जब भाषा के अपराध की बात हो तो निश्चित ही उन संदर्भों पर बात होगी जो भाषायी हिंसा सिर्फ लैंगिक आधार पर होते हैं। मर्दवादी समाज में स्त्रियों के कितने दुःख भाषा से दिये जाते रहे हैं उनकी पड़ताल भाषा के विभिन्न स्वरूपों को गहराई से समझते हुए करना होगा। भाषा के हमेशा से छूटे ये हिंसात्मक आधार चिन्हित करके दर्ज होने चाहिए तभी इस तरह के विषयों पर सार्थक बहस भी हो सकती है। भाषा के अपराध स्त्रियों से ज्यादा कोई नहीं झेलता और भाषा की हिंसा और क्रूरता भी स्त्रियों से ज्यादा कोई नहीं समझ सकता। ऐसा नहीं है कि स्त्रियां अपनी संरचना को लेकर शर्म और संकोच के कारण भाषा के अपराध को महसूस करती हैं या झेलती हैं। यहां इस तरह के अपराध की हिंसा के लिए मुख्य रूप से सामाजिक दशा ही जिम्मेदार है। कंडीशनिंग ही इस अपराध में इतनी जड़ है कि उससे लड़ना बहुत कठिन होता है।
द्विअर्थी संवाद, गलत भावभंगिमा, बातचीत में यौन जनित गालियों का प्रयोग सब भाषा के ही अपराध हैं। गैरबराबरी के आधार पर जो भेदभाव का समाज बनाया गया है वहां स्त्रियों के साथ कितने तरह की हिंसा और दुर्व्यवहार हो सकता है इसका साक्ष्य उसकी भाषा में भी सहज मिल जाता है। सामाजिक कंडिशनिंग कैसे स्त्रियों लड़कियों को कितना कुछ सहने के लिए मजबूर करती है। रचना की उम्र 18 साल है वो गाँव के एक इंटर कॉलेज में पढ़ती हैं। रचना कहती है कि स्कूल के कैंपस से लेकर स्कूल के आसपास खड़े लड़के द्विअर्थी संवाद बोलते हुए संकेतात्मक भाव भंगिमा में कुछ-कुछ ऐसी बातें बोलते हैं जिनका न चाहते हुए भी सामना करना पड़ता है।
पुरुष जानबूझकर अश्लील भाषा का इस्तेमाल करते
इसी तरह आंगनबाड़ी केंद्र में सहायिका के पद कार्यरत सुनीता कहती है कि जाने क्या मिलता है पुरुषों को बहुत बार स्पष्ट दिखता है कि जानबूझकर पुरुष, महिलाओं के सामने अश्लील भाषा में बात करने लगते हैं महिलाएं झेंप कर दूसरी ओर देखने लगती हैं तो आपस में विद्रूप हास्य संकेत करते हुए महिलाओं की ओर देखने लगते हैं। गवईं क्षेत्रो में तो ये आमतौर पर देखने को मिलता है। सुनीता का सवाल मन में उठता है कि आखिर पुरुषों को इससे क्या हासिल होता है। पितृसत्तात्मक तंत्र को गहराई से देखे तो पाते हैं कि अपने पुरुष होने के प्रिवेलज को लेकर वो एक तरह की विशेष सत्ता संरचना में होने के भान से भरे होते हैं कि हम इस तरह की चीजें कर सकते हैं जिसे स्त्रियां नहीं कर सकती। कुछ व्यवसायिक फिल्मों में ये दिखाया भी जाता है कि नायक पुरुष होने के झूठे दंभ में नायिका से कहता है कि तुम मेरी बराबरी नहीं कर सकती क्योंकि मैं अभी एकदम से कपड़े उतार सकता हूँ और नायिका शरमाकर भाग जाती है। इसी तरह की मान्यताओं, धारणाओं और इन्हीं तरह की मर्दवादी सोच की फिल्मों से हमारा समाज बना है।
बच्चों के सामने यह सुनना तकलीफ़ भरा
भाषा के आधार पर होने वाले अपराध को लेकर बीना अपने अनुभवों के बारे में बताती है कि ये सब बेहद यातनापूर्ण है। नागपुर में रहने वाली बीना दीवाली पर घर आयी हैं। अपने दो बच्चों और पति के साथ जब गाँव के बाजार में खड़ी किसी वाहन का इंतजार कर रही थीं तो पास की मिठाई और चाय की दुकान पर खड़े लोग अश्लील कमेंट करने लगे। उनका कहना है कि ये सब तो आम बात है लेकिन बच्चों के सामने ये सब सुनना और सहना सब बहुत तकलीफ़ भरा था।
दरअसल जो लोग ये बात कहते हैं सेक्स से जुड़ी किसी भी बात को स्त्रियों से जोड़कर देखना या स्त्रियों को खुद से जोड़कर देखना पितृसत्तात्मक नज़रिया है तो मुझे लगता है कि ये बात कहते हुए सामाजिक कंडीशनिंग का मसला अनदेखा किया जा रहा है। स्त्री-पुरुष यौनिकता को लेकर जिस तरह की सामाजिक मान्यताएं या धारणाएं बनी हैं वो पूरी दुनिया में इतनी जड़ है कि हर कोई उससे निकल पाये सहज नहीं होता।
लेखक अनिल कुमार यादव अपनी किताब ‘कीड़ाजड़ी’ में स्त्री-पुरुष सामाजिक शक्ति के अनुपात का यथार्थ चित्रण करते हुए लिखते है, ‘अगर पिंडर घाटी की एक औरत किसी पुरुष के विषय में कोई बात कहती है तो उसका वजन कितना होगा सही जबाब के लिए बच्चों को ब्लैकबोर्ड नहीं सड़क किनारे बने टॉयलेट की ओर देखने के लिए कहना होगा जहां एक लड़की अंदर जाती है तो दूसरी या कई लड़कियां बिना सिटकिनी के दरवाजे को पकड़कर खड़ी रहती हैं जबकि लड़के थोड़ी दूरी पर एक खंडहर घर की दीवारों को भिगोकर चले आते हैं। किताब में ये बात पिंडर घाटी के लिए भले लिखी गयी है लेकिन अपने परिवेश में रहते हुए हमसब इस सत्य को जानते और समझते।
आंगनबाड़ी केंद्र में सहायिका के पद कार्यरत सुनीता कहती है कि जाने क्या मिलता है पुरुषों को बहुत बार स्पष्ट दिखता है कि जानबूझकर पुरुष, महिलाओं के सामने अश्लील भाषा में बात करने लगते हैं महिलाएं झेंप कर दूसरी ओर देखने लगती हैं तो आपस में विद्रूप हास्य संकेत करते हुए महिलाओं की ओर देखने लगते हैं।
ऐसा नहीं है कि स्वस्थ भाषा और भावभंगिमा में कही सेक्स से संबंधित कोई भी बात स्त्रियों का अपमान करती है लेकिन पितृसत्तात्मक लहजे में कही गयी बात, अपने पुरुष होने के विशेषाधिकार मे कही गयी बात स्वस्थ बात कैसे हो सकती है। एकबारगी जब आप इस बात को महज तर्क के आधार पर देखेगें तो लग सकता है इस तरह स्त्रियों का सोचना भी कहीं न कहीं पितृसत्ता की ही रोपी गयी सोच हैं। लेकिन तब हमें समाज में निर्वस्त्र घुमाई गयी स्त्रियों की दशा को समझना होगा आखिर सजा के तौर पर समाज क्यो स्त्रियों को ही निर्वस्त्र करता है। सीधी सी बात है क्योंकि सामाजिक कंडीशनिंग में ये सजा स्त्री के लिए बेहद भयावह और अपमान से भरी है। अगर यही कंडीशनिंग जड़ सामाजिक मान्यताओं को एकदम से ख़ारिज कर दिया जाये तो किसी स्त्री के निर्वस्त्र होने से कोई तकलीफ़ न होती ठीक इसी तरह अगर भाषा में सामजिक मान्यताओं के आधार पर कुछ वर्जनाओं से बनी भाषा है जिसका प्रयोग हमेशा से स्त्री को अपमानित करने के लिए किया।
अगर ध्यान से देखा जाये तो सब महज शब्द है जिनको कहीं भी कहासुना जा सकता है लेकिन ऐसा नहीं होता कहीं किसी जगह सड़क या बस ट्रेन ऑटो आदि में कोई स्त्रीजनित गाली दे रहा है तो स्त्रियों के लिए असहनीय होता है। कोई इसके लिए कह सकता है कि इस असहनीयता की जड़ में पितृसत्तात्मक सोच है ये एक वृहद सत्य हो सकता है लेकिन इस वृहद सत्य के अन्ततः में बहुत से अन्य सत्य भी हैं। स्त्रियों का यौनिकता को लेकर शर्म संकोच निश्चित ही पितृसत्तात्मक धरातल से आयी है जड़ धारणाओं और मान्यताओं से बने जीवन रहन में क्या गालियां स्त्रियों के सम्मान में दी जा रही हैं। जाहिर सी बात है उन्हें अपमानित करने के लिए ही दी जा रही हैं।
बात सिर्फ स्त्री की देह को लेकर यौनजनित गालियों की नहीं है जब स्त्रियों को निर्वस्त्र करके घुमाया जाता है तब भी स्त्री को लेकर पितृसत्तात्मक मान-मर्यादा की ही बात होती है कि तुम्हारा मानभंग करके हम तुम्हें बेहद तिरस्कार भरी सजा दे रहे हैं, यही नहीं बल्कि हर प्रकार की हिंसा, लूट-दमन, आधिपत्य कायम करने में सत्ता इसी तरह के चरित्र में ढल जाती है। ये सत्ता चाहे वैश्विक सत्ता हो, किसी राष्ट्र-राज्य सत्ता हो या सामुदायिक-सांप्रदायिक सत्ता हो, सदियों पुरानी जाति-वर्ग की सत्ता हो या फिर कस्बाई या गंवई सत्ता हर जगह यही मर्दवादी नज़रिया रहता है। स्त्री को अपमानित करने के लिए जो अमानवीय यौनजनित व्यवहार सत्ता द्वारा किये जाते रहे हैं सबके पीछे ताकत होती है। ताकत के समूह भले छोटे-बड़े होते हैं पर स्त्रियों के लिए उनका नज़रिया वही पितृसत्तात्मक नज़रिया होता है। ताकतें हमेशा, पितृसत्ता की ताकत की तरह व्यवहार करती है। इसलिए हर तरह की सत्ता का निर्मूल अंत ज़रूरी होता है क्योंकि अंततः वो पितृसत्तात्मक ढाँचे में ही ढल जाती हैं।
भाषा के अपराध को करना और उसे महसूस करना पूरी तरह से पितृसत्तात्मक धारणा पर टिका है लेकिन ये इतनी भर बात नहीं है जब तक राज्य, समाज के ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन और पुरुषवादी नज़रिये में स्त्री की यौनिकता को लेकर जड़ धारणाएँ, पूर्वाग्रह और तरह-तरह की यौनजनित कुंठाएं नष्ट नहीं होती तब तक स्त्रियों को इसी तरह की पीड़ा से लड़ना होगा। वैसे भी इन धारणाओं के बने रहने से स्त्रियों का ही नहीं पुरुषों का भी नुकसान है क्योंकि सेक्स को लेकर उनकी अपरिपक्वता के कारण वे इसे अपनी सत्ता से जोड़कर देखते हैं इसलिए जहाँ भी मौका मिलता है स्त्रियों को आहत करके आनंदित होते हैं।
ऐसी सोच यह एकतरह की मानसिक विकृति की स्थिति है। ज़रूरत है कि आज स्त्री-पुरुष दोनों सेक्स को कोई हव्वा जैसी चीज न मानकर उसे मनुष्य जीवन की एक नैसर्गिक क्रिया माने। लेकिन इसके लिए समाज में कोई बड़ा संकेत या लक्षण नहीं दिख रहा है आये दिन जिस तरह से स्त्रियों से हो रही बलात्कार की घटनाएं घट रही हैं उससे ये प्रतीत होता है कि हम आगे की तरफ नहीं पीछे की तरह जा रहे हैं आखिर इन अपराधों के लगातार बढ़ते ग्राफ कहाँ जायेगें। पुरुषों की ये बर्बरता पूरी मनुष्यता की सामूहिक विफलता है।