एक महिला अधिकांश समय रोजमर्रा की चीजों जैसे, घर-परिवार, बच्चे, काग़ज़ी कार्रवाई, किसी काम की समय सीमा, पैसा, खान-पान आदि कई विषयों के बारे में चिंतित रहती है। ये चिंताएं अक्सर उनके परिवार और परिजनों के स्वास्थ्य से भी जुड़ी होती है। इन चिंताओं के अलावा कुछ चिंताएं सामाजिक भी होती हैं, जिनसे से वो ख़ुद को अलग नहीं रख पाती। जैसे किसी अपने की मृत्यु, रोजमर्रा के जीवन की परेशानियां, प्राकृतिक अपदाएं, राजनीति और बच्चों के भविष्य के बारे में चिंता। लेकिन इन सारी बातों के बीच महिलाएं जाने-अनजाने में ख़ुद के बारे में सोचना भूल जाती हैं। या यूं कहें कि बचपन से उनको दी जाने वाली पितृसत्तात्मक शिक्षा में त्याग वो ज़रूरी पाठ होता है जिसे वो तमाम उम्र के लिए गांठ बांध लेती हैं। ऐसे में सारी ज़िंदगी दूसरों की चिंता करने वाली महिलाएं ख़ुद उपेक्षित रह जाती हैं। आम तौर पर महिलाओं को उम्र के अलग-अलग पड़ाव में स्वास्थ्य से संबंधित अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
बाल्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक होने वाले शारीरिक बदलाव से लेकर मानसिक स्वास्थ हो या सामाजिक दबाव, महिलाएं हमेशा से इन चिंताओं का बोझ अपने कंधे पर लिए चलती है। वैसे तो जन्म से ही लड़कियों को लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसका असर उनके आहार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी साफ़ देखने को मिलता है, जिससे वो कुपोषण से लड़ती रहती हैं। इससे उनका शारीरिक विकास बाधित हो जाता है। कुपोषित लड़कियों का शारीरिक और मानसिक रूप से संपूर्ण विकस नहीं हो पाता है। कभी-कभी तो कुपोषण से पीड़ित महिलाएं तमाम उम्र बीमारी से बाहर ही नहीं निकल पाती हैं। वहीं कई मामलों में उन्हें असमय मौत तक का सामना करना पड़ता है।
“जब मैं छठी कक्षा में थीं तब मेरे ही एक क़रीबी रिश्तेदार ने मेरे साथ यौन हिंसा की थी। इसके बाद से मुझे आत्मविश्वास की कमी, ख़ुद को दोषी मानने का स्वभाव, अवसाद, ख़राब स्वास्थ, मूड स्विंग, गुस्सा, चिड़चिड़ापन, और सुरक्षा का अभाव जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी मैं इन बातों को सोच कर डर जाती हूं।”
कैसे यौन हिंसा महिलाओं में चिंता का कारण है
यूनिसेफ के एक सर्वे के मुताबिक भारत में बाल्य अवस्था में मरने वालों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या अधिक है। महिलाओं को जन्म से लेकर माँ बनने तक, या उसके बाद और उससके पहले भी शारीरिक, मानसिक, यौन हिंसा का डर रहता है। आम तौर पर महिलाओं के शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और अन्य जरूरतों को महत्व नहीं दी जाती।
यौन हिंसा की सर्वाइवर मुस्कान (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “जब मैं छठी कक्षा में थीं तब मेरे ही एक क़रीबी रिश्तेदार ने मेरे साथ यौन हिंसा की थी। इसके बाद से मुझे आत्मविश्वास की कमी, ख़ुद को दोषी मानने का स्वभाव, अवसाद, ख़राब स्वास्थ, मूड स्विंग, गुस्सा, चिड़चिड़ापन, और सुरक्षा का अभाव जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी मैं इन बातों को सोच कर डर जाती हूं।” इसी तरह हर वो लड़की जो बचपन, युवा अवस्था या उसके बाद भी अगर यौन हिंसा का सामना करती हैं, कमोबेश मुस्कान की तरह ही शारीरिक और मानसिक समस्या का सामना करती हैं।
बाल विवाह से उपजी चिंता और समस्याएं
महिलाओं के ख़राब स्वास्थ के पीछे कुपोषण और यौन हिंसा के साथ-साथ बाल विवाह भी बेहद अहम चिंता का कारण है। भारत में बने बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत बाल विवाह को अपराध घोषित किया गया था। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी के दो दशक पार कर जाने के बाद भी वैधानिक रूप से बाल विवाह कम होता नहीं दिख रहा।
यूनिसेफ के आंकड़ों के अनुसार भारत में हर साल 18 साल से कम उम्र में करीब 15 लाख लड़कियों की शादी हो जाती है जिसके कारण भारत में दुनिया की सबसे अधिक बाल वधुओं की संख्या है, जो विश्व की कुल संख्या का तीसरा भाग है। छोटी उम्र में युवतियों का शरीर प्रजनन के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होता जिससे शादी के बाद उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्या का सामना करना पड़ता है। कम उम्र में प्रजनन के दौरान उनकी मौत तक हो जाती है।
शकीना बचपन में एक होनहार छात्रा थी। वो बताती हैं, “मैं पढ़-लिख कर कुछ बनना चाहती थी। लेकिन बचपन में विवाह ने मेरी ज़िंदगी की दिशा और दशा दोनों बदल दी।”
छोटी उम्र में माँ बनने से चिंता और परेशानियां
बिहार के पूर्णिया जिले की शकीना (बदला हुआ नाम) से बात करने पर पता चलता है कि उनकी शादी 16 वर्ष की कम उम्र में हो गई थी। शादी के 4 साल के भीतर वो दो बच्चों की माँ बन चुकी हैं। बाल विवाह के कारण बहुत छोटी उम्र में उनपर घर की ज़िम्मेदारियों का बोझ आ गया है। कम अंतराल में दो बच्चियों को जन्म देने के कारण उन्हें स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या जैसे लगातार कमर दर्द, कमज़ोरी और एनीमिया का सामना करना पड़ रहा है। शकीना के पति का भी उनके स्वास्थ्य पर खर्च करते हुए अब आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रही। दो लड़कियों की माँ बनने और ख़राब आर्थिक स्थिति की वजह से शकीना पर लगातार मानसिक दबाव भी बना रहता है। शकीना बचपन में एक होनहार छात्रा थी। वो बताती हैं, “मैं पढ़-लिख कर कुछ बनना चाहती थी। लेकिन बचपन में विवाह ने मेरी ज़िंदगी की दिशा और दशा दोनों बदल दी।”
यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं और चिंताएं
युवा अवस्था में आते ही महिलाओं में शारीरिक और मानसिक बदलाव के साथ-साथ समाज के बदलते नज़रिए का भी प्रभाव पड़ता है। इस समय शरीर में कई तरह के हार्मोनल बदलाव का होना और पीरियड्स से महिलाओं में अनेक तरह की दिक्क़ते हो सकती हैं। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक देश में सिर्फ़ 64 फ़ीसदी महिलाएं ही पीरियड्स के दौरान सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। वहीं देश के कई हिस्सों में कपड़ा, राख और घास जैसी असुरक्षित चीज़ें इस्तेमाल किया जाता है। इससे महिलाओं में इंफेक्शन का ख़तरा बढ़ जाता है और हर साल लगभग 8 लाख महिलाओं को अपनी जान तक गवानी पड़ती है। पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं और चिंताओं का भी अक्सर मजाक बनाया जाता है।
पीसीओडी से पीड़ित अदिति (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “जब 12 साल के उम्र में पीरियड्स शुरू हुई तो मैं घबरा गई। लेकिन फ़िर समझ गई कि ये महिलाओं की ज़िंदगी का हिस्सा है। लेकिन समस्या कुछ दिनों बाद शुरू हुई जब मेरे पीरियड 2-3 महीने के बाद आते थे। उस दौरान मुझे असहनीय दर्द, हैवी फ्लो, कमज़ोरी, चक्कर और बेहद चिड़चिड़ापन होता था। लेकिन सही ईलाज और संतुलित खान-पान से अब वो बहुत हद तक ठीक हुआ है।”
गर्भावस्था में स्वास्थ्य समस्याओं की चिंता
लेकिन ऐसी कई लड़कियां हैं जिन में जागरूकता की कमी, खराब आर्थिक स्थिति और चिकित्सा तक पहुंच ना होने के कारण लंबे समय तक इन स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जब महिला गर्भवती होती है और बच्चे को जन्म देती है, तब भी वह अनेक चिंता और परेशानियों का सामना करती है। प्रेगनेंसी के दौरान महिलाओं में पोषण और देखभाल की कमी से प्रजनन स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। पांच राज्यों में हुए ‘जच्चा-बच्चा सर्वे’ से पता चलता है कि गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की विशेष आवश्यकताओं की अनदेखी की गई। जैसे, अच्छा भोजन, अतिरिक्त आराम, स्वास्थ्य देखभाल,गर्भावस्था के दौरान और बाद में अतिरिक्त आराम, पौष्टिक भोजन की कमी शामिल हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार दुनिया भर के 125 देशों में भारत 111वें पाएदान पर है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सबसे ज़्यादा कुपोषित बच्चे रहते हैं।
महिलाओं में लगातार चलने वाले शारीरिक और मानसिक बदलाव के कारण बढ़ती उम्र में उन्हें उच्च रक्तचाप, हृदय संबंधी रोग और मधुमेह जैसे रोगों का सामना करना पड़ता है। महिलाएं परिवार और घर की ज़िम्मेदारियां की वजह से अपना ध्यान नहीं रख पाती जिसके कारण उन्हें डिप्रेशन का भी सामना करना पड़ता है। वैसे तो चिंता और डिप्रेशन की समस्या ज्यादातर कामकाजी महिलाओं में देखने को मिलती है। लेकिन शोध के अनुसार, भारत में महिलाओं में पुरुषों की तुलना में एंग्जाइटी और अवसाद अधिक है। इतनी समस्याओं और चिंताओं के बाद भी एक महिला बहुत सुचारू रूप से अपने घर-परिवार को लेकर चलती है। ऐसे में घर और समाज और सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह महिलाओं की उपेक्षा ना करे। उनके स्वास्थ्य की देखभाल की ज़िम्मेदारी ले और एक सुचारु स्वास्थ्य व्यवस्था तैयार करे, जहां महिलाएं चिंता मुक्त रहकर स्वस्थ ज़िंदगी जी सके।