निर्देशक अर्जुन वरैन सिंह का निर्देशित अनन्या पांडे, सिद्धांत चतुर्वेदी, आदर्श गौरव, कल्कि केकलां अभिनीत फिल्म ‘खो गए हम कहां’ चर्चा का विषय बनी हुई है। नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध इस फिल्म की रेटिंग भी अच्छी आ रही है। फ़िल्म का चर्चित होने का मुख्य कारण है कहानी की केंद्र में सोशल मीडिया एडिक्शन (सोशल मीडिया की लत) को रखा गया है। इसी के इर्द-गिर्द मुंबई के तीन दोस्तों की कहानी को गढ़ा गया और दोस्ती में उतार-चढ़ाव को दिखाया है। बोर्डिंग स्कूल के समय से साथ ये तीन दोस्त, नील (आदर्श गौरव), इमाद (सिद्धांत चतुर्वेदी) और अहाना (अनन्या पांडे) सोशल मीडिया पर काफ़ी सक्रिय हैं। अर्जुन के निर्देशन में यह पहली फिल्म है। उनकी कोशिश ये रही है कि युवाओं के मन में उतरा जाए जिसके लिए लव, ब्रेकअप, दोस्ती सब कुछ एक ही फिल्म में डाल दिया है। फिल्म किसी-किसी बिंदु पर थोड़ी प्रभावशाली लगती है। लेकिन पूरी कहानी जनता पर गहरा प्रभाव नहीं छोड़ पाती। फिल्म को एक आम सी कहानी औसत अभिनय के साथ पेश की गई है।
चूंकि फिल्म नेटफ्लिक्स पर देखी जा सकती है, इसीलिए पूरी कहानी को बता देना दर्शकों के साथ अन्याय होगा। इसीलिए फिल्म के माध्यम से जो कुछ बिंदु प्रकाश में लाए गए हैं उन पर बात करना ज्यादा जरूरी है। फिल्म युवाओं में सोशल मीडिया की लत को दर्शाती है। फिल्म का ही एक सीन उठाएं तो अहाना का प्रेमी रोहन (रोहन गुरबक्सानी) जब उसे छोड़कर तान्या (कैट क्रिस्टन) के साथ रोमांटिक रिश्ते में जुड़ता है। तब अहाना एक बिना सोचे समझे अपरिचित नाम से इंस्टाग्राम पर अकाउंट बनाकर रोहन और तान्या को स्टॉक करने लगती है। रोहन का ध्यान दोबारा अपनी ओर लाने के लिए अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर अपनी ऐसी निजी तस्वीरें देती है जिससे देखने वाले को यह महसूस हो कि वो असल जिंदगी में बहुत खुश है। वहीं असल में अहाना जीवन में तो ब्रेकअप से बेहद दुखी है।
सोशल मीडिया पर दिखाया जाता है अलग छवि
साइकोलॉजिस्ट डोनाल्ड डबल्यू विनिकॉट ने फॉल्स सेल्फ का कॉन्सेप्ट दिया था। क्या है यह फॉल्स सेल्फ? ‘एक कृत्रिम व्यक्तित्व जिसे लोग करीबी रिश्तों में विकास संबंधी आघात, सदमे और तनाव का दोबारा अनुभव करने से बचाने के लिए जीवन में बहुत पहले ही बना लेते हैं।’ सोशल मीडिया इस्तेमाल कर रहे लोग खास कर युवा यही कर रहे हैं। वे अपनी वह छवि (आत्म/सेल्फ) अपनी प्रोफाइल्स पर प्रस्तुत कर रहे हैं जो वे असल जीवन में है ही नहीं। ऐसा करने के बहुत उद्देश्य हो सकते हैं। जैसे फॉलोवर्स बढ़ाना, अकाउंट को मोनेटाइज कराना, बाकी लोगों के मुकाबले खुद को ज्यादा कामयाब दिखाना जो उनके इगो को संतुष्ट कर सके। फिल्म में अहाना यह स्वीकारती है कि वह असल में खुश नहीं थी। बस खुद को खुश दिखा रही थी। बात करें ईमाद (सिद्धांत चतुर्वेदी) के किरदार की तो वह एक ऐसा किरदार है जो लड़कियों से मिलने के लिए टिन्डर का अत्यधिक इस्तेमाल करता है। अमूमन एक बार मिलने के बाद उनसे वास्ता खत्म कर लेता है। सतही रूप से देखने पर लगता है कि वह एक सेक्स एडिक्ट है लेकिन दरअसल वह भावनात्मक अंतरंगता (इमोशनल इंटिमेसी) से डरने वाला, उससे दूर भागने वाला किरदार है जिसका कारण बचपन में उसके साथ हुआ यौन हिंसा है।
इमोशनल इंटिमेसी से भागते युवाओं की कहानी
इमाद इमोशनल इंटिमेसी से भागता हुआ व्यक्ति है और सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल से वह इस भाव से कहीं अधिक डरने लगता है। सोशल मीडिया की लत व्यक्ति को असल में आस-पास की दुनिया से काटने लगती है जिसके परिणाम व्यक्तित्व के हर पहलू पर देखने को मिलती है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन पर छपे एक अध्ययन के अनुसार, ऑनलाइन सोशल मीडिया का बढ़ा हुआ उपयोग आवश्यक रूप से भावनात्मक समर्थन में वृद्धि में तब्दील नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि सोशल मीडिया और एक बड़े ऑनलाइन सोशल नेटवर्क पर बिताया गया कुल समय न तो बड़े ऑफ़लाइन नेटवर्क से जुड़ा था और न ही किसी के ऑफ़लाइन नेटवर्क के साथ भावनात्मक रूप से करीब महसूस करने से जुड़ा था। यानि लोग जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के परिपेक्ष्य में खुद को कनेक्टेड बता रहे हैं, कनेक्टेड वर्ल्ड का हिस्सा कह रहे हैं, वे दरअसल आत्मीय रूप से अकेले हैं।
क्या सोशल मीडिया अकेलेपन से बचने का उपाय है
ईमाद का किरदार टिंडर की मदद से सिमरन (कल्कि केकलां) से मिलता है, उसे पसंद भी करने लगता है लेकिन बावजूद उसके टिंडर के माध्यम से अन्य लड़कियों से मिलना, ढूंढना नहीं छोड़ता जो इस तथ्य को दिखाता है कि ऑनलाइन दुनिया हमसे संतुष्टि जैसा भाव छीन रही है और अशांत बना रही है। इसी अशांत भाव को नील परेरा ( आदर्श गौरव) का किरदार दर्शकों के सामने लाता है। नील एक पर्सनल जिम ट्रेनर के रूप में काम करने वाला लड़का है जिसका सपना मुंबई में खुद की जिम खोलने का है। इस पेशे में बहुत जगह वह बेइज्जत महसूस करता है जो कहीं अपनी गलतियों से और कहीं वर्ग और समुदाय के सामाजिक विभाजन के कारण है। इससे कहीं ज़्यादा उसकी परेशानी का सबब है सोशल मीडिया पर लोगों की कामयाबी (जो असल में है भी या नहीं) को देख कर जलन, चिढ़ और खुद को कमतर महसूस करने का भाव। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अपने जीवन की बेहतरी के लिए कदम नहीं उठाने चाहिए। उसके लिए लड़ना नहीं चाहिए। लेकिन दूसरों की जिंदगी देख-देखकर अपनी जिंदगी पर अफसोस करना, हीन भावना से ग्रस्त होना खुद को नीचा समझना मानसिक रूप से हमें प्रभावित करता है और हम रिलेटिव डिप्रिवेशन का शिकार हो जाते हैं। यानि दूसरों की अपेक्षाओं या टिप्पणियों की तुलना में वंचित महसूस करना। वंचित महसूस करने के भाव व्यक्ति को गलत करने पर भी मजबूर कर देता है। फिल्म का एक सीन यह दिखाने में कामयाब रहता है।
हीन भावना में दूसरों की बातें सार्वजनिक करना
लाला (आन्या सिंह) जब नील के साथ लचर आर्थिक स्थिति के चलते संबंध में रहने से मना कर देती है, तब वह लाला के सोशल मीडिया अकाउंट को हैक करके ऐसी बातें सार्वजनिक करता है जिससे उसे काफ़ी ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता है। नील एक अपरिचित अकाउंट बनाकर उन सभी लोगों की प्रोफाइल पर बेकार कॉमेंट करता है जो उसकी स्थिति से बेहतर है, जिन्हें वह पसंद नहीं करता है। लाला और नील के मध्य जो भी हुआ हो इससे नील को यह अधिकार नहीं मिलता कि वह साइबर बुलीइंग करे। रिलेटिव डेप्रिवेशन से पीड़ित अच्छे खासे लोग ट्रोल बन रहे हैं। वे उन मौकों को, उस उम्र को भी गंवा रहे हैं जब वे कुछ बेहतर हासिल करने की ओर काम कर सकते हैं। यह भाव लोगों को साइबर हिंसा की ओर बढ़ा रहा है और इसका सबसे ज्यादा सामना महिलाएं कर रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 के बाद से 2021 में साइबर अपराध की घटनाओं की संख्या में 18.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन महिलाओं के खिलाफ ऐसे मामलों की संख्या में 28 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई है। फिल्म सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल के नतीजों पर बारीकी से निरीक्षण रखती हुई पेश नहीं आती है। ऑफलाइन दुनिया में दोस्त बनाने चाहिए; इसकी सलाह के साथ यह फिल्म खत्म होती है। लेकिन सोशल मीडिया एडिक्शन से क्या युवाओं की सिर्फ दोस्तियां, रिलेशनशिप्स ही खतरे पर हैं? अमेजन प्राइम पर कुछ ही दिन पहले ‘मस्त में रहने का’ फिल्म आई थी। नीना गुप्ता और जैकी श्रॉफ अभिनीत यह फिल्म बुढ़ापे में अकेले पड़ जाने की कहानी है। बच्चों के होते हुए भी माता- पिता का भावनात्मक रूप से अकेले पड़ जाना। क्या यह सोशल मीडिया की लत के तमाम नतीजों में से एक नतीजा नहीं है? दिन-रात विचार, तस्वीरें, अलग-अलग लोग पोस्ट कर रहे हैं। लेकिन क्या असल में वे अपने जीवन के पल को महसूस कर रहे हैं? क्या आप अपने होने को महसूस कर रहे हैं? खुद से खुद को हम खो तो नहीं रहे हैं? हमें सोचना चाहिए।