फिल्में लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का सबसे रोचक और सहज माध्यम लगती हैं। फ़िल्म कहानी, घटना मनोरंजन, कला और रोमांच के साथ अपनी बात समाज में लोगों तक ले जाती हैं। कला फ़िल्म और कमर्शियल फिल्मों के बीच भी कई ऐसी फिल्में बनी जो बहुत लोकप्रिय और सत्य को बहुत ठोस तरीके से लोगों तक ले जाती रहीं। फिल्म ‘परियेरूम पेरुमल’ एक ऐसी ही फ़िल्म है। फ़िल्म के सारे चरित्र एक सामाजिक यथार्थ का प्रतीक बनकर चलते हैं।
यह फ़िल्म देखते हुए रह-रहकर रोहित वेमुला और आंबेडकर याद आते रहे। विविधताओं से बने एक देश में उसकी विविधता में अद्भुत सुंदरता होती है लेकिन जाति, धर्म के नाम पर जितनी ज्यादा घृणा हमारे समाज में व्याप्त है उसने समाज को भयावह बनाया है। आखिर जाति के नाम पर कितनी घृणा की जा सकती है, कितनी जान ली जा सकती है। मनुष्य कितना क्रूर बन सकता है और कितना निरीह और अकेला पड़ जाता है। वह मनुष्य जो इन घृणाओं को झेलता है, इनसे लड़ता रहता है यह बताती है ‘परियेरुम पेरुमल।’
फिल्म की कहानी तमिलनाडु के एक दलित लड़के की है। फ़िल्म की शुरुआत काली स्क्रीन होती है। यह काला दृष्य इस जाति के बने समाज का अंधेरा है मनुष्य से मनुष्य को बद्तर समझने की घृणित सोच का अंधेरा। एक दृश्य में दिखाया जाता है कि परियन के काले कुत्ते की क्षत-विक्षत लाश रेलवे लाइन पर पड़ी हुई है और उसके किनारे परियन ज़ार-ज़ार रो रहा है। कहानी पीछे जाती है और फिर दिखाया जाता है कि परियन अपनी जाति के कुछ लड़कों और कुत्तों के साथ एक छोटे से तालाब में जिसका पानी मटमैला है उतरकर मस्ती कर रहा होता है और तभी उसका कुत्ता भी आ जाता है। तभी तथाकथित उच्च जाति के कुछ लड़के आते हैं तथाकथित उच्च जाति के लोगों को देखकर वे लोग तालाब छोडकर चल देते हैं।
बहुत दूर निकल आने पर परियन को पता चलता है कि उसका कुत्ता तो साथ है ही नहीं। वह दौड़कर वापस लौटता है। उसके सामने जो दृश्य होता है वह उसे बेतहाशा अपने कुत्ते की ओर भागता है। उसका कुत्ता रेलवे लाइन से बंधा हुआ है और पटरी पर ट्रेन बहुत तेज़ गति से चली आ रही है। उसके पहुंचने से पहले ट्रेन कुत्ते को रौंदकर चली जाती है। अपने प्यारे कुत्ते के जाने को वह देखता रह जाता है। परियन और उसके साथी जानते हैं कि यह काम उन्हीं लोगों ने किया जो उस तालाब पर बाद में आए थे। वे लोग उन लोगों की घृणा और द्वेष को जानते हैं। वे जानते हैं कि हाशिये की जाति के लोगों को तालाब पर आने और उसमें अपने कुत्तों को नहलाने से रोकने के लिए उन्होंने परियन के कुत्ते की हत्या कर दी है।
यह फ़िल्म जातिगत घृणा में गले तक डूबे समाज के चेहरे को उघाड़ती ही नहीं उसके कितने विभत्स रूप हैं उन सतहों को भी दिखाती है।
जिस समाज में न्याय जाति और ताकत का मुंह जोहता है वह कभी समावेशी नहीं हो सकता। आगे चलकर एक दृश्य में फिल्म की नायिका को परियन बताता है कि वह वकील क्यों बनना चाहता है। उसकी पीड़ा इस देश के कितनों की पीड़ा है। संविधान में अधिकार और योग्यता होते हुए भी सरकारी संस्थाओं में काम करे रहे लोग अपनी जातिवादी मानसिकता के कारण अन्याय और भेदभाव करते हैं। वह याद करते हुए बताता है कि एकबार गाँव में वह थाने में अपनी जाति के दो और लोगों के साथ कोने में बैठा हुआ था जब उसके एक बुजुर्ग आकर दारोगा से उनके बारे में कुछ जानना चाहते हैं कि आखिर उनके लड़कों ने क्या अपराध किया है तो दारोगा उन्हें जाति सूचक गालियां देते हुए थप्पड़ मारता है। बाद में बुजु़र्ग परियन से पढ़-लिखकर वकील बनने के लिए कहता है। उसे लगता है वकील बनकर वह अपनी जाति के लोगों को न्याय दिलाएगा। जिस तरह आंबेडकर ने वकील बनकर अपने लोगों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। परियन इसी निश्चय के साथ गाँव से शहर के कॉलेज में वकील बनने आता है।
परियन तमिलनाडु राज्य के तिरुनलवेली शहर के लॉ कॉलेज में कानून की पढ़ाई करने के लिए आ जाता है। वह देखकर हैरान होता है कि यहां कॉलेज जातीय द्वेष का अड्डा बना हुआ है। एक दलित युवक उच्च शिक्षा के लिए शहर के लॉ कॉलेज में आता है यह सोचकर कि यहां समावेशी वातावरण होगा लेकिन जातिवादी वर्चस्व के घिनौने खेल में पिसता रहता है। वहां सारे के सारे लोग घोर जातिवादी हैं। एक आरामतलब जाति अपने आराम के लिए कितनी कायर हो जाती है और उसकी कायरता कितनी दूरदर्शी है एक दृष्य में बहुत सटीक रूप से दिखाया गया है।
परियन अपने नामांकन के समय प्रिंसिपल से कहता है कि उसे डॉक्टर बनना है इस पर प्रिंसिपल उसे बुलाकर कहते हैं कि यहां कानून की पढ़ाई होती है यहां डॉक्टर नहीं बनते। मुक्ति के सपने से भरे वह कहता है, “मुझे डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की तरह बनना है तब उसके जवाब से प्रिंसिपल को चिंता होती है कि आगे चलकर ये उनके लिए समस्या बन सकता है। एक दलित के आंबेडकर बनने पर उसकी घबराहट बताती है कि समाज का यह वर्ग दलित-बहुजन जातियों के विकास को किस दृष्टि से देखता है। वे अपने भेदभाव के समाज को बनाए रखने के लिए हाशिये की जातियों को पीछे धकेलने के उपक्रम में लगे रहते हैं।
आखिर जाति के नाम पर कितनी घृणा की जा सकती है, कितनी जान ली जा सकती है। मनुष्य कितना क्रूर बन सकता है और कितना निरीह और अकेला पड़ जाता है। वह मनुष्य जो इन घृणाओं को झेलता है, इनसे लड़ता रहता है यह बताती है ‘परियेरुम पेरुमल।’
देश के उच्च शिक्षा के संस्थानों में जिस तरह जातिवाद मौजूद है यह समय-समय पर खबरों में आता रहता है। जाने ऐसी कितनी घटनाएं घटित होती होंगी जिनका पता भी नहीं चलता क्योंकि सत्ता में वे हमेशा भागीदार होते हैं। परियन के कॉलेज में उसे महज उसकी जाति के कारण कई बार पीटा जाता है। उसके खिलाफ साजिश कर उसे इस तरह फंसाया जाता है कि उसके नामांकन तक पर संकट आ जाता है। फ़िल्म देखते हुए एक दृष्य हमारी चेतना को झकझोर कर रख देता है जब कॉलेज के पूरे वातारण के कारण परियन ने यहां अपने पिता का यथार्थ परिचय नहीं दिया था। उसने किसी और को ले जाकर अपना पिता बताकर परिचय दिया था। बाद में वह वह तय करता है कि वह अपने वास्तविक पिता को कॉलेज लेकर आएगा जिन्हें उसने अपनी शर्म के कारण अपनी पहचान से दूर ही रखा है।
दरअसल उसके पिता गाँव में एक नाचने वाले हैं जो अपनी छोटी कदकाठी और पतली आवाज़ के कारण स्त्री के कपड़े डालकर अपनी मंडली में नाचते हैं। जब परियन अपने पिता को कॉलेज लेकर आता है तो कॉलेज के तथाकथित उच्च जाति के लड़कों को पता चल जाता है। वे सब उनके पीछे लग जाते हैं और बुजुर्ग के साथ बद्तमीज़ी करने लगते हैं। कॉलेज के तथाकथित उच्च जाति के लड़के दिन दहाड़े उसके पिता को नंगा कर देते हैं और वह अपने को किसी तरह ढंकते हुए बाहर भागते हैं। यह एक जातिगत घृणा से भरे समाज का कितना विद्रूप है।
फ़िल्म में तथाकथित उच्च जाति के लोग परियन को मारने की कई बार साजिश करते हैं महज इसलिए कि वह हाशिये की जाति से और एक सवर्ण जाति की लड़की उसकी प्रेमिका है। अपनी प्रेमिका के घर जब वह शादी में जाता है तो उसे पीट-पीटकर वे लोग उस पर पेशाब कर देते हैं। इसी तरह कई बार उसे मारने की कोशिश एक सामाजिक अन्याय और हिंसा के प्रतीक की तरह आता है जिसमें सब झेलता वह बचा रहता है। यह इस फ़िल्म की विशेषता है जो इसे कला फ़िल्म की पंक्ति में खड़ा करती है, कहीं कोई फैंटसी या अतिश्योक्ति नहीं। परियन को मारने का दृश्य इस फिल्म का चरम है और उसका बचे रहना एक उम्मीद की किरण है। जब सारी जातिवादी और नस्लवादी ताकतें अपने अन्याय के चरम में उतरती हैं, फिर भी हाशिये का मनुष्य बचा रहता है और लड़ता रहता है इस गैरबराबरी के समाज से तो वह प्रतिरोध के बचे रहने का आदर्श परचम होता है।
जातिगत घृणा के कारण होनेवाली हत्याएं हमारे समाज के लिए नयी नहीं हैं। उत्तर भारत हो या पहाड़ के जीवन का छुआछूट और अस्पृश्यता में ढला समाज, राजस्थान का सामंती परिवेश हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतें सबके अपने क्रूर व विद्रूप इतिहास हैं जातिघृणा को लेकर। परियन के पिता को नंगा करने का दृश्य या दलित लड़कों का जुर्म पूछने पर दरोगा का गाली देकर दलित बुजुर्ग को थप्पड़ मारने का दृश्य। ये हमारे जातीगत द्वेष में डूबे समाज के लगभग हर हिस्से का सच है। फ़िल्म का एक बेहद क्रूर और संदिग्ध चरित्र है जो अंतरजातीय प्रेम करते दलित लड़कों की हत्या कर देता है।
यह चरित्र प्रतीक की तरह आया है फ़िल्म के दृश्यों में समाज की खाप पंचायतों और जातिघृणा के कारण प्रेमियों की ऑनरकीलिंग करते समाज का प्रतीक। जातीय दंभ और क्रूरता से बना उस चरित्र का हाशिये की जातियों को लेकर अपना एक अलग और विचित्र दंडविधान है। उसे जब सूचना मिलती है कि कहीं कोई दलित लड़का तथाकथित उच्च जाति की लड़की से प्रेम कर रहा है तो वह उस लड़के के पीछे लग जाता है बस में, ट्रेन में है तो किसी बहाने से बुलाकर धक्का देकर मार देता है, सड़क पर है तो एक्सीडेंट से मार देगा, तालाब में पोखर आदि में है तो डुबो देगा। ये सब इतना संदिग्ध कि कोई उसे देख नहीं पाता। वह चरित्र समाज के सामंती, जातिवादी सत्ताधारी वर्ग की चालाकियों को दर्शाता है कि कैसे समाज में सफेदपोश बनकर वो अन्याय करते हैं। फ़िल्म का अंत हमें एकदम निराश नहीं करता। एक आस बनाता है कि लड़ते हुए,टूटते हुए एक दिन जीतेंगे। यह फ़िल्म जातिगत घृणा में गले तक डूबे समाज के चेहरे को उघाड़ती ही नहीं उसके कितने विभत्स रूप हैं उन सतहों को भी दिखाती है।