कभी आप अपनी इच्छा से नाचती हुई स्त्री का चेहरा ध्यान से देखिये लगता है जैसे मुक्ति का कोई परचम वो स्वयं बन गयी हो और उसे लहराते हुए दुनिया को संदेश दे रही है कि हमें बंधनों से मुक्ति चाहिए, हमें सारी मर्दवादी सत्ता से मुक्ति चाहिए। गाइड फ़िल्म में वहीदा रहमान जब कांटों से खींचकर आँचल, तोड़कर बंधन बाँधी पायल, गाते हुए लहराती हुई नाचती हैं जैसे हवा और बादल के साथ नाच रही हैं, बहती हुई नदी के साथ नाच रही हैं तब वह दृश्य देखकर लगता है कि हर स्त्री यूँ ही सारे बंधनों को तोड़कर जी भर नाच लेना चाहती है। पितृसत्तात्मक समाज उनके नाचने की कला को अपनी लिप्सा और कुंठाओं के दायरे में ही देखता है। भारतीय संस्कृति के पर्वों और उत्सवों में स्त्रियों का नृत्य एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था। ये नृत्य के पर्व होली और दीवाली से शुरू होते फिर सावन तो जैसे उनके झूम-झूमकर और सामूहिक नृत्य के पर्व का उत्सव होता था। लेकिन धीरे-धीरे गाँव में उत्सवों में महिलाओं की भागीदारी कम होने लगी। लोक में सामन्ती दखल बढ़ता चला गया। गवई संस्कृति में जहाँ स्त्रियों के नाचने को एक शुभ और मांगलिक कार्य माना जाता है उसे स्त्री की यौनिकता और पुरूष की प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जाने लगा।
गाँव-घर की शादियों में स्त्रियों का नाचना पहले इतना सामान्य था कि घर की बुजुर्ग स्त्री को भी मनुहार करके नचाया जाता और वो बहुत खुश होकर अपने सामर्थ्य भर उठकर नाचती। नृत्य उन अवसरों का एक महत्वपूर्ण और रोचक अंग हुआ करता था। तब गाँव के परिवारों में किसी भी मांगलिक प्रसंग पर बुआ का सबसे पहले नाचना अनिवार्य माना जाता था। फिर एक-एक करके कभी साथ-साथ भी सारी महिलाओं का नृत्य होता। विशेषकर एकदम घरेलू स्त्रियों के लिए वो नृत्य के कार्यक्रम बेहद खास और उल्लासपूर्ण होते क्योंकि तब वो खुलकर नाचते हुए अपने मनोभावों को व्यक्त करती थीं। हास-परिहास, उलाहना, मोह, विछोह, दुख उनके जीवन से जुड़ी सारी संवेदना वहां व्यक्त होती थीं।
आदिवासी संस्कृति में तो कोई पर्व कोई उत्सव हो जैसे सब उनके सामूहिक नृत्य के पर्याय होते हैं। वहां समता और सामूहिकता होती है वो सम्बन्धों और समाज के लिएअपरिहार्य होती है। गाँव की शादियों में या अन्य अवसरों पर स्त्रियों का नाचना शुभ माना जाता था। ब्याह, मुंडन, छठ आदि के अवसरों पर गाँव के लोग बजनिया (वाद्य यंत्र बजाने वाले) हुआ करते थे जो उत्सवों के अवसरों पर ढोल आदि बजाते थे। गाँव-घर की स्त्रियां उनके वाद्य यंत्रों की धुनों पर खूब नाचती थीं। वो गवईं जीवन की सामूहिकता और लैंगिक समानता का एक अवसर होता था। लेकिन जैसे-जैसे सामन्ती सोच का असर बढ़ा घर की स्त्रियों का नाचना घर के पुरुषों के लिए अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता गया। इस तरह घर की चहारदीवारी के बाहर घर की स्त्रियों के नाचने पर प्रतिबंध लगाने लगे।
गांवों में बहुत सारी स्त्रियों से नाचने की इस परंपरा को लेकर बात करने लगी तो देखा इसके पीछे सिर्फ पुरूष सत्ता की हनक है उनकी यौन कुंठा का असर है। उनके इस विचार की विभीषिका का चरम यहां तक पहुँच गया कि वे स्त्री के नाचने की कला को गाली की तरह बरतने लगे। जैसे कोई स्त्री गाँव में अगर अपनी इच्छा से घूमती-टहलती हैं तो वे कहेंगे कि गली-गली घर-घर नाच रही हैं अर्थात स्त्रियों की नाचने की सुंदर कला को उन्होंने अपने निकृष्टतम मनोभावों से अभिव्यक्त करना शुरू किया और बाद में ये हुआ भी बाज़ार ने पुरुषों की उसी यौन-कुंठित मानसिकता का उपयोग कर स्त्रियों के नाचने की कला को बहुत अमानवीयता और अश्लीलता से बेचना शुरू किया। आज आर्केस्ट्रा में नाचती स्त्रियों का जीवन किस यातना में बीतता है सब जानते हैं।
पति को नाचना पसंद नहीं
गाँव में स्त्रियों ने जो अपने नाचने की इच्छा को लेकर बातें कही वो बेहद सहज और मनोरंजक होते हुए भी मन को व्यथित कर देती हैं। पहले तो किस लोकगीत पर गाँव में कौन सबसे बढ़िया नाचता था बताती हैं फिर उन्होंने अपने नाचने के शौक और उससे मिली सजा की जो कहानियाँ बतायी वो एक दारुण यातना थी। सुल्तानपुर जिले के खानापुर में रहने वाली संगीता की उम्र महज तीस साल होगी। गाँव मे जल्दी शादी हो जाने के रिवाज के कारण एक दस साल की बच्ची की माँ भी हैं। संगीता को बचपन से नाचने का बेहद शौक था। मायके में वो किन्हीं अवसरों पर बाजा बजता तो खूब नाचतीं। ससुराल आने पर देवर के ब्याह में बारात की बिदाई के समय स्त्रियों ने उनसे नाचने को कहा। वह घुघट में ही बजते बाजे पर खूब झूम-झूम कर नाचने लगीं। उसके पति को जब ये पता चला कि वह नाच रही हैं तो उन्होंने वहीं आकर भरी भीड़ में उसको पीट दिया। पति ने चेतावनी दी कि मुझे तुम्हारा इस तरह नाचना नहीं पसंद इसलिए तुम कभी बाजे पर नहीं नाचोगी। संगीता गमगीन होकर बताती है कि जबकि वहां बाजा बजाते बजनियों के सिवा कोई आदमी नहीं था। इसके बाद उस अपमान और मारपीट के बाद उसने नाचना छोड़ दिया। लेकिन नाचने का उनका शौक अब भी मरा नहीं। वो हसरत भरी आँखों से शरमाते हुए कहती है, “अब भी कहीं बाजा बजता है तो मेरा मन नाचने के लिए मचलने लगता है।”
भरी सभा में भाई ने की पिटाई
आज दुनिया में स्त्री की आजादी को लेकर बहसें हो रही हैं तो ध्यान जाता है कि अभी कितनी छोटी-छोटी आजादी के लिए स्त्रियां तरस रही हैं। पितृसत्तात्मक संसार उनकी उस आज़ादी को महज अपनी जिद और पूर्वाग्रहों के कारण कुचल रहा है। उसी गाँव की रहने वाली शकुंतला देवी अब वृद्ध हो गयी हैं लेकिन जब शौक से बताती हैं अपने नाचने के किस्से तो आँखों में एक चमक उतर आती है। शकुंतला बताती है जब वह किशोरावस्था में थी तो एक बार गाँव में किसी शादी में दो नाचने वाली आयीं थीं। तब गाँव से बाहर बाग में बारात का जनवास लगता था और वही नाच-गाना भी होता था। शकुंतला घर से छुपकर कुछ लड़कियों के साथ नाच देखने गयीं। उस नाच में बजाने वाले शागिर्द तो बड़े बढ़िया थे लेकिन नाचने वाली दोनों स्त्रियां उस लिहाज से पारंगत नहीं थीं। शकुंतला नाचने में बहुत निपुण थीं उनसे रहा नहीं गया और वो नाचने वालियों को हटाकर खुद नाचने लगीं। बाद में उनके भाई को किसी ने ख़बर दी तो वो दौड़कर आये और मेरी खूब पिटाई की। गाँव में शकुंतला का ये किस्सा एक लड़की के दुःसाहस उदाहरण बन गया। पूरे गाँव के लिए ये एक शर्म का किस्सा बना लेकिन ये बात बताते हुए वह एक अद्भुत आनन्द से भरी हुई थीं।
गाँव के मध्यवर्गीय या निम्नमध्यवर्गीय घरों के पुरुषों में घर की स्त्रियों के नाचने को लेकर एक भीषण कुंठा भरी हुई है। वो बाहर की स्त्रियों का नाचना तो खूब मजे से पसंद करते हैं लेकिन घर की नाचती हुई स्त्री को वो कभी नहीं पसंद करते। आये दिन सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो वायरल होते हैं जिसमें आर्केस्ट्रा आदि में वृद्ध पुरूष भी किशोरावस्था की लड़कियों के साथ अश्लीलता से नाच रहे हैं। गाँव में भी यह खूब दिखता है। आर्केस्ट्रा के नाच में आयी लड़कियों के साथ अभद्रता और अश्लीलता करते हुए गाँव-घर के बूढ़े-जवान सब नाच रहे होते हैं। मर्दों के हाथ उनकी कमर पकड़ रहे हैं, उनके मुँह में पैसे पकड़ा रहे हैं। ये दृश्य देखकर आपको हैरानी होगी कि आखिर ये कौन लोग हैं बाहर की स्त्रियों के नाचने पर इतने लहालोट हैं इन्हें अपनी सीमा नहीं याद रहती और अपने घर की स्त्रियों और लड़कियों के नाचने को ये लोग कभी बर्दाश्त नही कर पाते। आखिर एक ही क्रिया में वे अलग-अलग दृष्टि से कैसे देखते हैं। दरअसल यौन कुंठाओं में जीता समाज स्त्रियों की नाचने की कला को स्वस्थ नज़रिये से देख ही नहीं पाता।
एक कलात्मक अभिरुचि उनमें विकसित ही नहीं हो पायी। नाचने की कला को वो स्त्रियों की मांसलता और यौनिकता से ही जोड़कर देखते हैं। नाचती हुई स्त्रियाँ उन्हें कभी एक सामान्य कला से जुड़ी क्रिया की अभिव्यक्ति में नहीं दिखती। उनकी दमित यौन इच्छाओं की कुंठाओं का आलम ये है कि आर्केस्ट्रा आदि में नाचने आयी लड़कियों के साथ वे अक्सर बेहद अश्लील तऱीके से व्यवहार करते हैं। कभी-कभी तो वे सारी मर्यादाओं को तोड़कर उनके साथ अभद्र व्यवहार कर बैठते हैं। ये वही लोग हैं जो अपने घर की स्त्रियों के नाचने को लेकर बेहद ख़िलाफ़ होते हैं।
गाँव में रहने वाली सपना बताती हैं कि उनके पति बम्बई में नौकरी करते हैं और वह बच्चों के साथ गाँव में रहती हैं। गाँव में घर कार्यक्रमों में महिलाओं के कहने पर नाचने लगती है तो उनके घर-घराने के लड़के फोन करके उनके पति को बता देते हैं। तब उसका पति बहुत नाराज हो जाता है। वह फोन करके उन्हें नाचने के लिए गालियां देता है और तमाम तरह से धमकाता है। बहुत बार ये हुआ है कि अगर वो घर आया है और गाँव में कोई ब्याह आदि है और उसने नाच दिया तो बहुत निर्ममता से पीटता है। किसी समाज के लिए ये कितना त्रासद है कि महज गाँव-घर में नाचने के कारण स्त्री को पीटा जा रहा है। गांव की स्त्रियां बताती हैं कि सपना बेहद सुंदर नाचती हैं और बचपन से उन्हें नाचने का शौक था।
ये विडंबना ही है कि जिस कला को प्राचीन काल में आध्यात्मिक कला का दर्जा प्राप्त था वो बाद में आकर पुरुषों की यौन कुंठाओं का सामना करना पड़ा। संगीत की तीनों विधाएं वादन, गायन और नृत्य को कला की श्रेष्ठतम विधाओं में माना जाता था लेकिन जब कोई स्त्री नाचती है तो पितृसत्तात्मक समाज उसे उसकी यौनिकता से जोड़कर देखता है। स्त्री की यौनिकता को लेकर तो ये समाज बेहद डरा हुआ रहता है उसे स्त्री की यौन-इच्छा उसका चयन कभी बर्दाश्त नही होता। इसलिए अपने आसपास की नाचती हुई स्त्री भी उससे बर्दाश्त नही होती। तब पुरूष स्त्री को मर्यादा के नाम पर जड़ बनाने की कोशिश करता है और उसे मनुष्य न समझ कर अपनी सम्पत्ति मानकर उसे प्रतिबंधित करता है।