भारत में जब भी सेक्सवर्क और सेक्सवर्कर की बात होती है, तो न ही यह बात खुलेआम होती है, न ही इनके पेशे को कोई सम्मानजनक रोजगार समझा जाता है। हालांकि सेक्स वर्कर्स के अधिकारों के लिए संघर्ष आज भी जारी है। लेकिन सेक्सवर्क के प्रति हमारा नजरिया भी अहम भूमिका निभाता है। समाज का हिस्सा होते हुए भी ये हमें नजर नहीं आते। गरीबी, शोषण, अशिक्षा में जीते हुए ये समाज के रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक विचारधारा का शिकार होते हैं। लेकिन देश के कई ऐसे इलाके जहां सेक्सवर्कर मूल रूप से रहते हैं, उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जहां लोग ये सीमाएं धुंधली होती नजर आती है। ऐसे इलाके जहां सेक्सवर्कर्स समाज के अन्य लोगों से पूरी तरह कटा हुआ जीवन नहीं बिता रहे। ऐसा ही एक इलाका है पुरानी दिल्ली का जीबी रोड यानी गारस्टिन बास्टिन रोड का।
सड़कों पर बातचीत करती, आवाज़ लगाती जीबी रोड की उन औरतों के भीतर दबी गुस्से को करीब से देखा है मैंने। यह वह गुस्सा है जो स्पष्ट तौर से उन लोगों के प्रति जरूर दिखाई देता है, जो खुद को समाज की तथाकथित नैतिकता को बनाए रखने वाले ठेकेदार होने का दावा कर इन्हें सभ्य समाज का हिस्सा नहीं मानते। जो जीबी रोड जैसी जगहों को शर्मनाक और घिनौना मानते हैं और यहां रहने और काम करने वाली महिलाओं को समाज से बाहर रखने पर अमादा हैं। नैतिकता का भार उठाए हुए ये लोग मूल रूप से पुरुष हैं। यह भूल जाते हैं कि सेक्सवर्कर्स का काम गैरकानूनी नहीं है। इसे सम्मानजनक रूप से रोजगार के रूप में मानने में समाज की भी समान भूमिका है। समाज में विशेषाधिकार पाए लोग अक्सर इन महिलाओं को ही दोयम दर्जे का बताते हैं। साथ ही, सामाजिक तौर पर इन महिलाओं को यह अधिकार नहीं कि वे खुद के साथ हो रहे शोषण और अन्याय के लिए समाज के लोगों पर सवाल खड़े करे।
सेक्सवर्कर्स और समाज के बीच मध्यस्थता
असल में ये औरतें समाज की चुनिंदा औरतों में से होती हैं जो पितृसत्तात्मक सोच और उनके गहरे पक्षों को बेहद क़रीब से अनुभव और जान-पहचान चुकी होती हैं। वे न जाने कितने ही लोगों की पीड़ा, दुख, रहस्य की कभी राज़दार बनी तो कभी उनकी केयर टेकर बनी। ऐसे में ज़ेहन में एक ख़्याल आता है कि उस समाज की तस्वीर क्या होगी जो इन्हें बेझिझक किसी को दोस्त बनाने और कभी प्रेम करने की एक दुनिया से रूबरू होने का मौका दे। ये बंद कमरों के कुछ क़िस्से हैं जो आम तौर पर लोगों के ज़िंदगी में होने वाली सामाजिक और निजी जीवन का ही हिस्सा होते हैं।
सामाजिक दृष्टि में तो सेक्सवर्क का पेशा और इस पेशे में संलग्न औरतें अस्वीकार्य और अवर्णनीय मानी जाती रही हैं। इनके लिए एक सामान्य जीवन जीना निषेध है। इस परंपरा से भिन्न मैंने उनसे जुड़ने की कोशिश की है। हमने 60 और 80 के दशक से जीबी रोड में रह रहे स्थानीय लोगों और सेक्सवर्कर्स के बीच सामाजिक संबंध से जुड़े कुछ अनुभव जुटाएं हैं। ये अनुभव ‘सामाजिक बहिष्कार’ और ‘सामाजिक स्वीकृति’ के बीचोंबीच होती दिखाई देती है। सामाजिक टैबू और पूर्वाग्रह हमेशा से सामाजिक बातचीत और कामों में शामिल रही हैं। लेकिन बावजूद इसके ऐसे इलाकों में रहने वाले लोगों और सेक्सवर्कर्स के बीच तालमेल के साथ पारस्परिक संबंध पनपे हैं, जिनकी बात समाज करना नहीं चाहता।
समाज के लोगों के बीच सेक्सवर्कर्स की मौजूदगी
जीबी रोड की सड़कें मशीनरी, हार्डवेयर, ऑटोमोबाइल पार्ट्स और तमाम तरह के उपकरण के बाजार के रूप में काफ़ी लोकप्रिय है। आज भी पहले की तरह सेक्सवर्कर्स काम की तलाश या यूं कहे काम के लिए शाम के वक्त करती हैं। 60 या 70 के दशक में ये औरतें दिन के उजाले में बाहर निकलकर अपनी पहचान से बाहर निकलने की कोशिश किया करती थी। कभी आस-पास की दुकान संभाल रहे स्थानीय व्यापारियों से, तो कभी कुछ देर राहगीरों से बतिया लिया करती थी। पर फिर भी उन्हें उसी नज़रिये से देखा जाता जिसके लिए वो आम तौर से तिरस्कार का सामना करती हैं। उनके बारे में लोगों की सोच रूढ़िवादी ही थी।
जिन औरतें को अपने मकानों से नीचे उतरने और बाहर निकलने की आज़ादी थी, या जो काम के मायने में विश्वासपात्र थी, वो नुक्कड़ पर किसी छोटे से कोने या पेड़ के नीचे मिलने वाली चाय के दुकान पर चाय पीने आ जाया करती थी। पंसारी या किराना की दुकान से रसोई चलाने की ज़रूरी सामग्रियों से लेकर सब्ज़ियों के ठेले पर सब्ज़ी ख़रीदा करती थी। ये अपने मकानों से केवल इन्हीं मौकों पर बाहर की दुनिया से जुड़ पाती थी और रोज़ाना के ऐसे क्रियाकलापों का हिस्सा बन पाती थी। कभी-कभी आस-पास जाने-अनजाने चेहरों को वो रोज़ाना देख दुआ-सलाम किया करती थी, जिनका अमूमन लोग जवाब नहीं देते थे।
66 वर्षीय किशोर (नाम बदला हुआ) जिनकी दुकान आज भी जीबी रोड में सेक्सवर्कर्स के मकानों के बीचोंबीच है, अपने कुछ अनुभव हमसे साझा करते हैं। वह बताते हैं, “एक ज़माने में 80 के दशक में, यहां की कुछ औरतें मेरी दुकान पर आकर अपने पेशे से कमाए जाने वाले पैसों को जमा कराने आया करती थी। ऐसा कई दुकानदार किया करते थे। भरोसे पर वे अपने पैसे हमारे पास रखवाया करती थीं।
गुप्त रूप से दुकानदारों के पास जमापूंजी रख जाती सेक्सवर्कर्स
इस पेशे को अपनाने वाली औरतें अपने पीछे परिवार के प्रति पूरी ज़िम्मेदारी निभाया करती थीं। इस बारे में यहां के एक स्थानीय 66 वर्षीय किशोर (नाम बदला हुआ) जिनकी दुकान आज भी जीबी रोड में सेक्सवर्कर्स के मकानों के बीचोंबीच है, अपने कुछ अनुभव हमसे साझा करते हैं। वह बताते हैं, “एक ज़माने में 80 के दशक में, यहां की कुछ औरतें मेरी दुकान पर आकर अपने पेशे से कमाए जाने वाले पैसों को जमा कराने आया करती थी। ऐसा कई दुकानदार किया करते थे। भरोसे पर वे अपने पैसे हमारे पास रखवाया करती थीं। दुकानों में पैसे रखवाने की उनकी वजह ये थी कि लंबे समय तक उनके पैसे सुरक्षित और साथ में जुड़ते भी रहते थे। चोरी या छीन जाने के डर से वे अपनी कमाई अपने घरों में नहीं रखा करती थीं। कुछ ऐसी भी महिलाएं थी जो इस जमापूंजी को किसी दूसरे राज्यों में रह रहे अपने परिवारों को भेजा करती थीं। कुछ थी जो कभी लौट कर नहीं आती थीं। ऐसे में पता चलता था कि या तो वो कहीं चली गई या तो उनकी मौत हो गई।”
अजमेरी गेट के तुर्कमान गेट के पास रहने वाले 64 वर्षीय अमृतदास अपने और अपने पिताजी के कुछ अनुभव हमें बताते हैं। वह बताते हैं, “मेरे पिताजी की मौत दस साल पहले हुई थी। वो भी एक समय था जब इन सेक्सवर्कर्स के घरों से हमारा घर चलता था। वह इनके घरों में नियमित रूप से अपनी आजीविका के लिए जाया करते थे।
स्थानीय लोग उनके पसंद के खाने की चीज़ें पहुंचाते
अजमेरी गेट के तुर्कमान गेट के पास रहने वाले 64 वर्षीय अमृतदास अपने और अपने पिताजी के कुछ अनुभव हमें बताते हैं। वह बताते हैं, “मेरे पिताजी की मौत दस साल पहले हुई थी। वो भी एक समय था जब इन सेक्सवर्कर्स के घरों से हमारा घर चलता था। वह इनके घरों में नियमित रूप से अपनी आजीविका के लिए जाया करते थे। वहां रहने वाली औरतें बिल्कुल बच्चों की तरह खाने की कई मजेदार चीज़ें पसंद किया करती थीं। मेरे पिताजी वहां कमरक, बेर और शकरकंदी बेचने जाया करते थे। मेरे पिताजी को वे ‘बाबा’ के नाम से बुलाया करती थीं। उन्होंने एक दिन मीट बनाकर वहां उन्हें परोसा, तो सबको बहुत पसंद आया। तब से मेरे पिताजी वहां मीट बनाकर भी बेचने का काम भी करने लगे।”
गर्भावस्था और बच्चों के जन्म में मदद करती स्वास्थ्य कर्मचारी
वहां के स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि वहां रहने वाली बलदेवी नाम की अप्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारी हुआ करती थी। वह आस-पास रह रहे परिवारों के साथ-साथ सेक्सवर्कर्स के घरों में बच्चों के जन्म और मालिश करने का काम किया करती करती थी। उन्हें उनके घरों में काम करने में कोई हिचक नहीं थी। वह आम स्थानीय लोगों के उपचार में जिस तरह काम आती, उसी तरह इन औरतों के भी काम आती। इन तथ्यों से हमें आस-पास के लोग और सेक्सवर्कर्स के घरों के बीच परस्पर सामाजिक संबंध समझ आता है। इस सामाजिकता से जुड़े अनुभवों में इन औरतों का मानवीय पक्ष स्पष्ट रूप से झलकता है, जहां तिरस्कार करने वाले समाज पर वे विश्वास करती हैं और उम्मीद जताती हैं।
शोषण के बीच सामाजिक स्थान पाने की जद्दोजहद
आए दिन मौखिक, शारीरिक, मानसिक और यौन हिंसा का सामना कर रही सेक्सवर्कर के चुनौतियों और समस्याओं का कोई अंदाज़ा नहीं है। सभी चुनौतियों के बावजूद इस पेशे से जुड़ी औरतें वहां रहने के अलावा, अपना परिवार भी चला रही होती हैं। ये अक्सर अपने बच्चों का लालन-पालन भी उसी जगह करती हैं। न सिर्फ उनका आर्थिक रूप से शोषण किया जाता है, बल्कि शारीरिक शोषण भी रोजमर्रा के काम का हिस्सा होता है। सेक्सवर्कर्स की पहचान के अलावा उनके दूसरे पहचान को समझना जरूरी है। जरूरत है कि हम समाज के रूढ़िवादी सोच से अलग इन्हें उनके पहचान दिलाने में मदद करें जिनकी ये हकदार हैं और जिन्हें पाने की कोशिश वे दशकों से कर रही हैं।
नोटः लेख में इस्तेमाल की गई सारी तस्वीरें वर्षा प्रकाश ने उपलब्ध करवाई हैं।