओं और नारीवाद को जटिल तरीके से दिखाती है। इससे अलग समानता के अधिकार की बात लेकर जो फिल्में रिलीज हुई है उनमें महिलाओं की छवि को बेधड़क, गुस्सैल, ओवररिएक्ट या मनमौजी जैसा दिखाने की कोशिश की गई है। फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’, ‘थप्पड़’, ‘क्वीन’, ‘अनारकली ऑफ आरा’, जैसी फिल्मों में महिला किरदारों को हक और समानता की बात करते दिखाया है।

इसमें जख्मी औरत (1988), खून भरी मांग (1991), फूल बने अंगारे (1991) जैसी फिल्मों में न केवल महिलाओं को बदला लेने वाली दिखाया गया है। वहीं, महिलाओं को पुरुषों की तरह ही शारीरिक ताकत, गुस्से की तरह भी चित्रित किया गया। फिल्मों ने सशक्त महिलाओं की पहचान के लिए किरदारों को केवल पितृसत्ता को कोसने या बदला लेने तक ही सीमित रखा है। साल 2014 में रिलीज हुई फिल्म ‘मर्दानी’ में भी महिला सशक्तिकरण को दिखाने के लिए न केवल पुरुष आधारित किरदार और हावभाव को दिखाया गया बल्कि फिल्म का टाइटल भी अपने आप में बहुत समस्याग्रस्त नज़र आता है। इस तरह से महिला स्वतंत्रता के लिए मेल गेज़ को ज्यादा बढ़ावा दिया गया।  

1980 से 2000 के दशक के बीच अर्थ, मासूम, मिर्च मसाला, मृत्युदंड और अस्तित्व जैसी फिल्में शक्तिशाली महिलाओं और नारीवाद को जटिल तरीके से दिखाती हैं। इससे अलग समानता के अधिकार की बात लेकर जो फिल्में रिलीज हुई हैं उनमें महिलाओं की छवि को बेधड़क, गुस्सैल, ओवररिएक्ट या मनमौजी जैसा दिखाने की कोशिश की गई है। फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’, ‘थप्पड़’, ‘क्वीन’, ‘अनारकली ऑफ आरा’, जैसी फिल्मों में महिला किरदारों को हक और समानता की बात करते दिखाया है। 2000 के दशक बाद ख़ासतौर पर ऐसा बदलाव आया है कि जिसमें महिलाओं के अनेक तरह के अनुभवों दर्ज करने का काम किया गया है। इसमें महिला किरदार पारिवारिक संबंधो से अलगाव, स्वतंत्रता, सेक्सिज़म और यौन हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ाई को दर्ज किया गया है।

मीडिया ने नारीवाद को लेकर लोगों में गलत धारणा को बनाने में मदद की है। नारीवाद को एक अजूबे की तरह पेश किया गया है। नारीवादियों को उग्र, गुस्सैल और समाज के ख़िलाफ़ दिखाकर उन्हें केवल इसी खांचे में सीमित करने की कोशिश की है। एक वजह यह भी है कि सार्वजनिक रूप से ख़ासतौर पर महिलाएं खुद को नारीवादी कहलाने से बचती दिखती हैं। साथ ही मीडिया ने नारीवाद को तंज या उपहास की तरह इस्तेमाल करने का चलन बनाया हुआ है।

नील बटे सन्नाटा (2015), क्वीन (2014, पीकू (2015), मारग्रेटा विद ए स्ट्रा ( 2014) जैसी फिल्मों में महिला की स्वायत्ता को भी दिखाया गया है। इससे अलग हाल के सालों के सिनेमा में एलजीबीटीक्यू समुदाय की कहानियों को भी दर्शकों के सामने रखा गया है। अलीगढ़, शुभ मंगल ज्यादा सावधान, बधाई दो, चंडीगढ़ करे आशिकी इसमें शामिल कुछ हाल के नाम हैं। हालांकि, इन विषयों का प्रतिनिधित्व तुलनात्मक रूप से बहुत कम है।

बॉलीवुड के कलाकार भी करते हैं नारीवाद से परहेज

सिनेमा के पर्दे तक ही नारीवाद को लेकर धारणाएं नकारात्मक नहीं हैं बल्कि उनके किरदार को निभानेवाले बॉलीवुड के कलाकार भी कई बार में पब्लिक स्पेस में नारीवाद की विचारधारा से खुद को अलग-थलग करते दिखे हैं। इस लिस्ट में कई बड़े नाम शामिल हैं। मिस मैगजीन में प्रकाशित लेख की जानकारी के अनुसार साल 2015 में परिणीति चोपड़ा, कैटरीना कैफ और माधुरी दीक्षित प्रेस के सामने यह कहती पाई गई की उन्हें नारीवादी घोषित नहीं किया जाना चाहिए। आलिया भट्ट, प्रियंका चोपड़ा, लीजा हेडेन जैसे ग्लोबल पहचान रखने वाली अभिनेत्री भी नारीवाद से किनारा करती नज़र आई हैं। 

धीरे-धीरे कुछ फिल्में ऐसी बन रही है जो नारीवादी विचारधारा को प्रदर्शित करती दिखती हैं। भले ही यह फिल्में विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की आवाज़ पर केंद्रित हो। कुछ चुनिंदा लोग व्यक्तिगत तौर भी सिनेमा जगत में नारीवाद से जुड़े मुद्दों पर मुखर होकर बात करते दिखते हैं। इसमें यौन उत्पीड़न, असमान वेतन, प्रतिनिधित्व और लैंगिक रूढ़िवाद के मुद्दों पर मुखर होकर बोलते दिखते हैं। अभी भी इस तरह के कलाकारों की संख्या कम है क्योंकि लैंगिक असमानता को खत्म करने की लड़ाई बहुत बड़ी है।  

साल 2014 में रिलीज हुई फिल्म मर्दानी में भी महिला सशक्तिकरण को दिखाने के लिए न केवल पुरुष आधारित किरदार और हावभाव को दिखाया गया बल्कि फिल्म का टाइटल भी अपने आप में बहुत समस्याग्रस्त नज़र आता है। इस तरह से महिला स्वतंत्रता के लिए मेलगेज को ज्यादा बढ़ावा दिया गया।  

मीडिया और सिनेमा सूचना के वे माध्यम है जो नारीवाद के पूर्वाग्रहों को जड़ से मिटाने का काम कर सकते हैं। इसके लिए मास मीडिया को नारीवादियों द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों को ध्यान देकर उन पर संवेदनशील होकर बात करनी चाहिए। नारीवाद, पुरुष विरोधी नहीं है बल्कि यह लैंगिक शोषण और उत्पीड़न को खत्म करने का एक आंदोलन है। आधुनिक समय में मास मीडिया साधनों को ज्यादा संवेदनशीलता से नारीवाद को प्रस्तुत करने की ओर प्रयास करने चाहिए जिससे समाज में असमानता और रूढ़िवाद को खत्म किया जा सके।


स्रोतः

  1. Wikipedia
  2. Missmagazine.com

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