“क्या लड़कियां ही होती हैं? जिनका मन दूर दूर, कहीं दूर चले जाने को तड़पता रहता है।” आजादी मेरा ब्रांड की लेखिका अनुराधा बेनीवाल की यह पंक्ति लाखों महिलाओं के मन की बातों को बयां करती है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के लिए सीमाएं बनाई हुई है। घर के दायरे में रहना उनका परम कर्तव्य माना जाता है। पुरुषों के बनाए इस समाज में ‘महिलाओं का घर से बाहर ना निकलना’ एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। महिलाओं और लड़कियों में गतिशीलता को लैंगिक समानता के लिए एक नई जमीन के रूप में पहचाना गया है। भारतीय समाज में रहने वाली महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
बात चाहे शहर की हो या ग्रामीण क्षेत्र की हर जगह महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलना आज भी बहुत मुश्किल काम है। उनकी गतिशीलता पर कई तरह से नज़र रखी जाती है। इतना ही नहीं जो महिलाएं स्वतंत्र होकर नौकरी करती या दुनिया घूमती हैं, उन्हें गलत माना जाता है। वहीं जो लड़कियां दूसरे शहरों में पढ़ाई करनी जाती हैं तो उनपर दूर रहकर भी बहुत सी हिदायतें, पाबंदियां थोपी जाती है। अक्सर कहा जाता है कि घर वालों से दूर रहकर मनमौजी करोगी तो माता-पिता की इज्ज़त खराब होगी। लड़कियों के बाहर रहकर पढ़ने पर दूर से ही उनकी आवाजाही पर नज़र तक रखी जाती हैं। हर पल, हर जगह की मौजूदगी के बारे में परिवार को बताना पड़ता है, फोन उठाने में देरी तक के जवाब देने पड़ते हैं।
फरहत आगे बताती है कि वह जिनके घर रहती है वे बोलते हैं, “तुम हमारी ज़िम्मेदारी हो, हमें तुम्हारें माता-पिता को जवाब देना पड़ता है। हर चीज़ पूछनी इसलिए पड़ती है कि तुम्हारा ख्याल रखना है हमें तुम्हारी सुरक्षा की चिंता है।”
पितृसत्ता महिलाओं को करती है घर में कैद
यह पितृसत्ता का ही परिणाम है कि महिलाओं की गतिशीलता पर अक्सर पुरुष मजाक बनाते नज़र आते है। अक्सर सोशल मीडिया पर इस तरह के वीडियो देखने को मिलते है जहां लड़कियों की परमिशन लेने के बारे में मजाक बनाई जाती है। ये वे पुरुष हैं जो पितृस्तात्मक समाज में पले-बढ़े हैं। जहां पुरुषों के लिए दिन हो या रात कभी भी घर से निकलना बिल्कुल आम बात है और महिलाओं का यह बड़ा मुद्दा केवल हंसने की बात मान ली जाती है। बीबीसी में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार टाइम्स यूज सर्वे के आंकड़ों से यह पता किया गया कि लैंगिक भेदभाव की वजह से किस तरह से रोज़मर्रा का आवगमन प्रभावित होता है। सर्वे के अनुसार पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं को नौकरी करने या घर से बाहर निकलने के लिए रोकते है।
“घर के किसी लड़के से यह सवाल नहीं किया जाता”
अक्सर लड़कियों के ऊपर पाबंदियों का सिलसिला छोटी उम्र से ही शुरू हो जाता है। दिल्ली की रहने वाली फरहत उन्हीं लड़कियों में से एक हैं जो घर से निकलने के लिए हर दिन संघर्ष करती हैं। वह दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया से मास मीडिया में अपनी ग्रेजुएशन कर चुकी हैं, और अभी टीवी जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रही हैं। घर से बाहर निकलने और महिलाओं की गतिशीलता पर बात करते हुए फरहत कहती है, “घर और कॉलेज में बहुत दूरी होने के कारण मुझे अपने एक रिश्तेदार के घर पर रहना पड़ता है, जो कॉलेज से काफ़ी नज़दीक है। समय बचाने और स्वास्थ्य के ख्याल से नजदीक रहने का फैसला लिया गया था। मैं जिनके पास रहती हूं उनका कहना है कि जब सारी क्लासेस खत्म हो जाती हैं उसके बाद तुम कॉलेज में नहीं रुक सकती। किसी कारण क्लास की टाइमिंग देर शाम की हो जाती है तो मुझसे कहा जाता है कि तुम अपनी क्लास की टाइमिंग बदलवाओ, तुम लड़की हो ज्यादा देर तक घर से बाहर नहीं रुक सकती।”
वह आगे बताती है, “इसके अलावा कभी किसी प्रॉजेक्ट वर्क या असाइनमेंट के सिलसिले में रविवार के दिन बाहर जाने की इजाज़त मांगने पर भी काफी सवाल-जवाब का सामना करना पड़ता है। ‘रविवार छुट्टी का दिन होता है तो उस दिन कोई काम नहीं होता, इसलिए तुम नहीं जा सकती’ इस वजह से अक्सर मेरा काम पीछे रह जाता है। साथ ही घर आने के बाद मुझे बताना पड़ता है कि मैंने पूरे दिन कॉलेज में क्या-क्या पढ़ाई की। हालांकि ये सवाल घर के किसी लड़के से नहीं किया जाता।”
क्या लड़कियों पर पाबंदी ही सुरक्षा है
फरहत आगे बताती है कि वह जिनके घर रहती है वे बोलते हैं, “तुम हमारी ज़िम्मेदारी हो, हमें तुम्हारें माता-पिता को जवाब देना पड़ता है। हर चीज़ पूछनी इसलिए पड़ती है कि तुम्हारा ख्याल रखना है हमें तुम्हारी सुरक्षा की चिंता है।” अपनी पढ़ाई के बारे में वह कहती है, “जर्नलिज्म की पढ़ाई के लिए घर वालें तैयार नहीं थे, उनका कहना था कि ये लड़कियों का काम नहीं है, इसमें लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं। पूरे परिवार और रिश्तेदारों की राय यही थी कि मुझे जर्नलिज़म की पढ़ाई नहीं करनी चाहिए। केवल मेरे दादाजी ने साथ दिया था जिसकी वजह से आज अपने सपनों को पूरा कर पा रही हूं। मैं जानती हूं, मेरी तरह हजारों महिलाएं हर दिन किसी न किसी चीज़ के लिए संघर्ष करती हैं।”
घर से बाहर निकलने के लिए करनी पड़ी लंबी लडाई
आर्थिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ती महिलाएं
महिलाएं लगातार पितृसत्ता के साये में रहकर खुद के लिए रास्ते तलाश रही है। वे छोटे-छोटे कदमों के साथ आगे बढ़ रही हैं। मूल रूप से बिहार की रहने तनु के लिए घर से बाहर निकालना काफी संघर्षपूर्ण रहा है। तनु गुजरात में अपने पति के साथ रह कर एक कंपनी में कपड़ो की सिलाई का काम करती हैं। पहले वह गांव में ही रह कर घरवालों की देख रेख और घर की सारी जिम्मेदारी निभाती थी। लेकिन वह घर से बाहर जाकर काम करके आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करना चाहती थी। जब पहली बार उन्होंने घर में इस बात को रखा तो उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा। घर के लोग इस बात को मानने को तैयार ही नहीं थे कि घर की बहू बाहर जा कर काम करे। साथ ही उनको ये भी चिंता थी की लोग क्या कहेंगे। गांव-समाज के लोगों का ये भी कहना था कि “महिलाएं बाहर कमाने नहीं जाती और ये तो फिर भी शादीशुदा औरत है, तो इसको सिर्फ अपनी घर-गृहस्थी और बच्चों पर ध्यान देना चाहिए।”
कितना महत्वपूर्ण है अपनों का साथ
बहुत संघर्ष के बाद घर से दूर आकर पति के साथ रहने की अनुमति मिली। गाँव-घर से बाहर निकलने के बारे में तनु बताती है कि इसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा जिसमें उनके पति ने उनका साथ दिया था। वह कहती है, “मैं जिस शहर में रह कर काम करती हूं उस शहर में मेरे गांव के पुरुषों के साथ-साथ मेरे रिश्तेदार भी रहते हैं। वे मुझ पर नज़र रखते हैं। जो मेरे जीने के ढंग को अलग तरीके से बताते हैं। उनकी नज़र में गांव से आई कोई औरत अगर अपने रहन-सहन में बदलाव और साड़ी की जगह सूट पहनने लगती है तो वह बुरी महिला होती है। लेकिन मुझे उनकी बातों से अब कम फ़र्क पड़ता। मैं अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से ही जीना पसंद करती हूं।”
वह आगे कहती है कि अक्सर समाज की घूरती आंखें मुझे असहज होने पर मजबूर कर देती हैं। अगर काम के ब्रेक के बीच हम बाहर आकर चाय पीने या बातचीत करने लगते हैं तो पुरुषों द्वारा हमें हमेशा घूरा जाता है। जैसे हमनें कुछ बुरा कर दिया हो और हमें असहज हो कर वहां से जाना पड़ता। मैं अपने घर में जितनी चुनौतियों का सामना करती हूं उससे कई ज्यादा बाहर ऐसी ही बहुत सारी चुनौतियों का सामना करती हूं।”
महिलाओं को लेकर सामाज की सोच ने उन्हें हमेशा पीछे धकेलने का काम किया है। कोई भी जाति, वर्ग या क्षेत्र हो महिलाओं को लेकर इसी तरह का रवैया देखने को मिलता है। महिलाओं को घरों की दहलीज में कैद करना लैंगिक भेदभाव और हिंसा का वह छिपा हुआ रूप है जिसे संस्कार की चादर से ढक दिया जाता है। महिलाओं के घरों में रहने को अच्छा संस्कार कहा जाता है। इस तरह की पाबंदियां उनके लिए हर तरह के अवसरों को सीमित करती है।
गतिशीलता पर पाबंदी उन्हें शिक्षा, रोजगार और अन्य अधिकारों से पीछे रखती हैं। उन्हें व्यावहारिक जानकारियों और अन्य बदलावों से दूर रखती है। महिलाओं की गतिशीलता पर नियंत्रण उनकी सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को कमजोर बनाती है। इसलिए महिलाओं के समान विकास के लिए और समाज में लैंगिक समानता स्थापित करने के लिए लड़कियों और महिलाओं के घर से बाहर निकलने की पाबंदी को दूर करना होगा और उनके लिए सुरक्षित सार्वजनिक स्थल के अनुभवों को बनाना होगा।