सेक्स! ये शब्द अगर आप अपने घर में अभी कहेंगे तो सबकी नज़रे आपको यूं घूरेंगी जैसे आपने कोई अपराध कर दिया हो। ऐसा नहीं है कि इस शब्द से वहां मौजूद लोग वाकिफ़ नहीं हैं, या उन्हें पता नहीं है कि सेक्स होता क्या है लेकिन इस मुद्दे पर बात करने की मनाही है. ये एक शर्म का विषय है। यहां तक इस पितृसत्तात्मक समाज के लिए जिसके लिए सेक्स के मायने बस रिप्रोडक्शन तक है। इसके लिए भी ‘भगवान’ नाम का कवरअप इस्तेमाल किया जाता है।
हमारे स्कूलों में तो शायद इतना भी नहीं पढ़ाया गया था। हमारे स्कूलों में कैसे किशोर उम्र के स्टूडेंट्स के साथ शिक्षकों, स्कूल प्रशासन का रवैया अचानक से बदल जाता था। लड़कियों को हिदायत दी जाती थी कि वे दुपट्टा ठीक से ओढ़ें, स्कर्ट की जगह सूट पहनें, लड़के-लड़कियों को हर तरीके से अलग रखा जाता था।
यह एक पितृसत्तात्मक तरीका ही तो है क्योंकि हमारे समाज को डर होता है कि अगर ये प्रतिबंध नहीं लगाए जाएंगे तो लोग अपनी यौनिकता का इज़हार कहीं खुलकर न करने लगें। साथ ही जेंडर और यौनिकता को हमारे समाज ने हमेशा इसी बाईनरी में देखा तो यहां सेक्स एजुकेशन, जेंडर और यौनिकता पर इंटरसेक्शनल नज़रिये की उम्मीद भला हम कैसे करें।
सेक्स से जुड़ी शर्मिंदगी और इसका असर
हम एक ऐसे माहौल में पले-बढ़े हैं जहां सेक्स को एक बेहद खतरनाक और डरावनी प्रक्रिया के रूप में पेश किया गया है। सेक्स से जुड़ा स्टिग्मा प्रभावित तो सबको करता है लेकिन इस बात को कबूल करने से भी लोग हिचकिचाते हैं। हमारा समाज इस तरीके से व्यवहार करता है जैसे ऐसी कोई चीज़ अस्तित्व में है ही नहीं। लेकिन यहां हम यह भूल जाते हैं कि सेक्स की इस प्रक्रिया से कितनी कड़ियां जुड़ी हैं। इसकी शुरुआत बेहद छोटे स्तर पर होती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि सेक्स युवाओं में सेक्स को छोटी उम्र से बढ़ावा नहीं देता बल्कि इससे सुरक्षित सेक्स, सही उम्र में सेक्सुअली ऐक्टिव होना जैसी बातों को बढ़ावा मिलता है। इससे यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य, अधिकार, यौन हिंसा, सहमति, यौनिकता, अपने शरीर की ज़रूरतें, गर्भनिरोध, यौन संचारित रोग जैसे तमाम मुद्दों पर जागरूकता फैलेगी।
उदाहरण के तौर पर बढ़ती उम्र के साथ किशोर, किशोरियों के शरीर में जो बदलाव होते हैं उसे लेकर उन्हें शर्मिंदा करवाया जाता है, ख़ासकर लड़कियों, नॉन बाइनरी, एलजीबीटीक्यूएआई+ समुदाय के लोगों को। अगर आप गर्भनिरोधक लेने जाते हैं जैसे कॉन्डम या कॉन्ट्रसेप्टिव पिल्स जो कि स्वास्थ्य से जुड़ी एक ज़रूरत है जैसे सर्दी के लिए विक्स है, उसके लिए आपको शर्मिंदा महसूस करवाया जाता है। आप किसके साथ संबंध बनाते हैं, आपके पार्टनर के चयन, गर्भवती होने पर प्रेग्रनेंसी को जारी रखने या न रखने के फैसले को लेकर शर्मिंदगी और ऐसे कई रूपों में सेक्स से जुड़ी चुप्पी के गंभीर परिणामों का सामना हम अपनी ज़िंदगी में करते हैं।
इस मुद्दे पर चुप्पी कैसे पहुंचा रही है नुकसान
पहला- सेक्स से जुड़े स्टिग्मा के कारण मर्द औरत की बाइनरी से परे LGBTQAI+ समुदाय के लोग अपनी यौनिकता का खुलकर इज़हार नहीं कर पाते। ये प्रतिबंध सिस-जेंडर महिलाओं पर भी लागू होते हैं। बचपन से ही हमारे दिमाग के सेक्स के प्रति इतनी नकारात्मकता भर दी जाती है कि हम अपनी यौनिकता को हमेशा दबाकर रखते हैं। जो इसका खुलकर इज़हार करते हैं उन्हें ये समाज अश्लील होने से लेकर हर तरह के तमगे से नवाज़ देता है।
दूसरा- सेक्स पर चुप्पी असुरक्षित सेक्स को बढ़ावा देती है। सेक्स हमारे यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य का एक अहम हिस्सा है। इससे हमारे स्वास्थ्य के कई पहलू जुड़े होते हैं। असुरक्षित सेक्स, गर्भनिरोध की जानकारी न होना, यौन संक्रमित रोगों के बारे में जागरूकता का अभाव, छोटी उम्र में गर्भवती होता आदि कई बड़े गंभीर मुद्दे सेक्स पर चुप्पी से जुड़े हैं।
तीसरा- सेक्स से जुड़ी शर्मिंदगी के कारण हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा, सहमति, यौन हिंसा, रिश्तों में बराबरी और समानता के भाव को समझने में नाकाम रहता है। हम अपने शरीर, अपनी शारीरिक, यौनिक ज़रूरतों पर बात नहीं कर पाते। अपनी यौनिकता को लेकर शर्मिंदा होते हैं।
क्या कहते हैं आंकड़े
UNFPA की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में आधे से अधिक प्रेग्नेंसी अनचाही होती है, हर साल करीब 121 मिलियन प्रेग्रनेंसीज़ अनचाही होती हैं। इसके पीछे की वजहें बेहद साफ हैं गर्भनिरोधक और सुरक्षित अबॉर्शन की सुविधा का लोगों की पहुंच से दूर होना, इन मुद्दों पर जानकारी और जागरूकता का अभाव होना।
सेक्स से जुड़ा स्टिग्मा प्रभावित तो सबको करता है लेकिन इस बात को कबूल करने से भी लोग हिचकिचाते हैं। हमारा समाज इस तरीके से व्यवहार करता है जैसे ऐसी कोई चीज़ अस्तित्व में है ही नहीं। लेकिन यहां हम यह भूल जाते हैं कि सेक्स की इस प्रक्रिया से कितनी कड़ियां जुड़ी हैं। इसकी शुरुआत बेहद छोटे स्तर पर होती है।
एक सर्वे बताता है कि केवल 1 प्रतिशत महिलाओं को ही उनकी माओं, डॉक्टर्स या सरकारी अभियानों के ज़रिये यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी हासिल हुई। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- 5 बताता है कि भारत में 82 फीसदी औरतें अपने पति को सेक्स के लिए न नहीं कह पातीं। ऑल इंडिया एजुकेशनल एंड वोकेशन गाइडेंस इंस्टीट्यूट ने अपने सर्वे में पाया कि भारत में 42% से 52% युवा छात्रों को लगता है कि उनके पास सेक्स के बारे में पर्याप्त जानकारी है ही नहीं। ऐसा क्यों हैं, ये आंकड़े क्या बताने की कोशिश कर रहे हैं। यह आंकड़े यही दिखाते हैं कि सेक्स से जुड़ी शर्मिंदगी के कितने गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
सेक्स एजुकेशन कैसे सेक्स से जुड़ी शर्मिंदगी को खत्म कर सकता है
पॉपूलेशन डेवलपमेंट पर साल 1994 में हुए संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में सदस्य देशों ने, जिसमें भारत भी शामिल था, सभी ने युवाओं के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की बात कही थी। लेकिन आज साल 2022 में हम कहां हैं? आज भी हमारे देश में सिलेबस में सेक्स एजुकेशन जोड़ने के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होते हैं। सेक्स से हमारा समाज यही समझता है कि अगर इसे सिलेबस में शामिल किया गया तो ये किशोर विद्यार्थियों के बीच सेक्स को बढ़ावा देगा।
लेकिन ऐसा नहीं है विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि सेक्स युवाओं में सेक्स को छोटी उम्र से बढ़ावा नहीं देता बल्कि इससे सुरक्षित सेक्स, सही उम्र में सेक्सुअली ऐक्टिव होना जैसी बातों को बढ़ावा मिलता है। इससे यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य, अधिकार, यौन हिंसा, सहमति, यौनिकता, अपने शरीर की ज़रूरतें, गर्भनिरोध, यौन संचारित रोग जैसे तमाम मुद्दों पर जागरूकता फैलेगी जिसका असर हमें कई अलग-अलग रूप में देखने को मिलेगा। साथ ही हमें यह समझने की ज़रूरत है कि हर बार नैतिकता और संस्कृति के नाम पर युवाओं को सेक्स एजुकेशन से दूर रखना उनके स्वास्थ्य और मानवाधिकार से दूर रखने जैसा है।