इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं के क़ानूनी अधिकारों को लागू करने के लिए कितना तैयार है अपना समाज? 

महिलाओं के क़ानूनी अधिकारों को लागू करने के लिए कितना तैयार है अपना समाज? 

आज भी इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था का क़ायम रहना, महिलाओं की मेहनत को सम्मानित भी न करना, कभी भी आज़ाद देश की महिलाओं के लिए आज़ादी का मतलब नहीं है।

साल 1950 में लागू हुए भारतीय संविधान को 73 साल पूरे हो चुके हैं जो देश में आज़ादी के अमृत महोत्सव का अहम हिस्सा भी है। इनके बीच में जब बात देश के आज़ाद और संविधान होने के अमृत महोत्सव की आती है तो औरतों की बात बेहद ज़रूरी हो जाती है। विकास और अमृत महोत्सव के दौर में हम महिलाओं के संदर्भ में अक्सर ये बातें सुनते हैं, “अब तो अपने समाज में महिलाएं आज़ाद हो चुकी हैं। वे जो चाहे कर सकती हैं और जहां चाहे जा सकती हैं।” कोई भी आयोजन हो, भाषण हो या विचार मंथन हो, अक्सर महिलाओं की आज़ादी को लेकर ये बात कही जाती है और अपनी बात को मज़बूत बनाने के लिए बहुत सारी रिपोर्ट और आंकड़े भी दिखाए जाते हैं। जैसे – महिलाओं का बढ़ता साक्षरता और रोज़गार का स्तर। लेकिन क्या सच में यह आंकड़े यह बता देते हैं कि अब हमारे समाज में महिलाएं आज़ाद हो चुकी हैं? क्या वाक़ई में संविधान को औरतों के हक़ में पूरी तरह लागू कर सरोकार से जोड़ा जा सका है तो ज़वाब आता है- नहीं।

बीते साल 2022 में राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) को महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध की लगभग 31,000 शिकायतें मिलीं, जो साल 2014 के बाद सबसे अधिक हैं। साल 2021 में NCW को 30,864 शिकायतें मिली थीं जबकि 2022 में यह संख्या थोड़ी बढ़कर 30,957 हो गई। इन बढ़ते आंकड़ों के बीच जब हम महिलाओं के क़ानूनी अधिकारो की बात करते हैं तो ये हमें कई बार निराश करते हैं। फिर बात शिक्षा, रोज़गार या अवसर की हो तो वहां भी महिलाओं की भागीदारी सीमित नज़र आती है।

राजनीतिक, आर्थिक और आंकड़ों के बीच जब हम महिलाओं के क़ानूनी हक़ या उन्हें देश का नागरिक मानने के लिए समाज की संरचना पर बात करते हैं तो अपना समाज आज भी महिलाओं के मौलिक अधिकारों को भी सरोकार से जुड़ने के लिए कोई स्पेस देने को तैयार दिखाई नहीं पड़ता है। आज अपने लेख में हम बात करते हैं उन सामाजिक व्यवस्थाओं के बारे में जो आज भी महिलाओं की ज़िंदगी में क़ानूनी अधिकारों को लागू करने में रोड़ा बनती हैं।

शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के लिए ज़ारी संघर्ष

“लड़की पढ़कर क्या करेगी? इसको करना तो चूल्हा-चौका ही है।”

“औरत है थोड़ा शरीर में तो दिक़्क़त रहती है, इतना हो सहना ही पड़ेगा।”

“अधिकार सिर्फ़ पुरुषों के होते है, महिलाएँ उनकी बराबरी नहीं कर सकती”

ऐसे कई बातों के साथ आज भी गाँव में हम लड़कियों की परवरिश होती है, जहां महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों से इसी आधार पर समझौता किया जाता है कि वह महिला है। इसलिए पढ़ना, स्वास्थ्य सेवाएं लेना या फिर मौलिक अधिकारों के साथ ज़िंदगी जीने का उनका हक़ नहीं है। इस दृश्य को हम ग्रामीण क्षेत्र के आर्थिक और जातिगत रूप से कमजोर परिवारों में आसानी से देख सकते है, जहां घर में किसी भी तरह की समस्या आने पर सबसे पहली कटौती लड़की की शिक्षा की होती है।

अगर घर की महिला को किसी भी तरह की शारीरिक दिक़्क़त होती है तो उसे नज़रंदाज़ किया जाता है, जिसके चलते अधिकतर केस में महिलाएं जब अस्पताल पहुंचती हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है। यही स्थिति हम महिलाओं के प्रसव के संदर्भ में देख सकते हैं, जहां महिलाओं का प्रसव आज भी घर में किया जाता है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जिसके माध्यम से हम देख सकते हैं कि आज भी समुदायस्तर पर महिलाओं को अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मौलिक अधिकारों को संघर्ष करना पड़ता है।

महिलाओं की आमदनी पर आज भी पुरुषों का क़ब्ज़ा है

जब भी पुरुष काम से घर आता है तो उसका एक सवाल हमेशा अपने घर की औरतों से होता है कि ‘तुम दिनभर क्या करती हो घर में?’ इस वक्त पर वह यह भूल जाता है या उसे कभी याद भी नहीं रहा होगा कि वह जो पैसे कमाता है उस पैसे को घर-परिवार का रूप देने और उनकी आजीविका चलाने का काम अकेले महिला करती है। दिनभर घर के सारे काम के बाद भी अक्सर यह सवाल महिलाओं से किया जाता है कि वह घर में क्या करती है? ऐसा इसलिए क्योंकि उसे इन कामों के पैसे नहीं मिलते हैं और जब भी पैसे की बात करो तो ये कहा जाता है कि ‘ये तो महिला की ज़िम्मेदारी है और अपने घर में कैसे पैसे भला?’ अपने घर में इन कामों का सम्मान नहीं मिलता है।

कहने का मतलब यह है कि हर वह जगह और हर वह काम जहां पैसे मिलते है वहां हमेशा पुरुष अपनी पैठ आज भी जमाए हुए हैं। ये कहीं न कहीं पितृसत्ता के जेंडर का ही नियम है जो यह कहता है कि महिला का काम घर संभालना और पुरुष का काम पैसे कमाना है। आज भी इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था का क़ायम रहना, महिलाओं की मेहनत को सम्मानित भी न करना, कभी भी आज़ाद देश की महिलाओं के लिए आज़ादी का मतलब नहीं है।

शादी, बच्चा और परिवार ही है महिलाओं कि पहचान

“हर औरत की ज़िंदगी में शादी बहुत ज़रूरी है” यह बात हमेशा महिलाओं को बचपन से घुट्टी की तरह पिलाई जाती है। लड़की पराया धन होती है और उसे एकदिन दूसरे घर जाना है, इसलिए उसे पढ़ाई-लिखाई की उम्र से ही चूल्हे-चौके का काम सिखाया जाता है। लेकिन ऐसे में उन लड़कियों का क्या जो शादी नहीं करना चाहती है? या अपनी पसंद से शादी से करना चाहती है? ज़वाब हम सब जानते है – इजाज़त नहीं है। अब अगर शादी हो भी गयी तो शादी का परिणाम बच्चा होना चाहिए, बच्चा हुआ तो उसमें में बेटा होना ज़रूरी है और फिर जब तक बेटा न हो तब तक बच्चे पैदा करते जाओ।

फिर बात महिला की सहमति की तो ज़वाब हम जानते हैं कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। भले ही कहने को हम आज आधुनिक आज़ाद देश में रहते है, पर यहां आज भी महिलाओं को वैध सिर्फ़ उनके वैवाहिक और पारिवारिक स्टेट्स से ही माना जाता है। अगर महिला की शादी हुई तो वह अच्छी कहलाती है, नहीं हुई है तो उसे बेचारी माना जाता है और अगर उसने खुद शादी न करने का फ़ैसला किया तो वो बुरी कही जाती है। यही वजह है कि मीडिया में अगर हम देखें तो किसी महिला खिलाड़ी के खेल के प्रदर्शन से ज़्यादा उसके शादी और माँ बनने की खबरें ज़्यादा चलाई जाती हैं।

यौनिकता, गतिशीलता पर आज भी भारी सुरक्षा और इज़्ज़त की बात

महिला क्या पहनेगी, क्या खाएगी, क्या पिएगी, कहां रहेगी, कहां जाएगी, कब जाएगी। इन सभी सवालों पर समाज का शिकंजा हमेशा कसा होता है। मुझे याद है कि एक बार किशोरियों के साथ बैठक के दौरान जेंडर आधारित भेदभाव पर एक लड़की ने कहा, “मेरे घर में कोई भी भेदभाव नहीं होता है, मेरे घर में मेरे और भाई में बराबरी का व्यवहार किया जाता है और इसीलिए मेरे पापा ने मुझे स्कूटी दिलाई है।” लड़की की इस बात पर मैंने सवाल किया कि ये तो बहुत अच्छी बात है तो चलो आज तुम हमें घर अपनी स्कूटी से छोड़ने चलो। उसने तुरंत कहा कि घरवाले नहीं जाने देंगें। ज़वाब और सच्चाई सामने थी।

हमलोगों के साथ भी अक्सर ऐसा होता है, भले ही आज महिलाओं को पढ़ने, कहीं आने-जाने और अपनी ज़िंदगी जीने की नाम वाली आज़ादी तो दी जाती है पर उन सभी पर कंट्रोल पुरुषों के हाथ में ही होता है। हमारी स्कूटी कब घर से निकलेगी, कहां के लिए निकलेगी, कितने बजे निकलेगी और किस रास्ते जाएगी, ये सारे फ़ैसले पुरुषों के हाथ में होते हैं। इसके लिए हमेशा हवाला इज़्ज़त और सुरक्षा का दिया जाता है। ये दोनों ही पितृसत्तात्मक हथियार हैं जो चालाकी से महिलाओं की गतिशीलता और यौनिकता पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।

ये सभी वे सामाजिक ढांचे हैं जो कहीं भी महिलाओं को नागरिक होने का हक़ नहीं देते हैं। अब ज़ाहिर है जब हमारा समाज महिलाओं को नागरिक से पहले बेटी, बहु, पत्नी जैसे रिश्तों से पहचान करेगा तो सारे नियम भी उसी के अनुसार बनाएगा, जिसकी वजह से महिलाओं को कभी भी वो अधिकार नहीं मिल पाते हैं जो उन्हें देश में एक नागरिक का जीवन दिला सकें। इसलिए जब भी एक तरफ़ हम क़ानूनी अधिकारों की बात करते हैं और दूसरी तरफ़ बढ़ती हिंसा और अधिकार हनन के आंकड़े देखते हैं तो इसके साथ ही हमें अपने समाज की पितृसत्तात्मक संरचना पर भी चर्चा करनी चाहिए, जो सालों पहले बने भारतीय संविधान को आज भी लागू होने में रोड़ा बनती है।


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