जब एक समाज पीछे की ओर जाने लगता है और उस पिछड़ेपन को ‘सांस्कृतिक गौरव’ बताता है तो न्यायालय में कुंडली जांच , विश्वविद्यालयों आदि में धार्मिक अनुष्ठान जैसी चीज़ें आम हो जाती हैं। इसे विडंबना ही कह सकते हैं कि एक लैंगिक भेदभाव रहित और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर बने देश के न्यायालय में भी औरतों के लिए न्याय पाना कितना कठिन और भद्दा हो सकता है। इसका उदाहरण है हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक फ़ैसला।
मामला यह था कि एक प्रोफेसर पर शादी का झांसा देकर यौन संबंध बनाने का आरोप था। अपने बचाव में आरोपी ने कहा कि वह सर्वाइवर से शादी करना चाहता लेकिन बाद में पता चला कि वह मांगलिक थी। यह मामला तब बेहद विद्रुप हो जाता है जब इस पर जज ने सर्वाइवर की कुंडली की जांच का आदेश दे दिया कि लड़की सच में मांगलिक है या नहीं है। हालांकि, इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फ़ैसले पर फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है।
यहां इस रूढ़ीवादी धार्मिक मान्यता का उल्लेख ज़रूरी है कि मंगली या मांगलिक होना हिंदू ज्योतिष के अनुसार मंगल के प्रभाव में पैदा हुआ व्यक्ति है जिसकी शादी सिर्फ किसी मांगलिक व्यक्ति से ही हो सकती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसे एक तरह का ‘भाग्य-दोष’ कहा जाता है। हिन्दू मान्यता के समाज में लड़की अगर मांगलिक है तो उसकी शादी को लेकर कई अड़चनें आती हैं। इसी मान्यता के अनुसार जस्टिस बृज राज सिंह ने महिला और आवेदक गोबिंद राय को अपनी कुंडली लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग में जमा करने का आदेश दिया। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग को तीन सप्ताह के भीतर सीलबंद लिफाफे में कुंडली की रिपोर्ट देने का निर्देश दिया था।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में स्वतः संज्ञान लेकर इस फैसले पर रोक लगाई और जज को फटकार भी लगाई। अपनी गरिमा के लिहाज़ से सुप्रीम कोर्ट की ये दखल बेहद ज़रूरी थी। सुनवाई के दौरान ‘ज्योतिष विद्या एक विज्ञान है’ आदि तर्क दिए गए और सर्वाइवर पक्ष के वकील ने भी अपना पक्ष रखा कि लड़की मांगलिक नहीं है। लेकिन सवाल उठता है कि लड़की मांगलिक है इस बात को जज के सामने पेश करने की मंशा क्या थी? आरोपी की मंशा जो भी रही हो लेकिन अंधविश्वास की जिस बात के लिए जज को डांट देना चाहिए उसी बात को खुद जज ने जांच का आधार बना दिया।
जब हम इस पूरे समय का अध्ययन करेंगे तो देखते हैं कि यह इलाहाबाद हाई कोर्ट में कुंडली जांच का आदेश देश की तत्कालीन राज्य व्यवस्था का मन-मिजाज बता रहा है। आज विश्वविद्यालयों में धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करवाए जाते हैं। सुंदर कांड आदि का बकायदा पाठ होता है जिसमें स्त्रियों को दलितों को जानवरों के समान दंडित करने की बात कही गई है। उन्हीं धार्मिक पुस्तकों का आज विश्विद्यालयों में पाठ कराया जाता है। ऐसा में यह सवाल ज़रूरी हो जाता है कि आखिर राज्य की मंशा क्या है व्यक्तियों को आधुनिक मनुष्य बनाने की जगह उन्हें पीछे की तरफ ले जाने की।
जिस समाज में लड़की के रंग-रूप आदि को लेकर इतना भेदभाव है। दहेज जैसी कुरीति का आज इतना बोलबाला है कि कितनी लड़कियों की हत्या हो जाती है। धर्म और विवाह को लेकर हमारे समाज में लड़कियों को क्या-क्या झेलना पड़ता है, उसी समाज में हाई कोर्ट का एक न्यायधीश एक रेप सर्वाइवर की कुंडली के आधार पर जांच का आदेश देता है कि लड़की मांगलिक है कि नहीं। यह मान्यता एक रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक समाज की है जहां लड़कियों की कुंडली, उनका भाग्य दोष आदि देखकर विवाह होता है। आज ज़रूरत थी इस तरह की मान्यताओं, प्रथाओं से लड़ने की एक वैज्ञानिक चेतना से संपन्न समाज बनाने की लेकिन राज्य हमें पीछे की ओर धकेलने की क़वायद में लगा है।
हाई कोर्ट के इस फैसले को देखते हुए लगता है कि हम व्यवस्था पर कोई व्यंग नाटक देख रहे हैं। एक पुरुष ने एक स्त्री से, विवाह के वादे पर यौन संबंध बनाए और फिर वह उस स्त्री से विवाह के वादे से मुकर जाता है। दलील यह दी गई है कि स्त्री मांगलिक है, इसलिए यह शादी नहीं हो सकती है। सबसे विद्रूप बात कि हाई कोर्ट के जज इस दलील को ही आधार बनाते हुए न्याय करना चाहते हैं। वह लखनऊ के विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग से यह राय मांगते हैं कि वह उस स्त्री की कुंडली देखकर बताएं कि, वह मांगलिक है या नहीं।
लेकिन अफ़सोस यह कि ये किसी नाटक का दृश्य नहीं हमारी माननीय अदालत का फैसला है और एक स्त्री की यातना के सफर का भयावह पड़ाव है। एक स्त्री जब इस धर्म और सत्ता के नशे में डूबे समाज में अपने न्याय की लड़ाई लड़ती है तो हाई कोर्ट के उस न्यायधीश जैसे कितने लोगों से लड़ना पड़ता है और सबसे बड़ी तकलीफ़ कि हमें ऐसे ही लोगों के पास अपने लिए न्याय के लिए जाना पड़ता है।
आज जब हम तमाम शीर्ष पर बैठे लोगों को देखते हैं जो बार-बार स्त्री और हाशिये के लोगों के लिए बेहद असवंदेशील और बेहद गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार करते दिखते हैं। एक संवैधानिक पद पर बैठकर वे फासीवादी विचारों को बढ़ावा देते हैं तो अचरज होता है कि इतना पढ़-लिखकर आया व्यक्ति इतना असंवेदनशील क्यों है? इस सवाल के कई जवाब दिखते हैं लेकिन जो बात सबसे पहले मन में आती है वह यह कि एक रटी-रटाई ढांचे की शिक्षा लेकर प्रशानिक पदों पर तो पहुंच जाते हैं लेकिन मनुष्य के सुख-दुख से इनका कोई वास्ता नहीं। ये एक मध्यवर्गीय चेतना में ढले अपने मन से काम करते हैं। ये ताकत के ढांचे को और मजबूत करते हैं और हर तरह से सामंती व्यवस्था के काम आते हैं।
एक पितृसत्तात्मक समाज में जहां ताकत का ढांचा पुरुषों के पक्ष में खड़ा रहता है, वहां स्त्रियों के लिए दुनिया पहले ही पुरुषों की अपेक्षा काफी कठिन है। जब वे अपनी किसी लड़ाई को लेकर उसी सत्ता के सामने जाती हैं तो जाहिर सी बात है उसे इलाहाबाद हाई कोर्ट के उक्त जज की मानसिकता की तरह अपने घर-परिवार से लेकर समाज के न जाने कितने लोगों से लड़ना पड़ता है। पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग इतनी मजबूत होती है कि कभी-कभी खुद से भी लड़ना पड़ता है। आखिर उसकी लड़ाई एक ऐसे समाज से है जिसके पास स्त्रियों को लेकर अपराध करने के आधुनिक आधार होते हैं और बच निलकने के सदियों पुराने विकल्प तैयार रखते हैं जहां यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर और हाई कोर्ट का न्यायधीश कुंडली के आधार पर गंभीर अपराध करके बच निकलने का रास्ता तैयार रखते हैं।
जब एक समाज अंधविश्वास के पीछे भागता है और उसका अपना राज्य पुरातनपंथी होता है वहां चमत्कारी धूर्त बाबाओं का महिमांडन किया जाता है तो वहां न्याय का यही स्वरूप होता है। यहां स्त्री, और हाशिये का वर्ग उनके लिए महज एक वस्तु हैं जिसे वे अपनी सुविधानुसार उपयोग करते हैं। यह समाज तो पहले से ही स्त्रीद्वेषी और जातिवादी था लेकिन कुछ दशकों से घोर ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रसित होता जा रहा है जहां स्त्रियों के लिए उनकी दृष्टि निर्मम और पक्षपातपूर्ण है। इलाहाबाद हाई कोर्ट में न्यायधीश का कुंडली जांच कराने का प्रकरण धार्मिक अंधवाद और पितृसत्तात्मक विचारधारा का गहरा गठजोड़ असर है। विद्रूप होने के साथ-साथ यह न्यायिक प्रक्रिया बेहद मूर्खतापूर्ण भी है।
आज ऐसी दलीलें आती हैं कि अगर आप एक मनुष्य होने के लिहाज से इससे ऐतराज करते हैं तो आप ज्योतिष विज्ञान के चमत्कार, अपनी सांस्कृतिक विरासत का लिहाज़ नहीं कर रहे हैं। आखिरी और क्या ही कहा जा सकता है किसी देश के उच्च न्यायालय के ऐसे अन्यायपूर्ण फैसले के लिए, सोशल मीडिया पर दिखा कुछ लोग इस फैसले पर हंस रहे थे। हो सकता है अकस्मात जानने पर किसी पुरुष को सामान्य रूप से हंसी आ सकती है लेकिन हम स्त्रियां क्या करें, ऐसी घटनाओं से हमारी आत्मा लहूलुहान हो जाती है। हालांकि यह कोई पहली घटना नहीं है हमारे लिए। इस पितृसत्तात्मक समाज में हम कितने तरह के शोषण झेलते हैं, कितने तरह भेदभाव को सहन करते हैं यह औरतों का मन जानता है।
अपने लिए भयमुक्त समाज का हम औरतें सपने ही देखती रह जाती हैं और समाज हमारे लिए रोज़ नये-नये भयावह अपराध का अविष्कार करता चला जा रहा है। अगर सच में न्याय प्रणाली अपने ठीक-ठीक स्वरूप में काम करती तो उच्च न्यायालय के उक्त न्यायधीश को इस फैसले को लेकर सजा मिलनी चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। किसी तरह माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः सज्ञान लेकर मामले में हस्तक्षेप किया जो कि सुप्रीम कोर्ट की गरिमा के अनुरूप था लेकिन हम स्त्रियां कहां जाएं जिनके लिए व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक इसी सामंती मन-मिजाज़ के लोग बैठे हैं।