स्वास्थ्यमानसिक स्वास्थ्य दड़बे की घुटन से निकलतीं निम्न मध्यम वर्गीय कामकाजी औरतें

दड़बे की घुटन से निकलतीं निम्न मध्यम वर्गीय कामकाजी औरतें

घरों से बाहर निकलकर छोटे-छोटे कामों में लगी महिलाएं, कॉलेज में पढ़ रही या उच्च शिक्षा ले रही लड़कियां अक्सर कई तरह के दबाव से ग्रस्त होती हैं जिसका रूप आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक होता है। इस कारण से वे अक्सर तनाव और डिप्रेशन से घिर जाती हैं।

भले ही कोविड-19 महामारी ने दुनियाभर में तत्काल मानसिक स्थिति को उजागर करने में मदद की हो पर भारत में महिलाओं के संबंध में यह विषय आज भी गौण और उपेक्षित है। ख़ासकर की उन महिलाओं के संबंध में जो घरेलू कामकाज में लगी रहती हैं जिनके संघर्ष उन पुरुषों से अधिक और अलग होते हैं जो रोज़ाना घर से बाहर काम करने निकलते हैं। घरेलू कामों में लगी गृहिणियों की रोज़ाना व्यथा से उपजी मनोस्थिति को एक सही समझ, संवेदनशीलता और साथ की ज़रूरत होती है। एक सही समझ, संवेदनशीलता और साथ जैसे प्राथमिक क़दमों का अभाव महिलाओं को डॉक्टरी सहायता से और दूर कर देता है।

घरों से बाहर निकलकर छोटे-छोटे कामों में लगी महिलाएं, कॉलेज में पढ़ रही या उच्च शिक्षा ले रही लड़कियां अक्सर कई तरह के दबाव से ग्रस्त होती हैं जिसका रूप आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक होता है। इस कारण से वे अक्सर तनाव और डिप्रेशन से घिर जाती हैं। अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई मंच और अध्ययन के ज़रिये डिप्रेशन के प्रति जागरूकता और प्रतिक्रिया की वकालत की जाती है लेकिन भारत जैसे देश में ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही है जिसे हमने इस लेख में कुछ अनुभवों के ज़रिये साझा किया है। इन अनुभवों में ये औरतें एक ही समय पर पितृसत्ता और डिप्रेशन दोनों का सामना करती हैं। इस लेख में हमने तीन अलग-अलग निम्न मध्यवर्गीय औरतों से बात की है जहां उन्होंने डिप्रेशन से निकलने की अपनी कहानी हमारे साथ बांटी है।

मां न बन पाने के ताने से दूर ज़िंदगी तलाशती लता

दिल्ली के शाहदरा में तीन साल पहले ब्याही गई लता (29) का जीवन परिवार की उम्मीदें और खुद की उम्मीदों के बीचों-बीच झूल रहा था। लता के पति नीरज एक प्रिंटिंग प्रेस में मशीनों पर काम करते हैं जहां उनके लिए किताबों की कटिंग मशीनों में हाथ आ जाने से गहरी चोंटें खाना सामान्य सी बात है। लता विकलांग बच्चों को पढ़ाने वाले एक एनजीओ में काम करती हैं। पैसे कुछ खास नहीं मिलते पर इस जॉब से वह अपने खर्चे निकाल लेती हैं। वह शादी के दो साल बाद ही सास-ससुर से अलग हो गई थी। सास-ससुर से अलग होने जैसे किस्से को सुनकर अक्सर लोग इसे लड़की की कमी बताते हैं या ये कहते दिखते हैं कि बहु ही तेज़ होगी! पर इस केस में लता और नीरज दोनों ने ही माता-पिता से अलग होने की ठानी थी। 

घरेलू कामों में लगी गृहिणियों की रोज़ाना व्यथा से उपजी मनोस्थिति को एक सही समझ, संवेदनशीलता और साथ की ज़रूरत होती है। एक सही समझ, संवेदनशीलता और साथ जैसे प्राथमिक क़दमों का अभाव महिलाओं को डॉक्टरी सहायता से और दूर कर देता है।

तब लता कोई जॉब नहीं करती थीं। शादी के एक साल बाद कुछ शारीरिक दिक्कतों की वजह से लता को पता चला कि वह माँ नहीं बन सकती हैं।  इसके लिए वह कई सारे टेस्ट से गुज़र चुकी थीं। इस बात को लेकर आए दिन घर में विवाद होते थे। सास और ननद की गालियां खाकर वह तंग आ रही थीं। “बांझ, कोख सुनी रह गई, जिनके बच्चे नहीं होते वह औरत नहीं कहलाती,” जैसे ताने अपने माँ न बन पाने के गम से ज़्यादा चुभते थे। वह चुप-चुप और उदास रहने लगी थीं। दिनभर यह सब सोचते रहने की वजह से वह लगभग हर दिन थकावट और कमजोरी महसूस कर रही थी। रात में घर के काम से फुर्सत मिलने के बाद लता गहरी चुभनभरी सिसकियां भरा करती और यही दुआ मांगा करती कि उसकी गोद भर जाए।

नीरज दोनों तरफ से पिस रहा था। रोज़ की यह लड़ाई और लता का दिन पर दिन अवसादग्रस्त होना उससे नहीं देखा जा रहा था। दोनों ने सहमति से अपने माता-पिता से अलग होना तय किया। दोनों वहीं ऊपर के एक कमरे के सेट वाले दूसरे फ्लोर पर रहने लगे। लता का माँ न बन पाना उसके हाथ में नहीं था। यह बात नीरज भी जानता था। लता और नीरज का माता-पिता से अलग हो जाने का पारिवारिक रूप से एक प्रभाव यह पड़ा की रिश्तेदार और सगे-संबंधियों ने उनसे बातचीत करनी एकदम कम कर दी।

हर दिन भीतर मन को कचोटने वाले तानों से दूर रहकर अब लता के लिए ज़रूरी था मानसिक तौर से रिकवर करना जिसको केवल लता ने ही सीधे तौर पर झेला था। डॉक्टर की सलाह पर नीरज लता को मनोचिकित्सक के पास ले गया। वहां कुछ समय के इलाज के बाद लता रिकवर हो रही थी और साथ में नीरज भी। लता का माँ न बन पाना और दोनों का अपने माता-पिता से अलग हो जाने जैसे कदम ने उन्हें सामाजिक अलगाव का सामना कराया। इस खुली हवा में लता ने अपने साहस के बल पर घर की चार दीवारी से निकलने का फैसला किया। इस फैसले में नीरज भी उसके साथ खड़ा हुआ। 

लता ने साइबर कैफ़े से अपनी पर्सनल और पढ़ाई-लिखाई की डिटेल के साथ एक रिज्यूमे तैयार करवाया। वह कई कंपनी में जाकर इंटरव्यू दिया करती। घर के पास ही उसने बाहरवीं की योग्यता के आधार पर विकलांग बच्चों को पढ़ाने वाले एक एनजीओ  में बच्चों को संभालने की जॉब ले ली। लता के लिए अब उसका माँ ना बन पाने का गम बहुत छोटा आकर लेने लगा था। उसे अंदर से सिकोड़ने वाली यह घुटन उसका शरीर छोड़ने लगी थी।  एनजीओ में उसी की हमउम्र की लड़कियां भी काम करती थीं जिसके साथ वह अब हंसा करती है और गपशप किया करती जो छूट उसे ससुराल में पितृसत्ता की भीड़ से भरा माहौल नहीं देता था।

मेकअप में आज़ादी खोजती निशा

रोज़ाना की तरह दिल्ली की निशा (24, बदला हुआ नाम) एक ब्यूटी कॉस्मेटिक्स की दुकान पर काम करने के लिए सुबह निकल जाती है। वह हमेशा की तरह थोड़ा तैयार होकर तो घर से निकलती है लेकिन दुकान पहुंचकर गहरा मेकअप भी लगा लेती है ताकि दुकान पर आनेवाली महिला ख़रीदार को वह आकर्षक लग सके। महिला ख़रीदार अक्सर चेहरे पर मेकअप देख और भी उत्साहित हो जाती हैं। कई बार कुछ ब्रांड के प्रोडक्ट की सही सेल न हो पाने पर उसे अक्सर दुकान के मालकि का दबाव भी झेलना पड़ता है। निशा हर रोज़ ब्यूटी कास्मेटिक बेचने के अलावा कुछ नया तो नहीं करती पर हर दिन नया दिखने और नया मेकअप ट्राई करने के लिए हमेशा उत्साहित रहती है। वह सुंदरता के मायने नहीं गढ़ती न ही पित्तृसत्ता की तरह सुंदरता को एक अनिवार्य गुण मानती है बल्कि वो सजने-संवरने और अलग-अलग मेकअप ट्राई करने में आज़ाद महसूस करती है।

टूटी-फूटी अंग्रेज़ी और कॉफी के ऑर्डर ने वृंदा को कैसे डिप्रेशन से निकाला

दिल्ली की वृंदा (25) जिसके परिवार में छह सदस्यों में केवल पिता ही एक इकलौते कमाने वाले सदस्य थे।  ऐसी स्थिति में भी वृंदा ने अपने मन मर्ज़ी से जीना नहीं छोड़ा। घर के आर्थिक हालात भी काफी कमज़ोर थे। उच्च शिक्षा अपनी मातृभाषा हिंदी में हासिल करने के कारण अंग्रेज़ी में बातचीत करना उसके लिए कभी आसान नहीं था, इससे वह अक्सर भागती थी। इसी बीच कई बार उसे मानसिक पीड़ा देनेवाले कुछ ख़्याल आने पर एंग्जायटी होती थी जिसका ज़िक्र उसने अपने परिवारवालों से कभी नहीं किया। इस दौरान वह अपनी एक दोस्त की सहायता से एक सरकारी अस्पताल के मनोविशेषज्ञ के पास जाकर इलाज और काउंसलिंग लिया करती थी। कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर महीने में मिलनेवाली फ़ीस से दवाइयों का ख़र्चा भी निकाल जाया करता था।

कुत्तों को खाना खिलाती वृंदा

डिप्रेशन, घर की ख़राब माली हालत और दो भाषाओँ की जद्दोज़हद के बीच अपने डर से आज़ाद होने के लिए वृंदा हर महीने अपनी पॉकेट मनी से कुछ पैसे जोड़कर महीने की शुरुआत में खुद को ट्रीट देने के लिए कैफ़े में कॉफ़ी पीने जाने लगी। वह आत्मविश्वास से भर जाती थी जब वह काउंटर पर कॉफी ऑर्डर करते हुए कमज़ोर और टूटी-फूटी इंग्लिश में अपना ऑर्डर दिया करती। उसे समाज की दूसरी दुनिया को समझने और वहां की भीड़ को गौर से देखना सबसे अच्छा लगता था। उसने इस सफर को अपने संघर्ष भरे परिवेश से अधिक स्वतंत्र पाया। वृंदा का कहना है अगर वह खुद के प्रति संवेदनशीलता नहीं बरतती तो अपने डिप्रेशन से कभी नहीं निकाल पाती। इस तरह समाज में निम्न मध्यवर्गीय महिलाएं अपनी भीतर की घुटन को हवा देने के लिए अपना-अपना रास्ता इख़्तयार करती हैं। 


Comments:

  1. Sadhvi Prakash says:

    ❤️❤️

  2. Kannady says:

    ❤️❤️written very beautifully 👏

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