बारहवीं के बाद जिनके लिए मुमकिन हो पाता है, कॉलेज में दाखिला लेते हैं। समय-समय पर इन कॉलेजों में नाटक, गायन, मेले आदि कार्यक्रम होते रहते हैं। ऐसा ही एक छोटा सा ‘हंसी मज़ाक’ का जातिवादी नाटक कर्नाटक के बेंगलुरु शहर की जैन यूनिवर्सिटी में हुआ। 8 फरवरी 2023 को यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर मैनेजमेंट स्टडीज के ‘डेलरॉय बॉयज’ नामक थियेटर समूह द्वारा कॉलेज के यूथ फेस्टिवल में एक नाटक परफॉर्म किया गया। इस नाटक का एक अंश सोशल मीडिया पर दिखने के बाद से कहा जा सकता है कि जातिवादी सोच और व्यवहार हमारे शिक्षण संस्थानों में कितना सामान्य माना जाता है।
क्या है यह पूरा मामला
‘मज़ाक से भरपूर’ इस जातिवादी नाटक का वीडियो इंस्टाग्राम पर कॉलेज के विद्यार्थियों द्वारा डाला गया। इसके बाद वह वायरल हो गया और सामने आया कि दरअसल यह मज़ाकिया नाटक दलितों के संघर्ष, बाबा साहब आंबेडकर के जीवन संघर्ष को मज़ाक के रूप में पेश कर रहा है। नाटक में ऐसी टिप्पणियां की जा रही हैं जो सरासर जातिवादी हैं।
द हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार वीडियो वायरल होने के बाद बीती 9 फरवरी को नांदेड़, महाराष्ट्र में युवा वंचित बहुजन अघाड़ी के सदस्य अक्षय बांसोडे ने एसपी नांदेड़ के यहां एक औपचारिक एफआईआर छात्रों और यूनिवर्सिटी के खिलाफ़ दर्ज़ करवाई। वहीं, बेंगलुरु के जयनगर में सिद्दापुर पुलिस थाने में भी एससी-एसटी एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज़ हुई जिस पर प्रशासन ने अब तक कोई जवाब नहीं दिया। नाटक के ख़िलाफ़ कॉलेज के ही छात्रों ने ऑनलाइन एक पिटीशन शुरू की। पिटीशन में कहा गया है कि “यह अस्वीकार्य है कि प्रदर्शन के लिए स्क्रिप्ट मंच पर अधिनियमित होने से पहले अप्रूवल के कई दौरों से गुज़री है। वही असंवेदनशील स्क्रिप्ट 5 फरवरी को एक दूसरे कॉलेज फेस्ट में उसी ग्रूप ने लिखी थी।”
विरोध को देखते हुए प्रशासन ने इन छात्रों को 11 फरवरी को कॉलेज से निष्कासित किया गया। यूनिवर्सिटी द्वारा यूजीसी गाइडलाइंस के तहत एक्सपर्ट्स की एक डिसिप्लिनरी कमेटी घटना की जांच के लिए बनाई गई है। उसी दिन बेंगलुरु साउथ के सोशल वेलफेयर डेवलपमेंट के असिस्टेंट डायरेक्टर मधु सुदन के. एन. ने सिद्दापुर पुलिस स्टेशन में प्रिंसिपल, कार्यक्रम आयोजक और छात्रों के खिलाफ़ एससी-एसटी ऐक्ट और अन्य आईपीसी धाराओं के अंतर्गत एफआईआर दर्ज करवाई। इसके बाद 13 फरवरी को 9 लोगों की गिरफ़्तारी हुई जिसमें सात छात्र, प्रिंसिपल और कार्यक्रम आयोजक शामिल हैं।
मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने के बाद इन नौ लोगों को तीन दिन की पुलिस रिमांड पर भेज दिया गया है। आरोपियों का पुलिस से कहना है कि उनका न तो किसी भी तरह से आंबेडकर का अपमान करने का इरादा था और न ही उन्हें पता था कि यह नाटक उन्हें मुसीबत में डाल देगा। 14 फरवरी को कर्नाटक राज्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग ने विश्वविद्यालय से घटना पर विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। बेंगलुरु यूनिवर्सिटी पोस्टग्रेजुएट एंड रिसर्च स्टूडेंट्स यूनियन ने अपमानजनक स्क्रिप्ट करने की अनुमति देने के लिए जैन यूनिवर्सिटी के खिलाफ मंगलवार को बंद का आह्वान किया था। वहीं, कॉलेज के अधिकारियों ने दावा किया कि नाटक वास्तव में भारत में आरक्षण और जाति व्यवस्था की ‘समग्र तस्वीर’ दिखा रहा था। प्रशासन ने यह भी कहा है कि इस स्क्रिप्ट को अलग-अलग कार्यक्रम में परफॉर्म किया जा चुका है। 8 फरवरी को इस स्क्रिप्ट का यह तीसरा शो था।
जातिवादी स्क्रिप्ट की मंजूरी संस्थान की जातिवादी सोच दिखाती है
यह ज़ाहिर है कि नाटक परफॉर्म किए जाने से से पहले प्रशासन के अलग-अलग व्यक्तियों से होकर ही गुज़रा होगा। क्या किसी के भी दिमाग में यह बात नहीं आई कि स्क्रिप्ट जातिवादी है? यह स्क्रिप्ट बाबा साहब और दलितों के संघर्ष को अपमानित कर रही है? नाटक देखकर कहा जा सकता है कि यह बात ज़रूर हर व्यक्ति के दिमाग में रही होगी। यहां तक कि जो विद्यार्थियों इस नाटक में शामिल थे उन्हें भी बखूबी पता होगा कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन वे इस नाटक को परफॉर्म करते हुए हिचकिचाए नहीं बल्कि 8 फरवरी को यह तीसरी परफॉर्मेंस थी। नाटक और उसके डायलॉग बताते हैं कि इस जातिवादी समाज को आरक्षण कितना खटकता है। इसीलिए उसका मज़ाक बनाना और बीआर आंबेडकर को ‘बीयर आंबेडकर ‘कहना उनके कृत्रिम बेबुनियाद ‘जनरल होने के दुख’ को शांति पहुंचा रहा था।
यह दलितों के ख़िलाफ़, बाबा साहब के ख़िलाफ़ जातिवादी सोच ज़ाहिर करता पहला केस नहीं था। साल 2021 में आईआईटी खड़गपुर घटित घटना की सीमा सिंह हो या राजस्थान के इंद्र मेघवाल का केस हर साल ऐसे ‘बड़े’ केस से हम परिचित होते ही रहते हैं। जो सोशल मीडिया, लोगों की निगाह में चढ़ जाएं वही केस बड़े हो जाते हैं जबकि हर संस्थान में ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा है जब जाति के नाम पर दलितों को उत्पीड़ित नहीं किया जा रहा है। यह जातिवाद का क्रूर सामान्यीकरण ही है जिसके कारण बीते रविवार आईआईटी बॉम्बे में फर्स्ट ईयर के छात्र की आत्महत्या से मौत हो गई थी। अब तक की जांच में कैंपस में जातिगत भेदभाव की बात सामने आई है।
उच्च शिक्षण संस्थान कैसे जातिवाद को सामान्य कर रहे हैं
अक्टूबर 2021 में फोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ वीमेन, फोरम फॉर मेडिकल एथिक्स सोसाइटी, मेडिको फ्रेंड सर्कल और पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज, महाराष्ट्र द्वारा ‘द स्टेडी ड्रमबीट ऑफ इंस्टीट्यूशनल कास्टिज्म‘ नाम से एक रिपोर्ट सामने आई। इस रिपोर्ट का केंद्र था कि कैसे अलग-अलग तरीकों से भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिवाद किया जा रहा है इसे बढ़ावा भी दिया जा रहा है। इन तरीकों में जातिसूचक गालियां, शारीरिक प्रताड़ना, आरक्षण पर तीखे शब्द, मानसिक प्रताड़ना आदि शामिल हैं।
शिक्षण संस्थानों का प्रशासन इन घटनाओं पर ध्यान नहीं देता जैसे जैन यूनिवर्सिटी के इस केस में नहीं दिया। इससे आरोपियों को यही लगता है कि कि जातिवाद सामान्य है, ऐसा करना उनका हक है। हर मामले जातिवादी सोच को महज़ छात्रों की सोच कहना गलत है, यह छात्रों के साथ-साथ पूरे प्रशासन, संस्थान की सोच होती है जो अपने ही छात्रों में भेदभाव करती है।
यूजीसी गाइडलाइंस के मुताबिक हर उच्च शिक्षण संस्थान में ग्रीवेंस रिड्रेसल मैकेनिज़्म होना चाहिए जो एससी, एसटी विद्यार्थियों की शिकायतों पर काम करे। लेकिन सबरंग इंडिया में छपी एक रिपोर्ट कुछ और ही हकीकत बयां करती है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी), बिट्स पिलानी और क्राइस्ट यूनिवर्सिटी के एक सर्वे के मुताबित कई विश्वविद्यालयों ने अभी तक यूजीसी की जाति-आधारित भेदभाव को दूर करने के लिए की गई सिफारिशों को लागू नहीं किया है।
सर्वेक्षण किए गए 132 संस्थानों में से एक तिहाई (42) से कम के पास ऐसी कोई जानकारी थी जो विद्यार्थियों या शिक्षकों को समान अवसर प्रकोष्ठ (ईओसी) या एससी-एसटी प्रकोष्ठ तक पहुंचने या शिकायत दर्ज करने में सक्षम बना सके। 15 संस्थानों में से केवल 4 (‘उत्कृष्ट संस्थान’ के रूप में माना जाता है), 13 IIT में से 4 (जो 2008 से पहले स्थापित किए गए थे), और 6 पहली पीढ़ी के IIM में से किसी के पास भी यह जानकारी नहीं थी।
शिक्षण संस्थानों में हो रही इन घटनाओं का नतीजा क्या है?
जैन यूनिवर्सिटी की घटना हो, पायल तडवी हो या रोहित वेमुला की। इन सभी घटनाओं के दोषी कुछ महीनों बाद छूट जाते हैं, आख़िर ये विशेषाधिकार प्राप्त लोग हैं। लेकिन वे दलित विद्यार्थी क्या करें जो ऐसे व्यवहारों से तंग आकर पढ़ाई छोड़ देते हैं या शिक्षण संस्थानों में ही उनकी ‘सांस्थानिक हत्या’ कर दी जाती है। उच्च शिक्षण संस्थानों के दरवाज़े दलितों के लिए संविधान, बाबा साहब के संघर्षों के बूते खुले लेकिन ये संस्थान संविधान में बूते नहीं चल रहे बल्कि जाति वर्चस्व के बूते चल रहे हैं। हर साल ऐसी घटनाएं घटती हैं लेकिन अंत में हर बार सवाल यही बचते हैं कि आरोपी द्वारा माफ़ी मांग लेने के बाद क्या बदला? क्या सोच बदल जाएगी? क्या ऐसी घटनाएं फिर नहीं घटेंगी? क्या दलितों को उच्च शिक्षण संस्थानों में सुरक्षित वातावरण मिल जाएगा?