बिहार के गया में एक गांव है गेहलौर, जिसका नाम अब दशरथ नगर है। 1960 के दशक में इस गांव में सड़क, अस्पताल, बिजली और स्कूल जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। लोगों को दैनिक जरूरतों के सामान के लिए पास के एक छोटे से कस्बे वजीरगंज जाना पड़ता था। यहां तक की इस गांव में जाने के लिए पहाड़ को चढ़कर पार करना पड़ता था या फिर घूम कर जाना पड़ता था ये दोनों ही स्थितियां काफी मुश्किल भरी थी। असुविधाओं के बीच ही गाँव के दशरथ मांझी भी जी रहे थे लेकिन एक घटना के बाद उनके जीवन का मकसद ही गांव को सड़क से जोड़ने तक का बन गया।
दशरथ मांझी ने सोचा ही नहीं बल्कि करके दिखाया। उन्होंने तय किया कि अगर सत्ता-प्रशासन कुछ नहीं कर सकती तो वह खुद करेंगे। असुविधाओं को दूर करने के लिए उन्होंने पहाड़ को सालों-साल खोद कर सड़क बना डाली ताकि लोगों को समय पर इलाज मिल जाए। मांझी के इसी जुनून ने यह कर दिखाया और उन्होंने गांव के लोगों की बरसों से चली आ रही परेशानियों का हल कर दिया। दशरक्ष मांझी को ‘माउंटेन मैन’ के नाम से भी जाना जाता हैं।
दशरथ मांझी का जन्म एक मुसहर परिवार में हुआ था। देश आजाद जरूर हो गया था लेकिन जातिवादी व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी हुई थी। इस गांव के दलित और अन्य जाति के लोग पूरी तरह तथाकथित ऊंची जाति पर निर्भर थे। मूसहर समुदाय के लोगों को अपना पेट भरने के लिए चूहों को मारकर खाते हैं यही उनके जीवन यापन का साधन था। बुनियादी सुविधाओं पानी, बिजली, शिक्षा, चिकित्सा से उन्हें दूर रखा जाता था। असुविधाओं के बीच बड़े होते दशरथ ने युवा उम्र में अपना घर छोड़कर धनबाद में कोयला खदानों में काम करने चले गए थे। कुछ समय बाद वह घर लौटे थे।
घर वापस आने के बाद कम उम्र में ही उनका विवाह फाल्गुनी देवी से हुआ था। दशरथ को अपनी पत्नी से बेइंतहा लगाव था। गांव लौटकर मांझी पहाड़ के दूसरी ओर काम करने लगे थे। एक दिन पहाड़ के दूसरे छोर पर काम कर रहे दशरथ मांझी के लिए खाना ले जाते समय उनकी गर्भवती पत्नी का पहाड़ की चढ़ाई करते समय पांव फिसल गया जिसकी वजह से वह पहाड़ के दर्रे में जा गिरी। वह बुरी तरह घायल हो गई। गांव में अस्पताल नहीं था और गांव से बाहर जाने के लिए कोई सड़क नहीं थी। दूसरे कस्बे या गांव पहाड़ चढ़कर ही जाया जा सकता था। समय पर उचित इलाज और दवाई न मिल पाने की वजह से उनकी मौत हो गई। इस घटना का दशरथ मांझी के दिलों-दिमाग पर गहरा असर पड़ा। वह सदमे में डूब गया।
पहाड़ खोदकर सड़क बनाने का लिया फैसला
एक दिन मांझी ने ठान लिया कि वह इस पहाड़ को काटकर बीच से रास्ता बना देगा जिससे दोबारा कोई और ऐसा कुछ न सहे जैसा उन्होंने सहा है। मांझी ने गांव को कस्बे से जोड़ने के लिए पहाड़ खोदकर सड़क बनाने का फैसला किया। उनहोंने अपनी बकरी बेचकर हथौड़ा खरीदा और पहाड़ को तोड़ना शुरु कर दिया। जब उन्होंने यह काम शुरू किया था तो लोगों ने उनकी मजाक लेनी शुरू कर दी थी। लोग उन्हें मानसिक तौर पर बीमार कहने लगे थे और समझाया कि ऐसा करना असंभव है। लेकिन मांझी ने हार नहीं मानी और वह लगातार पहाड़ तोड़ते रहे।
आखिरकार 22 वर्ष के अभूतपूर्व परिश्रम के बाद मांझी सफल हुए। केवल छैनी हथौड़े से 360 फुट लंबे, 30 फुट चौड़े और 25 फुट ऊंचे पहाड़ को काट कर रास्ता बना दिया। उनके इस संघर्ष ने अतरी और वजीरगंज ब्लॉक की दूरी 55 किमी से महज 15 किमी हो गई। मांझी के काम का मजाक उड़ाया जाता था, लेकिन उनके प्रयासों ने गाँव के लोगों का जीवन आसान बना दिया। शुरुआत में लोग उन्हें ताना मारते थे लेकिन कुछ लोग बाद में सहयोग भी करने लगे थे जो उन्हें खाने के लिए भोजन और उपकरण खरीदने में भी मदद करते थे।
सरकार से की सड़क पक्की करने की मांग
मांझी सड़क बनने तक ही नहीं रुके। उन्होंने सड़क को पक्की करने और मुख्य सड़क से जोड़ने की भी मांग की। वह राजधानी दिल्ली तक पूरे रास्ते रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलकर पहुंचे। उन्होंने अपनी सड़क और अपने लोगों के लिए एक अस्पताल, स्कूल और पानी की मांग से जुड़ी याचिका भी डाली। साल 2006 में वह तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के जनता दरबार में गए। बाद में बिहार सरकार ने मांझी के नाम पर गेहलौर से तीन किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का प्रस्ताव रखा। साल 2006 में बिहार सरकार ने सामाजिक सेवा क्षेत्र में पद्य श्री पुरस्कार के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया था। भारतीय डाक ने दशरथ मांझी के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था।
जिस छैनी और हथौड़े से पहाड़ को काटकर मांझी ने रास्ता बनाया था। वह आज भी गहलौर में रखी है। गाँव में उनकी प्रतिमा भी लगी हुई है। इन्हें देखने के लिए लोग दूर-दराज से आते हैं। गहलौर घाटी को लोग प्रेम पथ के नाम से जानते हैं। इस सफलता के पीछे एक जनून था जिसे न ही परेशान करने वाले ग्रामीण रोक सके, न ही सर्दी, गर्मी और बरसात का कोई मौसम।तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए मांझी ने अपने जज़्बे को कायम रखा और जुनून की मिसाल पेश की।
दशरथ मांझी के इकलौते पुत्र का नाम भागीरथ मांझी है। उनकी पत्नी की मौत भी 1 अप्रैल 2014 को चिकित्सा सुविधा न मिल पाने की वजह से हो गई थी। मांझी के जीवन संघर्ष को पर्दे पर भी उकेरा गया। 2012 में “द मैन हु मूव्ड द माउंटमैन” नामक डॉक्यूमेंट्री बनी। 2014 में प्रसारित टीवी शो सत्यमेव जयते के सीजन-2 का पहला एपिसोड दशरथ मांझी को समर्पित किया गया। 2015 में “मांझी द माउंटेन मैन” नमक फिल्म बनी। कन्नड़ फिल्म “ओलवे मंदार” में भी मांझी के कामों को दिखाया गया है।
17 अगस्त 2007 को दिल्ली के एम्स में कैंसर से लड़ते हुए दशरथ मांझी ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। मांझी अपने पीछे एक गौरव गाथा छोड़ गए। युवाओं को प्रेरणा देकर चले गए कि प्रेम के क्या मायने हैं। उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया कि हम हर वो काम कर सकते हैं जो सोच सकते हैं। उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी के चले जाने के बाद के दुख को विरह में न बदलकर पहाड़ तोड़ने में खुद को झोंका। नतीजा यह हुआ कि उनके ऐतिहासिक कार्य के चलते बाद में गांव में किसी की मौत इलाज की देरी के अभाव में नहीं हुई।
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