भारत में रोजगार हमेशा से एक चिंता का विषय रहा है। एक दशक में जहां आय को महज जीने का जरिया माना जाता था, आज धीरे-धीरे यह न सिर्फ जीने बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्थिति बताने का जरिया बन चुका है। रोजगार से सीधे तौर पर सरकार को जोड़ा जाता है। सरकारों ने कैसी नीति लाई या कितने उद्योग लाए जिससे लोगों को लाभ हुआ। पिछले एक दशक की बात करें, तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2014 चुनाव के पहले से ही रोजगार के वादे करती आई है। पर मौजूदा आंकड़े बढ़ती बेरोजगारी की ओर इशारा करते हैं। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी) का जारी ‘भारत रोजगार रिपोर्ट’ के अनुसार, भारत के युवा बढ़ती बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल बेरोजगार कार्यबल में से लगभग 83 फीसद युवा हैं। रिपोर्ट के अनुसार कुल बेरोजगार युवाओं में कम से कम माध्यमिक शिक्षा प्राप्त शिक्षित युवाओं का अनुपात 2000 में 35.2 प्रतिशत से लगभग दोगुना होकर 2022 में 65.7 प्रतिशत हो गया है।
भाजपा ने अपने 2014 के घोषणापत्र में वादा किया था कि वह युवाओं को नौकरी के अवसरों से जोड़ने के लिए रोजगार कार्यालयों को कैरियर केंद्रों में बदल देगी। पार्टी ने यह भी कहा था कि यह श्रम-केंद्रित विनिर्माण और पर्यटन पर ध्यान केंद्रित करेगा। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन पर भी जोर दिया गया था। अब कुछ साल पीछे चलते हैं जहां साल 2019 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर कोई आपके कार्यालय के सामने पकौड़े की दुकान खोलता है, तो क्या वह रोजगार के रूप में नहीं गिना जाएगा? असल में बात कभी भी सिर्फ रोजगार की नहीं होती। रोजगार में काबिलियत के अनुसार उचित, सुरक्षित और गरिमापूर्ण काम की बात होनी चाहिए।
भारत रोजगार रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक शिक्षा के बाद स्कूल छोड़ने वाले विद्यार्थियों में खासकर गरीब राज्यों और हाशिए पर रहने वालों की संख्या ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार, उच्च शिक्षा में बढ़ते नामांकन के बावजूद, गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं है। साल 2000 और 2019 के बीच युवा रोजगार और अल्परोजगार में वृद्धि हुई, लेकिन कोविड-19 महामारी के दौरान इसमें गिरावट देखी गई। हालांकि शिक्षित युवाओं ने इस अवधि के दौरान काफी बड़े स्तर पर बेरोजगारी का सामना किया है। ऐसे में जब सरकार पकौड़े बनाने को भी रोजगार विकल्प के तरह मानती है, तो समझ आता है कि सरकार हर नौकरी को बराबर सम्मान देने की मंशा से पढ़े-लिखे युवाओं को किस कदर हताश कर रही है।
वेतन में स्थिरता, गिरावट और असमानता
वेतन के मामले में बात करने से पहले जीवनयापन मज़दूरी और न्यूनतम मज़दूरी के अंतर को समझना भी जरूरी है। आईएलओ ने ‘जीवनयापन वेतन’ को देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और सामान्य घंटों के दौरान किए गए काम के लिए गणना की गई श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए एक सभ्य जीवन स्तर वहन करने के लिए आवश्यक वेतन स्तर के रूप में परिभाषित किया गया है। इसकी गणना जीवनयापन मजदूरी के आकलन के सिद्धांतों के आधार पर की जाती है। इसके उलट, न्यूनतम वेतन किसी निश्चित अवधि के दौरान किए गए कार्य के लिए नियोक्ताओं द्वारा कर्मचारियों को भुगतान की जाने वाली कानून द्वारा आवश्यक न्यूनतम पारिश्रमिक राशि है।
हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में वेतन काफी हद तक स्थिर रहा है या उसमें गिरावट आई है। नियमित श्रमिकों और स्व-रोजगार व्यक्तियों के लिए वास्तविक वेतन में साल 2019 के बाद गिरावट देखने को मिली है। वहीं, अकुशल आकस्मिक श्रमिकों के एक बड़े तबके को साल 2022 में अनिवार्य न्यूनतम वेतन तक नहीं मिला है। पिछले दिनों के मीडिया रिपोर्टों के अनुसार भारत साल 2025 तक अपनी न्यूनतम वेतन प्रणाली को जीवन निर्वाह वेतन से बदलने के लिए तैयारी कर रहा है। द इकनॉमिक टाइम्स के अनुसार भारत में 500 मिलियन से अधिक श्रमिक हैं, जिनमें से 90 फीसद असंगठित क्षेत्र में हैं। हालांकि कई लोग दैनिक न्यूनतम वेतन 176 रुपए या उससे अधिक कमाते हैं। राष्ट्रीय वेतन स्तर, जो 2017 से स्थिर है, राज्यों में लागू करने योग्य नहीं है और यह वेतन भुगतान में असमानता का कारण बनता है।
डिजिटल साक्षरता कितना जरूरी है
बदलती दुनिया के साथ-साथ आज नौकरी के लिए केवल पढ़ाई नहीं, डिजिटल ज्ञान और स्किल सेट होना ज़रूरी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय 2023 के आंकड़ों के अनुसार बमुश्किल 27 प्रतिशत युवाओं ने कहा कि वे फाइल संलग्नक कर के ई-मेल भेजना जानते हैं। यानि 90 फीसद भारतीय युवा स्प्रेडशीट में गणित के फॉर्मूला डालने में असमर्थ हैं और 60 फीसद फ़ाइलें कॉपी और पेस्ट नहीं कर सकते हैं। केवल 10 प्रतिशत ने कहा कि वे स्प्रेडशीट में बुनियादी अंकगणितीय सूत्रों का उपयोग कर सकते हैं। वहीं केवल 9 प्रतिशत ने कहा कि वे किसी भी सॉफ्टवेयर का उपयोग करके इलेक्ट्रॉनिक प्रस्तुति बना सकते हैं।
क्या है महिलाओं की स्थिति
देश में लैंगिक समानता के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू है कि न सिर्फ महिलाएं कार्यबल में हिस्सेदार बने बल्कि समान काम के लिए समान वेतन, सुरक्षित कामकाजी जगह और आगे बढ़ने के मौके मिले। बार्कलेज की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत की 8 फीसद जीडीपी वृद्धि का रास्ता महिला कार्यबल में वृद्धि और श्रम उत्पादकता में सुधार से ही हो सकता है। वर्तमान में महिला श्रम बल भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) 37 फीसद है। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट 2023 से पता चलता है कि निम्न स्तर की शिक्षित वृद्ध महिलाएं कार्यबल से बाहर हो रही हैं।
साथ ही, उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त युवा महिलाएं इसमें प्रवेश कर रही हैं। हालांकि ये एक अच्छा संकेत है पर हमें हर उम्र की महिलाओं के लिए सुरक्षित कामकाज सुनिश्चित करना होगा। भारत रोजगार रिपोर्ट महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी की कमी के साथ श्रम बाजार में बढ़ते लैंगिक अंतर पर भी प्रकाश डालती है। युवा महिलाओं, विशेषकर उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं को रोजगार हासिल करने में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वहीं, रिपोर्ट में बताया गया है कि सामाजिक असमानताओं के चलते अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को बेहतर नौकरी के अवसरों तक पहुंचने में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
अनौपचारिक रोजगार में लगे हैं लोग
भारत रोजगार रिपोर्ट के अनुसार 2019 के बाद विशेष रूप से, रोजगार में वृद्धि काफी हद तक स्व-रोजगार श्रमिकों में हुई है, जिसमें एक महत्वपूर्ण हिस्सा अवैतनिक पारिवारिक श्रमिकों का था, जिनमें मुख्य रूप से महिलाएं शामिल थीं। रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक अनौपचारिक रोजगार में लगे हुए हैं। इसके अलावा, नियमित रोजगार की हिस्सेदारी, जिसमें 2000 के बाद लगातार वृद्धि देखी गई थी, उसमें 2018 के बाद गिरावट देखी गई। यह रिपोर्ट व्यापक आजीविका असुरक्षाओं को बताती है जो विशेष रूप से उन लोगों के बीच है जो सामाजिक सुरक्षा के दायरे में नहीं आते हैं। रिपोर्ट के अनुसार अनुमान है कि शहरीकरण और प्रवासन दर में वृद्धि होगी।
यह अनुमान लगाया गया है कि साल 2030 तक पलायन दर लगभग 40 प्रतिशत होगी और पलायन के कारण पर्याप्त शहरी जनसंख्या वृद्धि होगी। बता दें कि महिलाओं के साथ सिर्फ यह समस्या नहीं है कि पुरुषों के माध्यम से वे विस्थापन और पलायन का हिस्सा बनती हैं, बल्कि वे शहर जाकर भी मूल रूप से अकुशल श्रमिक की तरह ही काम कर पाती हैं। महिलाओं के पलायन से उनकी शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और वैतनिक कार्य बल में उनकी भागीदारी प्रभावित होती है। हमें यह ध्यान देना है कि न सिर्फ महिलाओं को कार्यबल में हिस्सेदारी की जरूरत है बल्कि अवैतनिक कामों का बोझ भी कम किए जाने की तत्काल जरूरत है। गैर कृषक कामों के सृजन के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि युवाओं के लिए रोजगार का सृजन हो। वैश्विक स्तर पर भारत कदम से कदम मिलाकर चले, इसके लिए जरूरी है कि युवाओं का कौशल विकसित किया जाए। अच्छे वेतन और सुरक्षित माहौल में नौकरी करना सिर्फ बुनियादी जरूरत ही नहीं मानवाधिकार भी है।