संस्कृतिकिताबें हाऊस हसबैंड की डायरी: स्टीरियोटाइप तोड़ती एक प्रेम कहानी

हाऊस हसबैंड की डायरी: स्टीरियोटाइप तोड़ती एक प्रेम कहानी

असल में यह कहानी सिर्फ एक प्रेमी जोड़े भर की नहीं है। यह उन तमाम स्टीरियोटाइप्स को भी तोड़ती हैं जो जेंडर के बीच एक लंबे अरसे से दीवार बनकर खड़े हैं। यह डायरी समाज द्वारा महिला और पुरुषों के लिए तय कर दिए गए नियम कायदों पर सवाल खड़ा करती है।

‘हाऊस हसबैंड की डायरी’ लेखक जे सुशील के जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव हैं। जे एक पत्रकार और पेंटर हैं। यह उपन्यास एक शादीशुदा जोड़े के अमेरिका प्रवास के जीवन पर आधारित है। जे की पार्टनर मी को अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में ऑर्ट में पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप मिलती है और वह मी पर डिपेंडेंट हैं। इस दौरान जे हाउस हसबैंड बनकर बच्चा पालते हैं और मी यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करती हैं। असल में यह कहानी सिर्फ एक प्रेमी जोड़े भर की नहीं है। यह उन तमाम स्टीरियोटाइप्स को भी तोड़ती हैं जो जेंडर के बीच एक लंबे अरसे से दीवार बनकर खड़े हैं। यह डायरी समाज द्वारा महिला और पुरुषों के लिए तय कर दिए गए नियम कायदों पर सवाल खड़ा करती है। जेंडर के आधार पर बनाई भूमिकाओं को किस तरह तरह से तोड़ा जा सकता है उनको दर्शाती है। 

इस डायरी में दो प्रेमियों का संघर्ष है, दोनों जेएनयू से पढ़ें हैं। देशभर की दीवारों को रंगना उन्हें पसंद है इसलिए फ्री टाइम में पेंटिंग करते हैं। आर्टवर्क में दोनों की गहन रुचि है। ये कहानी बदलते समय के साथ लिए गए उन फैसलों और बदलावों की है जिसकी जरूरत आज नहीं तो कल होनी ही थी। यह उन अनुभवों का डॉक्यूमेंट है जब हम एक महिला से थोड़ा पुरुष और एक पुरुष से थोड़ी महिला हो जाना चाहते हैं। जेंडर गैप की दीवार पर पांव रख इसे लांघने की दिशा में यह किताब आगे खड़ी नज़र आती है। इसे पढ़ने के बाद हमारे अंदर कुछ उधेड़ बुन चलती रहती है, जैसे कुछ बनता टूटता हो। इस तरह से यह 52 एपिसोड में लिखी किताब लगातार बांधे रखती है और इस यात्रा के अगले पहलू जानने के लिए उत्सुकता बनाए रखती है।

मी अमेरिका आने से पहले ही प्रेग्नेंट है। जे इसका जिक्र करते हुए लिखते है कि हम प्रेग्नेंट है। यह कितना कमाल का विचार है। यह समझना कि प्रेग्नेंट दोनों ही हैं। यह बोलते हुए एक जिम्मेदारी की समझ बनती है। पार्टनर का विश्वास भी मजबूत होता है।

जे और मी कई बार अमेरिका की यूनिवर्सिटी में स्कॉलरशिप का फॉर्म भर चुके हैं। हर बार निराशा ही हाथ लगती है। इस बार उधर से एक मेल आया है जिसमें मी को अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी स्कॉलरशिप के साथ पढ़ाई के लिए न्योता देती है। दोनों नए देश के नए शहर में पहुंचते हैं। यहां की भाषा, पहनावा, कल्चर, खानपान, रहन सहन और लोक व्यवहार में ढलते हैं। कई सारी चीजें समझ आती हैं जो एक देश को दूसरे से अलग बनाती है। वहां के समाज के बारे में हर पल नई जानकारियां मिलती है और चुनौतियां शुरू होती है। जैसे अमेरिका जैसे देश में इंटरनेट ऑक्सीजन लेने जितना जरूरी है। अनजान देश के अजनबी शहर में ये तक पता नहीं होता कि सब्जी के सभी मसाले कहां से मिलेंगे, ठीक रेट में कपड़े कहां से ले सकते हैं और घर की ज़रूरत की चीजों के लिए कितनी दूर जाना पड़ेगा। यहां हर काम में बिल्कुल नयापन लगता है। 

मी के एडमिशन के बाद अब जे के पास समय ही समय होता है। वह घर का सारा काम करता है। ब्रेकफास्ट बनाता है। घर की सफाई करता है, बर्तन साफ करता है। फ्री टाइम में ऑफिस के दोस्तों से बतिया लेता है। खूब टीवी देखता है। चाय के लिए मी का इंतजार करता है। आसपास जाकर लोगों से बातचीत करने की कोशिश करता है। दूसरे देश में लोगों से जान-पहचान बनाना बड़ा मुश्किल काम होता है। 

मी अमेरिका आने से पहले ही प्रेग्नेंट है। जे इसका जिक्र करते हुए लिखते है कि हम प्रेग्नेंट है। यह कितना कमाल का विचार है। यह समझना कि प्रेग्नेंट दोनों ही हैं। यह बोलते हुए एक जिम्मेदारी की समझ बनती है। पार्टनर का विश्वास भी मजबूत होता है। साथ ही यह बोलते हुए सबसे पहले पितृसत्ता के बनाए उन नियमों को गलत साबित किया जाता है जहां बच्चा पालना केवल एक माँ की जिम्मेदारी है। बच्चे का ख्याल केवल माँ को रखना होता है और केवल वही रख सकती है। दोनों ही प्रेगनेंसी पीरियड का बारीकी से ध्यान रखते हैं। 

यह उन अनुभवों का डॉक्यूमेंट है जब हम एक महिला से थोड़ा पुरुष और एक पुरुष से थोड़ी महिला हो जाना चाहते हैं। जेंडर गैप की दीवार पर पांव रख इसे लांघने की दिशा में यह किताब आगे खड़ी नज़र आती है।

अपनी डायरी में जे ने अमेरिका की स्वास्थ्य सुविधाओं पर विस्तार से लिखा है। साथ ही गर्भवती महिला को लेकर अमेरिकी समाज में किस तरह की सोच है। वह बताते है कि जब दोनों रेगुलर चेकअप के लिए अस्पताल गए तो सारे सवाल जवाब, सलाह मशविरा मी के साथ किए गए। उन्हें समझाया गया कि किस सिचुएशन में आपको क्या करना है। कब कौन सी दवाई लेनी है। जैसे वहां मेरा होना या न होना बराबर ही था। अगर महिला अकेली भी अस्पताल जाती है तो भी कोई समस्या नहीं है। 

वहीं हमारे देश में अस्पतालों का सिस्टम कुछ उल्टा ही है। तकलीफ अगर महिला को ही है तो पूछेंगे कि आपके साथ पुरुष कौन आया हुआ है। उन्हें समझाएंगे कि ये दवाइयां देनी है और इस तरह से ख्याल रखना है। सीधे शब्दों में यह डिपेंड करने का मामला है। वहीं दूसरी ओर जे डिलीवरी के समय का जिक्र करते हुए लिखते है कि अमेरिका में एक प्रेग्नेंट महिला को सबसे पहले भावनात्मक रूप से तैयार किया जाता है। इसके लिए स्पेशल अटेंडेंट रखी हुई है। जो उन्हें हौसला देती हैं। वहीं हमारे यहां प्रेग्नेंट के ज्यादा शोर करने पर उन्हें थप्पड़ मारे जाते हैं। यही हमारा हेल्थ सिस्टम है। 

डिलीवरी के बाद जे मुख्य तौर पर माँ और बच्चे दोनों की देखभाल करता है। आमतौर पर बच्चे के जन्म के बाद महिला का भी बारीकी से ख्याल रखना होता है। भारतीय समाज में ऐसे में घर की कोई बड़ी महिला करीब एक माह तक उठाने, बैठाने से लेकर हर काम में दोनों का ध्यान रखती हैं। अब यह काम जे के जिम्मे था। उसे पूर्ण रूप से बच्चे और मी का ध्यान ही नहीं रखना था बल्कि साथ में घर का सारा काम भी करना होता था। यहां से कुछ उलझने भी शुरू होती है क्योंकि विशेषतौर पर जब कोई पुरुष ऐसी जिम्मेदारी पहली बार उठा रहा हो। जिसे ये नहीं पता कि जच्चा-बच्चा को फिलहाल क्या खिलाना सही रहेगा तो यह और विकट हो जाता है। बच्चा अगर दूध पीने के बाद डकार न ले तो दूध वापस बाहर आ जाता है। क्योंकि पुरुषों के जिम्मे ये काम नहीं होते है इस वजह से भी उनके लिए ये अनुभव नए होते हैं।

अपनी डायरी में जे ने अमेरिका की स्वास्थ्य सुविधाओं पर विस्तार से लिखा है। साथ ही गर्भवती महिला को लेकर अमेरिकी समाज में किस तरह की सोच है। वह बताते है कि जब दोनों रेगुलर चेकअप के लिए अस्पताल गए तो सारे सवाल जवाब, सलाह मशविरा मी के साथ किए गए।

वहीं बच्चे को दूध पिलाने के ठीक बाद मां अगर जूस या पानी न पिएं तो उन्हें चक्कर आ जाते हैं क्योंकि यह सीधे-सीधे एनर्जी निकलने का मामला है।  इस तरह की बातें पुरुषों को कब पता होती हैं। इस यात्रा के दौरान जे ने यह सब अनुभव किया। इसके साथ ही बहुत कुछ अन्य बनते देखा। मी का ढलता शरीर, झड़ते बाल, मूड स्विंग और और एक में से दो होते जन। इन सबके बीच वह खुद में उदास, हताश, निराश भी जरूर हुआ लेकिन हिम्मत नहीं हारी। क्योंकि यह यात्रा महिला और पुरुष से आगे एक पार्टनर होने की है।

किताब हाऊस हसबैंड की डायरी डिजिटल प्लेटफार्म नोशन प्रेस पर उपलब्ध है जहां निशुल्क पढ़ी जा सकती है। पुरुष ऑफिस जाकर नौकरी करे और महिलाएं घर में रहकर चूल्हा चौका करें, इस तरह की स्टेरियोटाइप्स को तोड़ती यह कहानी हम सबकी सांझी होनी चाहिए। यह उपन्यास लेखक के गृहस्थ जीवन के निजी संघर्षों और आत्मविश्लेषण को दर्ज करते हुए जेंडर की बनाई बाइनरी से इतर स्थिति को दिखाने की कोशिश करती है। 


Comments:

  1. supriyatripathi8528 says:

    🤘

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