बचपन से घर में कल्याण पत्रिका देखी। जब आती तो उत्सुकता होती। साल में एक विशेषांक आता जिसमें बहुत सारे रंगीन चित्र होते थे। हमारे समाज में सबसे बड़ी संख्या सनातनी गांधीवादियों की रही है, उन्हीं में से लगभग एक मेरे नाना भी थे। मैं उन्हीं के पास रही। भला हुआ मुझ पर कि कल्याण के मानसिक कल्याण से बची रह सकी। शुरुआत के दिनों से ही किताबों से लगाव था और पढ़ने को कुछ चाहिए तो कल्याण खूब पढ़ी। हम सुदूर के गांवों में रहने वाले लोग उन भाग्यशाली लोगों में से नहीं थे जिन्हें बचपन में ही साहित्यिक किताबों से भरी लाइब्रेरियां मिल गई हो। इसलिए कल्याण उसी तरह पढ़ी जैसे पलाश पढ़ी, आल्हा उदल पढ़ा, चंपक, नंदन और चाचा चौधरी को पढ़ा। उसी तरह रामचरितमानस और महाभारत भी लेकिन सभी लगभग समय निकालने के गुरेज से। जैसे बाद के कुछ दिनों में रुस्तम सोहराब की कहानियां और जासूसी, थ्रिलर, रुमानी उपन्यास भी पढ़े।
कुछ और कहने से पहले मेरी राय स्पष्ट है कि गीता प्रेस के प्रकाशन शुद्ध रूप से स्त्री और दलित विरोधी रहे हैं। उनका उद्देश्य ब्राह्मणवाद के सामंती रूप की स्थापना करना था। वही उद्देश जो मनुस्मृति का था लेकिन विशाल भारतीय समाज के भीतर घुसकर यह काम अकेले संस्कृत में लिखी हुई मनुस्मृति नहीं कर सकती थी। इसलिए गीता प्रेस ने सरल और बहुत ही गलत हिंदी का सहारा लेकर भारतीय विशेष तौर पर उत्तर भारतीय घरों की मानसिकता में घुसकर अपने काम को अंजाम दिया। उसने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सबसे पहले स्त्री को निशाना बनाया क्योंकि परंपराएं स्त्रियों के द्वारा ही पीढ़ी दर पीढ़ी फैलती-बहती जाती हैं।
जैसा कि मनुस्मृति गीता प्रेस के प्रकाशनों, खासतौर पर व्रत उपवास से संबंधित पुस्तिकाओं और ‘भारतीय स्त्री के लिए शिक्षा’, ‘आदर्श स्त्री’ जैसी पुस्तकों का आधार स्वरूप है। गौर करें मनुस्मृति के चौथे और पांचवें खंड पर जिसमें स्त्री के पूरे जीवन, उसके उठने-बैठने, खाने-पीने, बोलने तक के बारे में निर्देश दिए गए हैं, उसे किसी भी प्रकार के अधिकारों से बाहर रखा गया है और कर्तव्यों की एक लंबी श्रृंखला है जो एक कथा में पूरी नहीं होती तो दूसरी कथा बनाई जाती है।
वहीं आठवें, नौवें और ग्यारहवें खंड में दलितों के लिए भयंकर किस्म की टिप्पणियां और यातनाएं निश्चित की गई हैं। इसलिए दोबारा यह कहना ज़रूरी है कि गीता प्रेस के तमाम प्रकाशन खासतौर पर व्रत कथाएं मनुस्मृति के सिद्धांतों की व्याख्या और उनके व्यावहारिक जीवन में प्रवेश के ज़बरदस्त सफल प्रयास हैं जिन्होंने हिंदू परिवारों की स्त्रियों को मानसिक गुलाम बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई।
जाहिर तौर पर देखा जाए तो इन तमाम प्रकाशनों की रचित कहानियां आज़ाद भारत के लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष, सबको समान अवसर देने वाले संविधान का भी खुला विरोध है। जो अधिकार संविधान ने स्त्री और दलितों को दिए हैं, सनातन धर्म के नाम पर गीता प्रेस ने उन सभी अधिकारों की खुलकर भर्त्सना की है। बाकी धर्म की भी धार्मिक पुस्तकें अलग-अलग तरीकों से यही काम करती हैं। याद करें हिंदू कोड बिल का विरोध करने वाले सबसे अधिक यही मनुवादी सनातनी पंडित ही थे।
गीता प्रेस के प्रकाशनों में से आप कोई भी पुस्तिका उठाकर देख लीजिए, उन मनगढ़ंत कहानियों ने स्त्रियों का जितना शोषण किया है उतना इतिहास के किसी कालखंड में इतने सुनियोजित और सांस्कृतिक ढंग से कभी नहीं हुआ। मैंने खुद अपने आसपास बचपन से देखा और (कुछ दिन तक तो, जब तक निर्णय लेने की क्षमता नहीं आई, शिकार भी हुई) कि स्त्रियों ने इन पुस्तिकाओं में लिखी हुई बातों को गीता, बाइबल, कुरान की तरह बार-बार कोट किया। इतना ही नहीं अभी भी इनके द्वारा नए-नए उपवास तैयार किए जाते हैं और विधिवत उनका एक बाज़ार भी तैयार किया जाता है। स्त्रियां ऐसे किसी भी बाज़ार की सबसे सहज उपभोक्ता होती हैं।
गीता प्रेस की प्रशंसा में लोग कहते हैं कि कितने सस्ते में उन्होंने किताबें उपलब्ध कराईं। जी हां, बेशक 2 रूपये, 3 रुपए और अधिकतम 5 रुपए में मिलने वाली पोथियों ने हिंदू महिलाओं के लिए सप्ताह के आठों दिन और पखवाड़े के पूरे पन्द्रह दिन के लिए व्रत तैयार कर रखे हैं। रविवार से लेकर शनिवार तक और एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक। ये पोथियां केवल व्रतों को ही नहीं स्थापित करती बल्कि उन्हें भीतर से इतना डराती रही कि उत्तर भारत की कोई भी स्त्री व्रत किए बिना रह नहीं सकती। दिनों और पखवाड़े के अतिरिक्त सौभाग्य को बनाए रखने के लिए, संतान यानी पुत्र की लंबी उम्र के लिए भी अनेक व्रत जैसे- हरितालिका, करवाचौथ, संतान सप्तमी, हलछठ, अहोई अष्टमी, देवउठनी एकादशी, भीष्मशयनी जैसे बने हैं।
आलम यह कि बीमार, जर्जर बूढ़ी, गर्भवती होने पर और विधवा होने के बाद भी स्त्रियां सौभाग्य को बनाए रखने वाले व्रत अगले जन्म के डर से करती रहती हैं। इन कथाओं में यह भी बताया कि अगर कोई स्त्री इन व्रतों को नहीं करती है और उस दिन अन्न खा लेती है तो उसके साथ क्या-क्या हो सकता है। इस जन्म में ही नहीं अगले जन्म का भी पूरा ब्यौरा है उसमें कि स्त्री व्रत नहीं करेगी तो अगले जन्म में शूद्र होगी, चंडालिनी होगी। मनुस्मृति के शब्दों में तथाकथित शुद्र स्त्री को भी अगले जन्म का सुनहरा सपना दिखाया गया ताकि वह भी इसी सांचे में रची-बसी रहे। यह गीता प्रेस के प्रकाशनों या योजनाओं का मनुस्मृति के आगे का विस्तार था जिसमें हिंदुत्व बिखरकर कहीं और न जा सके इसके बारे में भी पूरी तरह विचार कर काम किया गया।
उत्तर भारत में किए जाने वाला ‘ऋषि पंचमी’ का व्रत जिसका इजाद खालिस गीता प्रेस के प्रकाशनों ने किया है, उसे मैं उनका सबसे निकृष्ट और स्त्री विरोधी काम मानती हूं। बुंदेलखंड में तो इस व्रत को पीरियड्स शुरू होने के बाद से ही छोटी-छोटी बच्चियां भी करने लगती हैं। इस व्रत कथा में तमाम वैज्ञानिक, शारीरिक, प्राकृतिक अवधारणाओं को पांच रुपए में निपटा दिया गया है। ऐसी षड्यंत्रकारी योजना का असर ही था कि समाज में गहरे धंसी सामाजिक, सांस्कृतिक अवधारणाओं की मानसिक शिकार पढ़ी-लिखी, सक्षम स्त्रियां भी हैं।
गिनती की कुछ स्त्रियों को छोड़ दिया जाए तो अभी भी स्त्रियां पीरियड्स के दिनों में पूजा-पाठ नहीं करतीं। कुछ प्रतिशत रसोई का काम नहीं करती और यह सब वे आराम करने के लिए नहीं बल्कि धर्म की बनाई संहिताओं से डरकर करती हैं। इस व्रत का लब्बोलुआब ही है कि माहवारी के दिनों में जिसके शुद्धता के सिद्धांत मनुस्मृति के पांचवें खंड में बताए गए हैं, अगर उस तरह से किसी स्त्री ने अपने जीवन में शुद्धता कायम नहीं की है तो उसे घोर पाप लगता है। उसे ही नहीं उसके घर के बाकी लोगों को भी क्योंकि पीरियड्स के दिनों में किसी न किसी प्रकार से उसने उन लोगों को छुआ होगा और उसके पाप कर्म के प्रकोप में बाकी लोग भी आए। ये बाकी लोग पुरुष होते हैं क्योंकि स्त्रियां तो खुद पापकर्म की खान होती है। तो कथित तौर पर इस ‘पाप कर्म’ से मुक्ति के लिए मनु के मानस पुत्र हनुमान प्रसाद पोद्दार ने ऋषि पंचमी के व्रत का ईजाद किया। तमाम व्रत कथाओं की तरह ही इस व्रत के बारे में भी पांडव, द्रौपदी, सुभद्रा और कृष्ण का रूपक तैयार किया गया है।
तमाम व्रतों को करने वाली मिथक कथाओं की जानी-मानी स्त्रियां होती हैं और वे सहज ही सामान्य स्त्रियों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। ये सुभद्रा, द्रौपदी, उत्तरा, अनुसूया अरुंधति और उन सब की वकालत करती हुई पार्वती के शिव के साथ संवाद के नाम पर रोचक कहानियां गीता प्रेस के लेखकों ने गढ़ी हैं। जिसके लिए उसकी प्रशंसा की जा सकती है लेकिन बहुत ही खराब हिंदी अनुवाद में। संस्कृत के श्लोकों का हिंदी अनुवाद और वाक्य रचना भी बिल्कुल सही नहीं है। कई बार अपने घर के स्त्रियों को कथा सुनाते हुए या सुनते हुए मैं अक्सर अटक जाती थी। मेरा ध्यान कथा की भाषा सुधारने में लग जाता था।
बात यहां पर ही खत्म नहीं होती, जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि उन्होंने केवल पुस्तिकाएं नहीं लिखीं, व्रत ही नहीं तैयार किए बल्कि उसके साथ भय का भी आविष्कार किया जैसे कि यदि कोई स्त्री यह व्रत नहीं करती तो अगले जन्म में वह कुतिया बनेगी, सुअरी बनेगी, नागिन बनेगी। सभी कथाओं की स्त्रियों को व्रत की तिथियों के दिन भोजन-पानी करने को लेकर इतना डराया गया है कि वे अपने संचित भय का संचार बड़ी कठोरता के साथ दूसरी पीढ़ी में करती हैं। इन पुस्तिकाओं में चांडाल, चंडालिनी, शूद्र, अछूत जैसे असंवैधानिक शब्दों का बार-बार प्रयोग किया जाता रहा है। यहां हर कथा और पुस्तक में सती की महिमा का भी गुणगान बराबर किया गया है।
हाल यह है कि आज भी पुरुष इन व्रतों के मोहजाल से पूरी तरह दूर हैं और स्त्रियां, उत्तर भारत की खास तौरपर इनसे परे रह ही नहीं सकतीं। उनका तमाम ज्ञान एक तरफ और गीताप्रेस जैसे प्रकाशनों के द्वारा परिवारों में बैठाया गया ज्ञान एक तरफ। मैंने अपनी मां, मौसियों, चाचियों को और तमाम आसपास की स्त्रियों को व्रतों से बाहर निकालने की असफल कोशिश की, ऋषि पंचमी की भी व्याख्या करके बताई लेकिन उन सब ने मुझे कहा- “तुम चुप रहो ….हमें अपना काम करने दो।”
तमाम पक्षकार लोगों के तर्क मेरे व्यावहारिक अनुभव के बाद पल्ले नहीं पड़ते कि इस तरह के अवैज्ञानिक, अंधविश्वासों, कुरीतियों को रोपकर कोई भी प्रकाशन धर्म को मजबूत कैसे बना सकता है? क्या सनातन या हिंदू धर्म केवल ढकोसलों के बल पर जिंदा रह सकता है? वेदों का क्रमिक ज्ञान और उपनिषदों के भीतर का तात्विक विमर्श, विश्लेषण धर्म के लिए काफी नहीं है? उनकी टीकाएं जो नास्तिकता को भी धर्म के भीतर की परिधि में ही रखती हैं, क्यों नहीं उन्हें समाज के भीतर सरल भाषा में स्थापित करने की कोशिश की गई?
यूं कहा जाए अगर कि गीता प्रेस का उद्देश्य हिंदू समाज को तारक और धार्मिक बनाना नहीं था बल्कि वह उन्हें घोर परंपरावादी, अंधविश्वासी, जड़ और स्त्रियों को शोषित बनाए रखने की ही तमाम कार्यों को अंजाम देते रहे। बेशक गीता प्रेस ने हिंदू धर्म को ज्यादा अंधविश्वासी, मानव विरोधी बनाया। उसे निरंतर आगे बढ़ते हुए ज्ञान से दूर रखा, उसका विरोध करना सिखाया। साथ ही कल्याण पत्रिका ने गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार और उनके बाद के लोगों को अलौकिक भी साबित करने की कोशिश की कि कैसे उन्होंने लोगों की मुश्किलें चुटकी में हल कर दीं, बरसों से परेशान करते प्रेत को भगा दिया आदि।
एक महत्वपूर्ण बात और है कि श्रीमद्भागवत गीता, रामचरितमानस, महाभारत और सभी पुराणों के साथ ही वाल्मीकि द्वारा लिखा गया रामायण भी गीता प्रेस ने प्रकाशित किया। खासतौर पर मैं बाल्मीकि रामायण का जिक्र करना चाहूंगी। इनका अध्ययन करने पर आप जान सकेंगे कि पहले संस्करण और आज के मौजूदा संस्करण में बहुत अंतर है। मैं वाल्मीकि रामायण के अध्ययन के बाद यह बात कह पा रही हूं कि कैसे उसमें संदर्भों को बदला गया है और आज के राजनीतिक स्वरूप के अनुसार काट-छांट की गई है।
बेशक मौजूदा सरकार अमुक कार्यों के लिए गीता प्रेस को सम्मानित कर सकती है। अन्य संस्थाओं को भी कर सकती है। ऐसे किन्हीं भी स्त्री-दलित विरोधी, अल्पसंख्यक विरोधी व्यक्तियों को सम्मानित कर सकती है। लेकिन यह बात ज्यादा अखरती है जब कुछ बौद्धिक चिंतकजन, प्रगतिशील लेखक ऐसे विषवृक्ष का रोपण करने वाले संस्थान के पक्ष में अभियान चलाते हैं। वे गीता प्रेस का हिंदू धर्म के उत्थान में भूमिका बतलाते हैं। तब इन तमाम बिंदुओं को सामने रखते हुए अपनी बात कहना जरूरी होता है कि हमारी राय अलग है।