‘चरित्रहीन’ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखा गया एक स्त्री प्रधान उपन्यास है। इस उपन्यास में मूल रूप से औरतों के शोषण और समर्पण का चारित्रिक विश्लेषण किया गया है। इन सबसे उभरनेवाला अंतर्विरोध ही इस उपन्यास का केंद्रबिंदु है। यहां महिलाओं के दो रूप स्पष्ट होते हैं। एक तरफ जहां महिलाओं को पितृसत्ता के एक मज़बूत ढाल के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वहीं, दूसरी तरफ उपन्यास के कई किरदार कुछ स्तर तक विचारशील और तार्किक भी हैं।
इस उपन्यास की औरतें समाज में व्याप्त रूढ़ियों और विडंबनाओं पर प्रश्न करती हैं, जो जैसा है वैसा मान लेने में भरोसा नहीं रखती। वे अपने फैसले लेने में भी सक्षम हैं। अपना जीवन व्यतीत करने के लिए वे किसी पुरुष पर निर्भर नहीं हैं। उपन्यास यह बताने में सफल होता है कि किस तरह पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी समाज में प्रेम को कोई स्थान नहीं दिया जाता और महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करता है।
उपन्यास के पुरुष पात्र शिक्षित है लेकिन यह शिक्षा केवल कागज़ी है और किसी व्यवसाय को पा लेने के लिए है। वे समाज के अनेक पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों से ग्रसित हैं। उनमें अपनी तार्किक शक्ति नहीं हैं। इसलिए साल 1917 में एक विवादास्पद शीर्षक के साथ लिखी गई ‘चरित्रहीन’ आज भी प्रासंगिक है। उस समय कई प्रकाशकों ने यह कहकर इसे प्रकाशित करने से मना कर दिया था कि यह समाज की परंपराओं और मूल्यों के ख़िलाफ़ है।
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वास्तम में यह उपन्यास समाज की रूढ़ियों और परंपराओं पर कई प्रश्न उठाता है। जहां पूरे उपन्यास में चरित्र और चरित्रहीन को परिभाषित करने की कोशिश की गई है, वहीं साथ ही साथ चरित्र को दोबारा परिभाषित किया गया है। उपन्यास में प्रमुख रूप से दो किरदारों की कहानियां सतीश-सावित्री और दिवाकर-किरणमई की समानांतर चलती हैं लेकिन और भी कई किरदार इस उपन्यास को पूरा करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसके अन्य पात्र हैं उपेंद्र-सुरबला, मूर्च्छिता, जगततारिणी, अघोरमयी आदि।
उपन्यास के मुख्य किरदारों में से सावित्री एक आवास गृह की नौकरानी है और छोटी उम्र में ही विधवा हो गई थी। पति की मौत के बाद समाज के रीति-रिवाजों ने उसे कुल से निकल दिया। वह घरेलू कामकाज कर अपना जीवनयापन करती है। सतीश एक विद्यार्थी है जो अपनी पढ़ाई पूरी करने कलकत्ता आया है। दोंनो एक दूसरे से वहीं मिलते हैं और एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं। दूसरी तरफ किरणमई भी एक विधवा वयस्क महिला है और दिवाकर उसके घर रहकर पढ़ाई करता है।
किरणमई बचपन में अपने ननिहाल में रही और कम उम्र में ही उसका विवाह हरान नाम के व्यक्ति से हो जाता है जो कि पारिवारिक जीवन से दूर किताबों-कापियों में ही अपना दिन व्यतीत करता है। संभवत: इसका प्रभाव किरणमई पर भी पड़ता है वह उसकी पत्नी नहीं बल्कि विद्यार्थी स्वरूप उसके जीवन में उपस्थित है। वह उसे पढ़ाया करते थे परिणामस्वरूप वह एक विदुषी महिला के पात्र को प्रदर्शित करती हैं। गंभीर बीमारी के बाद उनके पति का देहांत हो जाता है जिसके फलस्वरूप किरणमई के दूसरे पुरुषों से प्रेम प्रसंग दिखाया गया है। हालांकि, किरणमई का वास्तविक चरित्र अंत तक संशित ही रहा। कभी वह पतिव्रता होकर अपने पति की सेवा करती है, कभी विदुषी होती है।
साल 1917 में एक विवादास्पद शीर्षक के साथ लिखी गई ‘चरित्रहीन’ आज भी प्रासंगिक है। उस समय कई प्रकाशकों ने यह कहकर इसे प्रकाशित करने से मना कर दिया था कि यह समाज की परंपराओं और मूल्यों के ख़िलाफ़ है।
यह उपन्यास उस दौर का है जब विधवा पुनर्विवाह जैसी कोई धारणा ही नहीं थी न ही स्वतंत्र प्रेम की अनुमति थी। जब उपेंद्र को सतीश और सावित्री, दिवाकर और किरणमई के रिश्ते के बारे में पता चलता है तो वह इस बात से नाराज़ होकर हमेशा के लिए सबसे रिश्ता तोड़ लेते हैं जिसके लिए सावित्री और किरणमई खुद को ही दोषी मानती हैं।
एक बार किरणमई उपेंद्र से अपना प्रेम जाहिर करती है। इसमें प्रेम को लेकर नारी की वेदना को रेखांकित किया गया है। दोंनो का ही विवाह तो नहीं हो पाता लेकिन वे अपने प्रेम के प्रति ईमानदार हैं। यहीं हमें लैंगिक असमानता भी देखने को मिलती है जहां सावित्री को किसी तीर्थस्थल भेजे जाने की बात की जाती है और सतीश के सामने का सरोजिनी से विवाह का प्रस्ताव रखा जाता है।
उपन्यास की एक पात्र किरणमयी द्वारा एक बात कही गई है, “राह चलते जब कोई अंधा गड्डे में गिर जाता है तो लोग उसे उठाते है, संभालते हैं। समाज द्वारा यह बात स्वीकृत है कि प्रेम अंधा होता है, पर जब यह अंधा गड्डे में गिरता है तो लोग उसे संभालने के लिए नहीं आते बल्कि उसे और गिरा कर उस पर मिट्टी तक डाल देते हैं। “ यह स्पष्ट तौर पर बताता है कि समाज स्त्री और पुरुष के प्रेम को कितनी हीन दृष्टि से देखता है।
साथ ही यह उपन्यास समाज में विधवा औरतों के जीवन को कैसे सीमित कर दिया जाता है यह बताने में सफल होता है। विधवा जीवन के दायरे से अलग उनका अकेला रहना समाज को गंवारा नहीं होता, विभिन्न प्रकार की टीका टिप्पणियां चलती रहती हैं। आज भी हमारे समाज में कुछ खास परिवर्तन नहीं आया है कानूनी अधिकार तो है लेकिन समाज में मान्यता नहीं मिली है।
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