‘‘हमें शादी ही नहीं करनी है, शादी के बाद हम तो वहीं होंगे पर हमारी डोर थामने वालों की संख्या बढ़ जाएगी और हमारी डोर किसी और के हाथ में होगी।” जब भी मैं लड़कियों से शादी की बात करती हूं तो उनकी भावनाएं और डर कुछ इस तरह उनके विचार में झलकते हैं। लड़कियों की आज़ादी आज भी पितृसत्ता के नियंत्रण में है। लड़कियों को कितना पढ़ना है, कहां पढ़ना है, क्या करना है, कहां जाना है, किसके साथ जाना है, क्या पहनना है, कैसे रहना है, क्या सीखना है, क्या खाना है, उनकी दोस्ती, पसंद, शादी सभी के दायरे पितृसत्ता तय करती है।
हालांकि, जैसे-जैसे समय बदल रहा है बदलते वक्त के साथ जिस तरह जीने का सलीका बदल रहा है। लोग आधुनिक सभ्यता और विचारों में अपने आप को ढाल रहे हैं। वहीं, लड़कियों पर पितृसत्ता का नियंत्रण का स्वरूप भी आधुनिक होता नज़र आ रहा है जिसमें उन्हें कुछ छूट दी जाती है। समाज और पितृसत्तात्मक सोच के हिसाब से लड़कियां सिर्फ एक कठपुतली की तरह होती हैं जिनकी डोर पुरुषों के हाथ में होनी चाहिए। अगर परिवार में महिला प्रधान है तो वह भी पितृसत्ता के ढांचे में स्वयं को ढालते हुए उसी सोच का हिस्सा बनती दिखती है।
क्या है लड़कियों के लिए आज़ादी के मायने?
जब मैंने महिला जन अधिकार समिति संस्था में बस्तियों से कम्प्यूटर सीखने आनेवाली लड़कियों से उनके लिए आज़ादी के मायने पर बात की तो लगभग उन सभी के लिए आज़ादी को एक शब्द में परिभाषित करना मुश्किल था। हर किसी के लिए आज़ादी के अलग मायने निकलकर आए। जैसे किसी के लिए आज़ादी एक सपने की तरह थी। किसी के लिए आज़ादी का मतलब अपनी पसंद का काम करने देना तो किसी के लिए बिना डरे अपनी जिंदगी जीना। किसी के लिए अपने सपने पूरे करना तो किसी लिए रोक-टोक से छुटकारा।
किसी के लिए खुले आसमान में पंछी की तरह घूमना तो किसी के लिए रात की दुनिया देखना। किसी के लिए अलग-अलग चीज़ों के बारे में जानना तो किसी के लिए रोज़ाना के संघर्ष से छुटकारा। किसी के लिए आज़ादी का मतलब था, लोग क्या कहेंगे से छुटकारा तो किसी के लिए असुरक्षा की भावना से छुटकारा। किसी के लिए शादी के बाद के बंधनों से छुटकारा तो किसी के लिए पसंद की शादी करना। इन सभी परिभाषाओं के बीच नमीरा बानो कहती हैं, ‘‘मेरी आज़ादी: मेरी जिदंगी, मेरे फैसले, मेरी पसंद और मेरी दुनिया।”
बदलते वक्त और नज़रिये के साथ पितृसत्ता का लड़कियों पर नियंत्रण का बदलता स्वरूप
पिछले दौर की अगर बात की जाए तो लड़कियों को कम पढ़ना या उन्हें न पढ़ाना, उनकी जल्दी शादी कर देना, नौकरी न करने देना, मर्ज़ी के कपडे न पहनने देना, बाहर न निकलने देना, किसी से ज्यादा बात न करने देना, तकनीकी से दूर रखना, साज-श्रृंगार न करने देना जैसी अनगिनत रोक-टोक हमें नज़र आती थीं। हालांकि ऐसी रोक-टोक आज भी हमारे समाज में बदस्तूर जारी है। इन सबके पीछे पितृसत्ता की हमेशा यही सोच रही है कि लड़कियां अपनी पसंद को न समझ पाए और हमेशा उनके नियंत्रण में रहें।
वहीं, अगर इसे वर्तमान परिवेश से जोड़कर देखा जाए तो बदलते वक्त के साथ परिवारों के रहन-सहन और सोच में एक हद तक बदलाव तो हुआ है पर लड़कियों के प्रति सोच और धारणा में बदलाव अब भी वहीं रूढ़िवादी है। यह बदलाव लड़कियों के लिए सकारात्मक है या उनको अपनी मर्ज़ी के हिसाब से ढालना इस पर सेंटर की लड़कियों का कहना है, ‘‘जैसे लड़कियों के लिए वक्त बदल रहा है उसके साथ हमारे परिवार हमारी पसंद में बदल तो रहे हैं। अब वे कुछ नियमों के साथ, हमें अपनी पसंद के कपड़े पहनने देते हैं। जैसे जींस टॉप, गाउन पहन सकते हैं पर शॉटर्स नहीं, बाहर तो जाते हैं पर देर तक बाहर नहीं घूम सकते, पढ़ाई तो कर रहे हैं पर पसंद का विषय नहीं चुन पाते, दोस्त है पर लड़का दोस्त न हो इसका डर भी, नौकरी करने के लिए इजाज़त है पर जगह और काम उनकी पसंद का होता है। साज और श्रृंगार करने की अनुमति है पर त्योहारों पर, मोबाइल फोन दिया गया है पर निगरानी के साथ। दोस्तों के साथ घूमते हैं पर उसका एक तय समय होता है। बाहर का खाते-पीते हैं, जल्दी शादी नहीं होती लेकिन जब होती है तब परिवार की पसंद से ही।”
जब इन सभी चीजों को आज हमारा पितृसत्तात्मक आज़ादी का नाम देता है। अगर इस बारे में बात की जाए या सवाल उठाया जाए तब एक ही बात परिवारवालों की तरफ से कही जाती है, ‘‘हमारे समय में तो लड़कियों को किसी भी तरह की छूट नहीं थी। आजकल तो फिर भी उन्हें काफी छूट मिल तो रही है।” आगे लड़कियां बताती हैं कि असली आज़ादी तो आज भी लड़कों को मिलती है। उनके काम और इच्छाओं में नापा-तोला नहीं जाता है। लड़कियों को तो आज़ादी मिली है वह भी शर्तों पर। अगर इन शर्तो में कुछ बदलाव हुआ तो ये आज़ादी आसानी से छिन भी सकती है।
नमीरा बताती हैं, ‘‘मुझे मेरे परिवार ने इतनी आज़ादी दी है कि मैं अपनी पसंद से कपडे, विषय, करियर, आना-जाना चुन रही हूं। अपने फैसले ले रही हू, मैं जॉब भी कर रही हूं। मुझे मेरे परिवारवालों ने स्मार्टफोन भी दिलवाया है ताकि मैं अपना काम आसानी से कर सकूं। मैं किस उम्र में शादी करूंगी ये फैसला करना भी मेरा अधिकार है। लेकिन मैं किससे शादी करूंगी ये अधिकार मेरा नहीं है। मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूं लेकिन अपना जीवनसाथी चुनना मेरे हाथ में नहीं है।‘‘ यह कहानी सिर्फ नमीरा की नहीं है बल्कि हर लड़की इसी कहानी से जुड़ी हुई है जिन्हें ‘छूट’ के नाम पर उनकी जिंदगी के सबसे बड़े फैसले लेने से दूर किया जाता है।
शादी के ज़रिये लड़कियों की यौनिकता पर नियंत्रण
हम सबने कभी न कभी यह ज़रूर सुना होगा, “लड़कियों को आज़ादी मिली तो वे हाथ से निकल जाएंगी। बिगड़ जाएंगी, इज़्ज़त खराब कर देंगी या फिर अपनी मर्ज़ी से शादी कर लेंगी।” इसीलिए शादी की विचारधारा पर कुछ लड़कियों का कहना था कि वे शादी ही नहीं करना चाहती हैं। लड़कियों के हिसाब से शादी उनकी इस नाप-तोल वाली आज़ादी को बिल्कुल ही खत्म करनेवाली संस्था है।
सेंटर में कंप्यूटर सीखने आती कावेरी का मानना है, ‘‘शादी के बाद फिर हमारी आज़ादी के मायने बदल जाएंगे। हम तो वही रहेंगे पर डोर किसी और के हाथ में होगी। अभी तो परिवारवालों से बातचीत करके किसी तरह अपने फैसले ले पा रहे हैं लेकिन शादी के बाद की जिंदगी पूरी अलग होगी और नियंत्रण भी। मैं आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं अपने सपने पूरे करना चाहती हूं जो अभी आज़ादी मिल रही है उसमें कर सकती हूं लेकिन शादी के बाद वह भी नहीं मिल पाएगी। अभी परिवार में बात रखनी पड़ती है। कई चीजों को झेलकर आगे बढ़ना होता है अभी उनकी अनुमति लेनी होती है फिर किसी और के साथ फिर वह ही संघर्ष दोबारा करना होगा। अभी पिता का नियंत्रण फिर पति का इस बीच मेरी अपनी जिंदगी और आज़ादी कहां होगा?‘‘
लड़कियों उनके विचारों और पसंद से जुड़े मुद्दे से पितृसत्तात्मक समाज को एक ही खतरा है वह है लड़कियों की यौनिकता से कंट्रोल हटने और परिवार की तथाकथित इज़्ज़त का डर। इसी डर को उनके मन में बिठाकर, उनकी इच्छाओं और उनके सपनों को नियंत्रित किया जाता रहा है। इन्हीं कारणों से इस आधुनिक होती पितृसत्तात्मक सोच के तहत उन्हें एक तय सीमा में छूट दी जाती है ताकि उनकी यौनिकता को नियंत्रित किया जा सके।