रूपम मिश्र समकालीन हिंदी कविता की सशक्त स्वर हैं। पिछले कई वर्षों से वह पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कार्य कर रही हैं।उनका पहला काव्य संग्रह ‘एक जीवन अलग से’ लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। उनके काव्य संसार को किताब के इस शीर्षक में बांधा जा सकता है। उनकी रचनात्मकता मनुष्यता और प्रेम बचाने का प्रयास है। अपनी कविताओं में वह एक ऐसा जीवन तलाश रही हैं जहां प्रेम करने की फ़ुर्सत हो, फूलों के खिलने को देखा जा सके, पंछियों का कलरव सुना जा सके। उनके काव्य विशेषता को रेखांकित करते हुए कवि देवी प्रसाद मिश्र लिखते हैं, “रूपम मिश्र की कविता का वैशिष्ट्य यह है कि वह किसी और की तरह नहीं लिखतीं। हम सभी जानते हैं कि साधारण-सी लगने वाली इस बात की क्या असाधारणता है।”
रूपम की कविताएं एक ‘स्पेस’ खोज रही हैं। ये तलाश स्त्रियों के प्रतिनिधित्व की है। कितनी जगहों पर जहां स्त्रियाँ हो सकती थीं, उन्हें नहीं रहने दिया गया। उनका दर्द भी उनकी अपनी अभिव्यक्ति नहीं पा सका है। एक कविता में वह लिखती हैं, “अभी हमारी बहुत-सी जगहें हैं जहां हम नहीं हैं / जहां यातना और दुःख अपने मुँहदुबरई में सुख कहे जाते हैं/अभी दिन के उजास से आँखें अमिलाती हैं /अभी अँजोरिया घाम जैसी लगती है।”
सदियों तक स्त्रियों और दलितों का शोषण करने वाले पुरुषों और सवर्णों ने उनके विमर्शों तक पर कब्जा कर लिया। यानी शोषक तय करेंगे कि शोषितों का दर्द कितना है। कवि इस ‘कब्जे’ से आक्रोशित है। “मुझे तुम न समझाओ अपनी जाति को चीन्हता श्रीमान / बात हमारी है हमें भी कहने दो/ ये जो कूद-कूद कर अपनी सहूलियत से मर्दवाद का बहकाऊ नारा लगाते हो/उसे अपने पास ही रखो तुम।”
महानगरों की दुनिया में हम सब विस्थापित हैं। मजदूरी करने से लेकर बड़ी कंपनियों में नौकरी करने वाले लोग अपने घरों से दूर हुए हैं। ये सब अपनी जड़ों से दूर हुए हैं। एक विस्थापन और होता है जिसका ज़िक्र दुनिया की किसी किताब में नहीं मिलता है। वह शादी को स्त्रियों के लिए विस्थापन कहती हैं। घर के केंद्र में पुरुष हैं। स्त्रियों को तो किसी और घर जाना है। क्या उस घर पर उनका कोई हक नहीं जहां बचपन बीता है? एक कविता में उनकी यह व्यथा छलक उठती है, “कुछ विस्थापनों के दर्द से मानवाधिकार भी रोता है /तो कुछ विस्थापन ऐसे भी हुए कि माँ जायों ने राहत की साँस ली/पिता के सिर से बोझ उतर गया /माँ ने सगर्व कहा अपने राजे-सुहागे गईं/ खैर बिन ताज और राज के कैसा राज्याधिकार ये ठीक-ठीक माँ को भी नहीं पता।”
हिंदी के पुराने उपन्यास उठाकर देखिये तो प्रेम के लिए ‘फँसना’ शब्द मिलता है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ में प्रसंग आता है कि दातादीन का लड़का मातादीन से फँसा हुआ था। राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ में तो कितनी ही बार ये ‘फँसना’ आता है। शबनम कहती है कि आज स्कूल में मेरी फ्रेंड कह रही थी कि अम्मी टोपी से फँस गई हैं। मसला सिर्फ़ उपन्यासों का नहीं है। ये समाज में बहुत प्रचलित पदावली है। इस पदावली को वह स्वीकार नहीं कर पाती हैं। एक कविता में लिखती हैं, “मैं आज तक समझ नहीं पाई भाषा का ये व्याकरण कि/ एक ही संवेदना में वो कैसे प्रेम में था और मैं कैसे फँसी थी।”
लड़कियों के लिए तो लगभग गाली की तरह इस्तेमाल होता है ये शब्द। आम बोलचाल में लोग कहते रहते हैं कि फलाने की लड़की तो किसी से फँसी हुई है। बाकी का तो छोड़ो उसका तथाकथित प्रेमी भी ऐसी भाषा का प्रयोग करता है। एक दूसरी कविता में लिखती हैं,” उसके गाँव-जवार और मुहल्ले का /असाध्य और बहुछूत शब्द था ये/कुछ तथाकथित प्रेमियों ने अपने जैसे /धूर्त दोस्तों में बैठकर कहा बेहयाई से/कि फला लड़की फँसी हुई है मुझसे।”
रूपम की कविता में पिता बहुत बार आते हैं। वह उन्हें कटघरे में खड़ा करती हैं। वहां पिता सिर्फ़ पिता नहीं बल्कि एक पुरुष भी हैं। उन्होंने इस पहचान को हटाकर पिता को नहीं समझा। एक कविता में वह यह तक कहती हैं कि पिता क्या मैं तुम्हें याद हूं! कवि के हिसाब से पिता भी पुरुषों की प्रजाति से हैं और उन्हें मालूम है कि स्त्रियों का शोषण कैसे किया जाता है। वह कहती हैं, “कम से कम अपनी प्रजाति को ठीक से पहचानना /हर पिता को सिखा देना चाहिए अपनी बच्चियों को।”
सदियों से स्त्रियों के सामने पहचान का संकट है। वह पिता की पुत्री है, भाई की बहन है, पति की पत्नी है, ससुर की बहू है, बेटे की माँ है। लेकिन उसका अपना कोई स्वतंत्र वजूद ही नहीं है। इस वजूद को इस हद तक मिटा दिया गया है कि आज भी गाँव में लोग स्त्रियों का नाम नहीं जानते हैं। उन्हें कभी नाम से बुलाया ही नहीं जाता है। एक कविता में वह कहती हैं कि कोई भैया के सखा हैं जो उनकी कविता पढ़कर अभिभूत हैं। एक दिन संयोग से मिलने आये। लेकिन पहचान नहीं पा रहे हैं। जाते-जाते पूछ रहे हैं ‘वे कहां हैं जो कविता लिखती हैं।’ कवि इस विडंबना को बखूबी दर्शाती हैं। एक दूसरी कविता में विद्योत्तमा शुक्ला नाम की चरित्र उभरकर आती हैं। वह प्रतीक हैं इस विद्रोह का कि मेरा भी एक नाम है। मेरी भी एक पहचान है। इसको रेखांकित करते हुए लिखती हैं, “कोई घूर कर चकबक कहेगा ये शुकुल की बहू है तो तुम हँसकर/ साथी का हाथ चूम लेना और कहना मेरा नाम विद्योत्तमा शुक्ला है।”
स्त्री और पुरुष के बीच अंतर इस हद तक है कि उनके सोने और जागने तक का समय अलग है। स्त्रियाँ, पुरुषों से पहले जगती हैं और सबसे आखिर में सोती हैं। उनके पास ख़ुद के लिए न तो समय है और न स्पेस। एक कविता में इस चीज़ का ज़िक्र करते हुए वह कहती हैं, “बेटी माँ से पूछती है माँ तुम्हें मेरी याद कब आती है / माँ ने करुण-गर्व से कहा जब आधी रात को तुम्हारे पिता की टहल से निवृत्त होती हूं /तब तुम्हारी याद आती है बेटी!”
किसी भी भाषा की गालियां स्त्रियों की देह को संबोधित करते हुए है। एक ही गाली जब कोई पुरुष देता है और जब कोई स्त्री देती है तो उसमें फ़र्क़ है। स्त्रियों को कितने अवसर मिले हैं जहां वे ख़ुद को अभिव्यक्त कर सकती हैं। ज्यादातर शादी-ब्याह के अवसर पर लोकगीतों के माध्यम से वे ख़ुद को व्यक्त कर पाती हैं। एक कविता में इस बात को रखते हुए वह कहती हैं, “जब पहले कभी किसी काज-परोजन में /इनकी भद्दी गालियां और मजाक सुनती तो चिढ़ती/लगता कि किस दुनिया से आई हैं ये/अब जाना कि इनके दुखों को कहने की कोई जगह नहीं थी।”
रूपम अपने सवर्ण होने के प्रिविलेज यानी विशेषाधिकार को स्वीकारती हैं। ‘शर्म’ शीर्षक से लिखी कविता में वह कहती हैं,” शर्म आती है मुझे ख़ुद के उद्धारक कुल में पैदा होने पर।” वह बार-बार जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव पर सवाल खड़ा करती हैं। प्रधान पति की अवधारणा पर सवाल खड़े करती हैं। कैसे स्त्रियों को पढ़ने से वंचित रखा गया।
स्त्रियों की उन्नति पुरुषों जैसा होने में नहीं है। स्त्री अपनी तरह रहकर ही सशक्त हो सकती है। करुणा और कोमलता उसका स्वभाव है। कोमल होना कमजोर होना नहीं है। वह समाज की रूढ़िवादिता को रेखांकित करती हैं जहां ‘कोमलता को मेहरीपन कह के मजाक बनाया’ जाता है। आगे वह कहती हैं कि इस दुनिया को स्त्री की करुणा ही बचा सकती है। “मानव जाति के आधे हिस्सेदार हम/जिनके आँचल में रहना तुमने कायरता का चिर प्रतीक कहा/अब दिशाहारा समय कुपथ पर है/संसार को विनाश से बचाये रखने के लिए /उनसे थोड़ी करुणा उधार माँग लो और अपने बहके समय में बाँट लो।”
उनकी कविताओं में प्रेम बार-बार आता है। वह प्रेम की सत्ता पर सवाल खड़ा करती हैं। सबसे ज्यादा शोषण प्रेम के नाम पर होते हैं। प्रेम के नाम पर सबसे ज्यादा झूठ बोले गए। प्रेम के नाम ही नफ़रत ही नींव रखी गई। एक कविता में कहती हैं,” तुमने जब भी कहा बहुत प्रेम करता हूं तुमसे/मन पाथर हो जाता है/ ये आखर इतना जुठारा गया है कि आत्मा चखने से करमराती है।” लेकिन वह उम्मीद नहीं खोती हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया में कुछ अच्छा होगा तो प्रेम की बदौलत ही होगा। प्रेम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने के बाद वह दूसरी कविता में कहती हैं, ‘मैं तुम्हें सोचकर उम्र गुजार सकती हूं।’
रूपम की भाषा बहुत सधी हुई है। लोकगीतों का प्रयोग करके वह उसे और प्रमाणिक बनाती हैं। अवधी का इस्तेमाल बराबर उनकी कविताओं में मिलता रहता है। उनकी भाषा की सबसे ख़ासियत है वह जिस तरह से अपने बिंब गढ़ती हैं। वह इतने प्राकृतिक होते हैं कि आँखों के आगे तस्वीर बन जाती है। बानगी के लिए ये बिंब देखिए, “हम बाँस की तरह रोज़ बढ़ जाते/ ककड़ियों की तरह सबकी निगाह में आ जाते।” यह संग्रह आपको दुनिया भर के शोषणों से सवाल करता हुआ घर की चौखट तक पहुँचा देगा जहां सबसे पहले शोषण की दास्तान लिखी जाती है। यह संग्रह अनुभवों का अमूल्य दस्तावेज है। इसे पढ़ा जाना चाहिए।