भारत की जाति व्यवस्था शायद दुनिया की सबसे लंबे समय तक चले आ रही भेदभावपूर्ण सामाजिक पदानुक्रम की व्यवस्था है।धर्म की एक परिभाषित विशेषता, जाति अनुष्ठान शुद्धता के आधार पर सामाजिक समूहों के एक जटिल क्रम को शामिल करती है। एक व्यक्ति को उस जाति का सदस्य माना जाता है जिसमें वह पैदा हुआ है और मृत्यु तक उसी जाति के भीतर रहता है। कई बार अंतरजातीय विवाह से होने वाले संतान को भी जातीय भेदभावों से गुजरना पड़ता हैं। कई बार इन बच्चों को अपने ही परिवार के सदस्यों से जातिवादी भाषा, व्यवहार और आचरण का सामना करना पड़ता है। यह प्रमुख तौर से ऐसे परिवारों में होता है जहां महिला यानी कि माँ की जाति को रूढ़िवादी समाज कथित तौर पर नीची जाति समझता है।
परिवार के सदस्यों के ही इन जातिगत भेदभाव, टिप्पणियों और अनुचित व्यवहार से, बच्चों में कुंठा, अवसाद या चिंता की संभावना होती है। संकुचित माहौल से इन बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य ख़तरे में आता है। बच्चे का शरीरिक और मानसिक विकास और स्वास्थ्य में समस्याएं उत्पन्न होती हैं। ऐसे व्यवहार से बच्चे के मासूम मन पर एक डर का साया बैठ जाता है। उनका बचपन छीन छीना जाता हैं और वो आगे चलकर समाज का सामना करने से वे घबराते हैं। एक लड़की अपने जीवन में सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक तौर से सक्षमता पाने के लिए, अपनी माँ को बेहतर ज़िंदगी देने के लिए अपनी उच्च-शिक्षा पूरी कर रही हूँ, जिसके माता-पिता का विवाह एक अंतरजातीय विवाह था। उसके परिवार में उसे भेदभाव भरे व्यवहार का सामना करना पड़ा।
वह बताती है कि उसके माता-पिता का प्रेम विवाह था। दोनों एक अंतरजातीय शादी में बंधे हैं। मेरे पिता ऐसे जाति से आते हैं जिसे समाज कथित रूप से उच्च जाति समझता है। उसके उलट मेरी माँ को कथित तौर पर नीची जाति का समझा जाता है। दोनों परिवारों ने इस शादी का विरोध किया था। लेकिन सारे सामाजिक मानदंड को झुठलाते हुए दोनों ने साथ रहने का फ़ैसला किया।
शादी के बाद क्या हुई स्थिति
शादी के बाद ससुराल में विरोध के कारण मेरी माँ को किसी और जगह किराए के मकान में रखा गया। मेरे पिता हमारे साथ न रहकर, आना-जाना किया करते थे। मेरे पिता का व्यवसाय था और वहां मेरी माँ व्यवस्थापक के तौर पर काम करती थी। दोनों एक-दूसरे के साथ प्रेम-संबंध में आए और दोनों ने साथ रहने का फ़ैसला किया। लेकिन मेरे पिता फिर भी उनके परिवार के बोझ में दबे थे जिसके कारण मेरी माँ को काफ़ी-कुछ सामना करना पड़ता था। आख़िर अपने परिवार की बात को न मानकर, मेरे जन्म के तीन साल बाद यानी शादी के पाँच साल बाद मेरी माँ को अपने ससुराल में जगह मिली।
अपने परिवार वालों से मिला तिरस्कार
हमारा संयुक्त परिवार था, जिसमें मेरी दादी, चाचा-चाची और मेरे चचेरे भाई-बहन थे। दो बहने बड़ी थी और भाई मुझसे 1-2 साल बड़ा था जिसके साथ मैं खेला करती थी। अक्सर खेलते हुए मेरी दादी उसे डांटती कि कितनी बार बोला हैं उसके साथ खेला मत करो। उन्हें मैं कभी भी पसंद नहीं थी। वह हमेशा मुझ पर चिल्लाती, भला-बुरा कहती और मेरा बाल मन दुखाती। यह उनका रोजाना का काम था। मेरी माँ दिनभर हमारे दुकान में होती थी और रात को ही घर आया करती थी। मैं स्कूल के बाद घर में रहने के कारण और मेरी माँ घर ना होने का फ़ायदा उठाकर वो मेरी माँ का ग़ुस्सा मुझपर निकाला करते। वहीं मेरी माँ को मेरे पिता के वजह से घरेलू हिंसा का सामना भी करना पड़ा। वो उन्हें घर में बिलकुल भी रहने नहीं देते थे जिसकी वजह से बचपन में वो मुझे भी समय नहीं दे पाई। मेरा जीवन लगातार इसी तरह अपमान और भेदभाव में गुजर रहा था। एक घटना मुझे बहुत अच्छी तरह याद है।
मेरी दादी की जातिसूचक बातें
मेरी उम्र 10-12 साल की होगी। मुझे काफ़ी तेज बुख़ार था और मैं बिस्तर पर लेटी हुई थी। माँ भी दुकान पर थी। मेरी दादी ने मेरे पास आकर कहा कि मैं उन्हें एक चीज बाज़ार से ला दूँ। मुझे इतना बुख़ार था कि मैं उठ नहीं पा रही थी। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि क्यों मेरी दादी उस अवस्था में यह कह रही है। मैं गुस्से में अपने दादी पर चिल्लाई कि क्या आपको दिखता नहीं है कि मुझे तेज बुख़ार है। मैं कैसे जाकर लेकर आऊँ? लेकिन मेरी दादी इतना सुनते ही गुस्से में आ गई।
उन्होंने मुझसे कहा कि मैं इतना खाती-पीती हूँ तब तो मेरी तबीयत ख़राब नहीं होती। लेकिन एक काम भी मैं नहीं कर रही हूँ। उन्होंने गुस्से और आवेश में सीधे मुझे मेरी माँ से तुलना कर जातिसूचक बातें कहने लगी। मां के कामकाजी होने की बात जानते हुए भी वह उन्हें और मुझे भी उस वक्त घर के काम न करने के लिए कोसने लगी। उन्होंने हमें जी भरकर कोसा कि पता नहीं मेरी माँ इस परिवार का हिस्सा कैसे बन गईं। साथ ही यह भी कहा गया कि क्यों नहीं हम इस परिवार से दूर कहीं और रहते हैं।
धार्मिक कामों में मुझे और मेरी माँ को शामिल नहीं किया जाता
मेरे पिता एक हिंदू जाति से हैं जो धार्मिक कार्यों में काफ़ी विश्वास रखते हैं। महाराष्ट्र में गौराई को उत्सव के तरह मनाया जाता है जहां घर के सबसे बड़े बेटे घर में 3 दिनों के लिए गौराई की स्थापना करते हैं। परिवार के लोग पूजा-अर्चना करते हैं। मेरे बड़े चाचा जो सातारा में रहते थे, उनके घर पर गौराई का उत्सव होता था। मेरी दादी, चचेरे भाई-बहन और चाची हर साल इस पूजा के लिए वहां जाते। लेकिन मुझे कभी लेकर नहीं जाया गया। जब भी भाई वापस आता, तो जानने को मिलता कि वहां कितना मजे करने को मिलते हैं। इसीलिए मेरी भी वहां जाने की इच्छा रहती। एक बार जब ये त्योहार आया, तो मैंने अपने पिता से जिद करी कि मुझे भी जाना है। मेरे पिता ने मुझसे पूछा कि क्या मैं माँ के बिना दादी के साथ रह पाऊँगी। मुझे उत्सुकता इतनी थी कि मैं किसी भी हालत में वहां जाना चाहती थी।
इसलिए, पापा ने दादी को मनाकर मुझे उनके साथ सातारा भेज दिया। लेकिन वहां कोई रिश्तेदार मुझसे ज़्यादा बात नहीं कर रहा था। जब देवी की स्थापना का समय आया, तब मुझे एक कमरे में भेज दिया गया और अंदर ही खेलने को कहा गया और वक्त आने पर बुलाने का आश्वासन दिया गया। लेकिन सीधा दल देवी की पूजा होने के बाद खाने के लिए ही मुझे कमरे से बुलाया गया। तीसरे दिन जब देवी का विसर्जन होता हैं, तब देवी को पहनायी गई सफ़ेद धागे की माला को घर के सभी सदस्यों को पहनाई गई। लेकिन मेरे मांगे जाने पर भी उन्होंने धागा ख़त्म हो जाने की दलील देकर माला देने से इंकार कर किया। मेरे बाल-मन पर इन सब भेदभावों के वजह से आत्मविश्वास की कमी होने लगी थी, जिससे लोगों से बात करने से मैं डरती लगी।
मेरा ननिहाल जाना और पिता का गुस्सा
जहां मुझे पिता के घर के रिश्तेदार सिर्फ़ दूर करते थे वहीं अपने ननिहाल में, मैं सबकी चहेती थी। मैं घर की पहली नाती थी इसीलिए मेरे नाना-नानी का प्रेम भी काफ़ी ज़्यादा था। मेरी मौसियाँ जोकि बड़ी बहन के उम्र की थी, वो मुझे बहुत प्यार करती। जब मैं ननियाल जाती तब हमेशा के लिए उनके पास रुकने का ही मन करता था। हर साल गर्मियों की छुट्टियों में, मैं अपने नानियाल में हुआ करती थी। लेकिन मेरे ननियाल में सब दलित समुदाय से होने के कारण मेरा वहां जाना मेरे पिता को पसंद नहीं था। मेरे पिता की सोच थी कि ऐसे गंदे लोगों के बीच मुझे न भेजा जाए। उनकी ऐसी जातिवादी सोच के बावजूद मेरे वहां जाने पर वह इस बात का गुस्सा माँ के साथ शारीरिक हिंसा कर निकालते। इस वजह से मैंने अपने ननिहाल जाना बंद कर किया। घर में परिवार के लोग तानाकशी करते। इस विवाह में मेरा कोई दोष ना होते हुए भी दूसरों से मैंने बचपन से अपने लिए तिरस्कार और हीन भावना सहा है।
तब पता नहीं चलता था कि आख़िर ऐसा व्यवहार क्यों लेकिन आज जब समझ आता है, तब ऐसे लोगों के शक्ल देखने की भी इच्छा नहीं होती। अक्सर पितृसत्तात्मक समाज में पिता की जाति ही बच्चे की जाति मानी जाती है। लेकिन खुद के परिवार में मुझे मेरी माँ के दलित होने के वजह से जातिवाद का सामना करना पड़ा। रूढ़िवादी परिवार के संकुचित सोच के वजह से मुझे अपने परिवार के सदस्यों ने कभी नहीं अपनाया। यह धार्मिक कट्टरता लोगों को प्रताड़ित करती है। जहां आज देश चांद पर जा चुका है, वहीं लोग आज भी जातिवाद में फंसे पड़े हैं। आख़िर क्यों आज भी समाज इंसान के बजाय जाति को इतना महत्व देती है?