इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ इस फ्रेंडशिप डे को देखें क्वीयर दोस्ती के झरोखे से

इस फ्रेंडशिप डे को देखें क्वीयर दोस्ती के झरोखे से

जब हमें कोई महिला पसंद आती है, हम उसे अभिव्यक्त करने में झिझकते हैं, ख़ासकर तब जब वह दोस्त हो। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि हम अपनी जेंडर आधारित पहचान या सेक्सुअल ओरिएंटेशन को लेकर सहज नहीं हैं या उसे स्वीकार नहीं किया है।

क्वीयर दोस्ती के रंगों के बारे में, उनके मिज़ाज़ के बारे में लिखना इस साल के ‘फ्रेंडशिप डे’ पर मेरा खुद को दिया गया तोहफ़ा होगा। यह तोहफ़ा खुद के लिए इसलिए भी है क्योंकि एक हेट्रोनॉर्मल समाज यानी कि जहां पुरुष शरीर वाले लोग लैंगिक पहचान में पुरुष माने जाएं और उन्हें प्रेम हो स्त्री शरीर से जिसकी लैंगिक पहचान भी स्त्री होने से हो। इस झूठी धारणा में जीनेवाले समाज में बिना जेंडर और सेक्सुअलिटी से जुड़ी जरूरी जानकारी मिले, बिना इनसे जुड़ी महत्वपूर्ण शब्दावली जाने, अपनी एक दोस्त के कारण मैंने पहली बार प्रेम को हेट्रोनॉर्मल दायरों से बाहर महसूस किया था, जाना था।

तब हम दोनों की कंडीशनिंग हमारे आसपास के बाकी लोगों की तरह थी, लेकिन, ‘लव इज़ लव!’ प्यार प्यार होता है।’ ऐसा तब भी होता है जब आपको शब्दावली और थ्योरी पता न हो, क्योंकि क्वीयर दोस्तियां किसी ‘अंग्रेज़ी दुनिया’ से आई ‘अंग्रेज़ी सभ्यता‘ की चीज़ नहीं हैं। इसलिए शायद बिहार के एक छोटे से सीबीएसई स्कूल के हॉस्टल में रहते हुए भी हमारे बीच एक दूसरे को लेकर प्रेम, ईमानदारी और सहजता का वह भाव रहा जिसे हेट्रोनॉर्मल समाज ‘बहनापा’/’सखियों का प्यार’ कहकर कहीं दबा-छिपा देना चाहे। यह कहते हुए इस प्रेम में रोमांस या/और शारीरिक आकर्षण को खारिज़ करने का षड्यंत्र रचा जाता है। इसलिए आइए समझते हैं क्वीयर दोस्ती के स्पेस कैसे-कैसे हो सकते हैं!

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‘फ्रेंड ज़ोन’ जैसा शब्द तो आपने सुना होगा। हिंदी फ़िल्म ‘तनु वेड्स मनु’ में एक डायलॉग एक ऐसी प्रजाति की बात करती है जो ‘कंधा’ है, यानी जब ‘कन्या प्रेम में उदास हो’ तब वे आते हैं उन्हें कंधा देने। ये सारी बातें हेट्रोनॉर्मल समाज की हैं, तो वे ही जाने। क्वीयर स्पेस में दोस्ती इतनी सीमित, संकीर्ण और संकुचित भावना के स्तंभ पर नहीं टिकी होती है।आकृति (बदला हुआ नाम) को लगता है कि प्रेम में उत्सुकता का भाव बनाए रखना उसके लिए क्वीयर प्रेम या क्वीयर दोस्ती की परिभाषा है। आकृति मेरी दोस्त की दोस्त थी जिससे मेरी बात इंस्टाग्राम पर हो जाती थी।

क्वीयर दोस्तियां किसी ‘अंग्रेज़ी दुनिया’ से आई ‘अंग्रेज़ी सभ्यता’ की चीज़ नहीं हैं। इसलिए शायद बिहार के एक छोटे से सीबीएसई स्कूल के हॉस्टल में रहते हुए भी हमारे बीच एक दूसरे को लेकर प्रेम, ईमानदारी और सहजता का वह भाव रहा जिसे हेट्रोनॉर्मल समाज ‘बहनापा’/’सखियों का प्यार’ कहकर कहीं दबा-छिपा देना चाहे।

इस आर्टिकल के लिए मैंने चैट विंडो देखा तो पता चला कि हम 2019, मार्च से एक दूसरे को जान रहे हैं। भले डिजिटली। टेक्स्ट पर हुई हमारे बीच की बातचीत आर्ट, सिनेमा, कुछ अकादमिक थ्योरी की रही है, लेकिन सारे टेक्स्ट्स बड़े इत्मीनान से समय लेकर, बहुत सारी समझ के परतों के साथ लिखे और भेजे गए हैं। एक-दूसरे के काम और समझ को लेकर बढ़ावा देने का भाव रहा है। कई बार अकादमिक बात करते हुए हमने असल जीवन में हमारी निजी जिंदगी उससे कैसे प्रभावित रही है या है, इसके बारे में भी बात कर चुके हैं। अब आकृति के साथ मेरी अपनी जान-पहचान है। उसे ‘दोस्त की दोस्त’ कहना ठीक नहीं लगता है। इस साल वह दिल्ली आई। हम कुछ बार मिले हैं। 

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एक बार क्वीयर दोस्तियों पर हमारी लंबी बातचीत हो रही थी। हमने उस संवाद में समझा कि जब हमें कोई महिला पसंद आती है, हम उसे अभिव्यक्त करने में झिझकते हैं, ख़ासकर तब जब वह दोस्त हो। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि हम अपनी जेंडर आधारित पहचान या सेक्सुअल ओरिएंटेशन को लेकर सहज नहीं हैं या उसने स्वीकार नहीं किया है। बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज ने हमें इसके लिए भावनात्मक रूप से तैयार नहीं किया है। साथ ही हम इस बात से भी डरे रहते हैं कि दोस्ती में दोनों में से किसी भी भावनाओं को ठेस न पहुंचे, दोस्ती न टूटे, कुछ अजीब न हो जाए।

सारे गाने, सारी प्रेम कहानियां, सारे इस्तेहार, प्रेम और परिवार को लेकर बचपन से कामनाएं मन को बेची गईं। जो आसपास देखा और सीखा, सब कुछ यहां फेल कर जाता है। इसलिए प्रेम के इस रास्ते के लिए हमें खुद को तैयार करना पड़ता है। यह आसान नहीं है! लेकिन फिर भी आकृति अपनी इच्छाओं को अपनी सहजता के हिसाब से जाहिर करती है। वह असुविधा पर बात करती है लेकिन वहां मुख्यधारा के सोच की तरह अटकती नहीं है।

हेट्रोनॉर्मल समाज “एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते हैं” से आगे नहीं बढ़ पाया है। क्वीयर दोस्ती का स्पेस कई लोगों के लिए अपने आप को, अपनी भावनाओं को समझने की जगह बन पाती है।

वहीं श्रृंजिनी (बदला हुआ नाम) एक ऐसी दुनिया की कामना करती है जहां उसके सभी दोस्त, ख़ासकर महिलाएं, आपस में एक पॉलीएमरस परिवार की तरह रह पाएं। उनका आपस में जो भी रिश्ता होगा वह उनकी आपसी सहमति पर निर्भर करेगा। यह दोनों जवाब आपस में एकदम अलग हैं। फिर दोस्ती के स्पेस के क्वीयर होने से क्या आख़िर समझें? ‘क्वीयर दोस्ती’ में ‘क्वीयर’ शब्द सेक्सुअलिटी के बारे में न होकर दोस्ती की धारणा, दोस्ती की मूल प्रविर्ती को रेखांकित करता है। लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता शॉन फेय का कहना है, “क्वीयर का मतलब सारे लेबल हटाना और उनकी जगह एक सवाल रख देना है। यह तिरछी नज़र से देखना, मुख्यधारा के समाज और राजनीति को चुनौती देना है।” यानी की क्वीयर रिलेशनशिप या फ्रेंडशिप का अर्थ है उस रिश्ते के बने-बनाए पूर्वाग्रह तले दबे ढांचे से बाहर जो महसूस हो उसे बिना अपराधबोध महसूस करना, स्वीकारना और उस पर बात करना और मिलकर काम करना।

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क्वीयर दोस्ती की परिभाषा सबके लिए अलग-अलग हो सकती है। इस परिभाषा में सबका निजी हिस्सा अपने-अपने अनुभवों और सहजता की यात्रा के साथ बनता-बदलता है। हेट्रोनॉर्मल समाज “एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते हैं” से आगे नहीं बढ़ पाया है। क्वीयर दोस्ती का स्पेस कई लोगों के लिए अपने आप को, अपनी भावनाओं को समझने की जगह बन पाती है। भारत अब भी क्वीयर समुदाय के लिए कितनी सुरक्षित जगह है इसे आप बीते कुछ सालों के आंकड़ों और घटनाओं पर नज़र डालते ही समझ जाएंगे। साल 2019 में चेन्नई में 19 साल के अविन्शु पटेल की मौत आत्महत्या से हुई। कारण, आसपास के लोगों की मानसिकता। अपने आख़री फेसबुक पोस्ट में उसने लिखा, “सभी को पता है मैं एक लड़का हूं। लेकिन जैसे मैं चलता हूं, सोचता हूं, बात करता हूं, लड़की की तरह है….मेरी गलती नहीं है अगर मैं गे पैदा हुआ।”

साल 2018 में धारा 377 के हटा दिए जाने के बाद भी समाज रिश्तों और लोगों के अंदर हेट्रोनॉर्मल सोच और व्यवहार के अलावा कुछ और देखने-समझने और उसके लिए जगह बनाने को तैयार नहीं दिखता है। ऐसे में एक तीसरी दुनिया के देश में जहां कई बार परिवार ही आपकी सेक्सुअलिटी पता चलने पर जान लेने या देने पर उतारू हो जाए वहां रहते हुए क्वीयर दोस्ती के स्पेस राहत लगते हैं। जहां आप इंसान की तरह अपनी अलग-अलग इच्छाओं को लेकर कैसा महसूस करते हैं, या कैसा महसूस करना चाहते हैं, इस पर बात कर सकते हैं, पूछ सकते हैं, जहां तुरंत जवाब खोज लेना एकमात्र लक्ष्य नहीं होता, बल्कि साझा करना होता है। क्वीयर दोस्ती चयनित परिवार का भी रूप ले सकती है। यहां रिश्तों के ढंग और रंग कहीं ज्यादा होते हैं, अलग-अलग होते हैं। 

और हां! मेरी उस दोस्त की शादी हो गई, परिवार और परिस्थितियों के कारण। वह अभी भी बिहार में रहती है। फिलहाल अपने ससुराल में पति के साथ है। लेकिन हम आजकल कभी-कभी (साल में 4-5 बार) फोन पर बात कर लिया करते हैं। वह मुझे बता रही थी कि काम करने के लिए किसी दूसरे शहर जाने की सोच रही है। लेकिन घर की तरफ से बच्चा देने का दबाव भी बना रहता है। “मैंने अपने पति से कहा कि किसी दूसरे शहर गई तो किसी के साथ डेट पर जाऊंगी, घूमूंगी, फिल्में देखूंगी। उन्होंने पूछा किस के साथ? पता नहीं क्यों तुम्हारा नाम दिमाग़ में आया।” एक बार उसने मुझसे कहा था। मुझे मालूम है कि इसकी संभावना कम ही है, लेकिन इस तरह की कल्पना रखते हुए मेरी दोस्त बिना यह शब्द जाने, जाने-अनजाने में हमारे बीच क्वीयर दोस्ती के स्पेस की ‘आत्मा’ को बचाए रखती है।

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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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