इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगाः क्वीयर, रूढ़िवाद के मुद्दे को उठाती एक महत्वपूर्ण फिल्म

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगाः क्वीयर, रूढ़िवाद के मुद्दे को उठाती एक महत्वपूर्ण फिल्म

“एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा” फ़िल्म न सिर्फ़ होमोसेक्शुअलिटी और सेक्सुअल ओरियंटेशन पर केंद्रित है बल्कि समाज की बनाई हुई रूढ़ियों और मानदंडों को भी चुनौती देती है। फ़िल्म में प्यार, पहचान और सामाजिक मान्यताओं के बीच अस्तित्व की तलाश की जटिलताओं को उजागर किया गया है। 

कहते हैं कि साहित्य और सिनेमा समाज का दर्पण होते हैं। समाज की मान्यताओं, जटिलताओं और परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए साहित्य और सिनेमा सशक्त माध्यम हैं। इसमें भी सिनेमा की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ रही है, क्योंकि साहित्य एक वर्ग विशेष तक सीमित है। सिनेमा की पहुंच जन-जन तक है, इसलिए किसी भी समय के सिनेमा का प्रभाव समाज पर बहुत असरदार तरीके से पड़ता है। सिनेमा का संचार का वो माध्यम है जिसके ज़रिये लोगों के बीच आसानी से संदेश को पहुंचाया जा सकता है इसलिए इसकी अहमियत बहुत ज्यादा है।

आमतौर पर देखा गया है कि व्यावसायिक फ़िल्में जिन्हें हम मुख्यधारा की फिल्में भी कहते हैं, ज़्यादातर मनोरंजन को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। किसी भी फ़िल्म की सफलता महज़ बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से नहीं आंकी जा सकती। किसी भी फ़िल्म की सफलता उसके द्वारा समाज पर पड़ने वाले प्रभावों पर अधिक निर्भर करती है। समाज का चिंतनशील तबका जब हक़ीक़त से जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर बनी विचारोत्तेजक फ़िल्म देखना चाहे तो अक्सर उसे आर्ट फ़िल्मों का रुख करना पड़ता है लेकिन पिछले दशक में इसमें काफ़ी बदलाव आया है। मुख्यधारा की फिल्मों में भी हाशिए के समुदाय की बात की जा रही है। ऐसी ही एक फिल्म है,’एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।’

फ़िल्म न सिर्फ़ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों की प्रेम कहानी पर केंद्रित करती है, बल्कि रूढ़िवादी समाज की पारंपरिक मान्यताओं से हटकर चलने वाले लोगों के जीवन की कठिनाइयों को भी सामने लाती है।

यह फ़िल्म निर्देशक के तौर पर शैली चोपड़ा धर की पहली फिल्म है। इसके पटकथा लेखन में शैली के अलावा ग़ज़ल धारीवाल ने भी योगदान दिया है। ग़ौरतलब है कि ग़ज़ल ने इससे पहले अमिताभ बच्चन स्टारर वज़ीर फिल्म में सह पटकथा लेखक के तौर पर अपना डेब्यू किया था और लिपस्टिक अंडर माय बुरखा, क़रीब क़रीब सिंगल जैसी फ़िल्मों में अपने उम्दा संवाद लेखन का परिचय दिया है। इस फिल्म के मुख्य किरदारों में सोनम कपूर, अनिल कपूर, राजकुमार राव, जूही चावला और रेजिना कैसेंड्रा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। “एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा” परंपरागत लीक से हटकर एक ऐसी प्रेम कहानी पर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहती है, जिसे समाज के बहुसंख्यक तबके ने सदियों से हाशिए पर रखा हुआ है। 

जिस समाज में प्रेम ही एक वर्जित विषय (टैबू) की तरह माना जाता हो, उस समाज में क्वीयर संबंधों पर फ़िल्म बना देना एक चुनौतीपूर्ण काम है। यह फ़िल्म एक लेस्बियन जोड़े की प्रेम कहानी पर आधारित है। 6 सितंबर 2018 को जब सुप्रीम कोर्ट ने होमोसेक्शुअलिटी को कानूनी मान्यता और वैधता प्रदान की थी, उसके अगले ही साल फ़रवरी में रिलीज हुई इस फ़िल्म की टाइमिंग भी बहुत सटीक थी। फ़िल्म न सिर्फ़ होमोसेक्शुअलिटी और सेक्सुअल ओरियंटेशन पर केंद्रित है बल्कि समाज की बनाई हुई रूढ़ियों और मानदंडों को भी चुनौती देती है। फ़िल्म में प्यार, पहचान और सामाजिक मान्यताओं के बीच अस्तित्व की तलाश की जटिलताओं को उजागर किया गया है। 

फ़िल्म की मुख्य किरदार है, स्वीटी (सोनम कपूर) जो कि मोगा, पंजाब के एक पारंपरिक पंजाबी परिवार से है। स्वीटी (सोनम कपूर) के पिता बलविंदर सिंह की भूमिका असल ज़िंदगी में उनके पिता अनिल कपूर ने निभाई है। बलविंदर सिंह कपड़ों के जाने-माने व्यापारी हैं, जो पंजाब के मुकेश अंबानी के तौर पर प्रसिद्ध हैं। स्वीटी का भाई बबलू (अभिषेक दुहान) ही घर का एकमात्र ऐसा सदस्य है, जिसे स्वीटी की सच्चाई के बारे में पता होता है। हालांकि किसी भी आम पारंपरिक परिवार के भाई की तरह बबलू अपनी बहन से बहुत प्यार करता है, लेकिन उसके सेक्शुअल ओरियंटेशन की बात पचा नहीं पाता है। किशोरावस्था से ही स्वीटी को लड़कियों की तरफ रोमांटिक आकर्षण महसूस होता है।‌ एक बार हिम्मत करके वह अपनी क्रश के सामने अपने प्यार का इज़हार करने की कोशिश भी करती है, लेकिन स्कूल में सबके सामने उसका मज़ाक बन जाता है। इससे स्वीटी बुरी तरह से टूट जाती है और तभी वह तय करती है कि वह आगे इस दिशा में क़दम नहीं बढ़ाएगी और जीवन भर अकेली रहने का फैसला करती है। लेकिन एक शादी में उसकी मुलाक़ात कुहू (रेजिना कैसेंड्रा) से होती है। इस बार स्वीटी को कुहू की तरफ से बदले में प्यार और अपनापन मिलता है तो उसके मन में फिर से एक नई उम्मीद जन्म लेती है। 

कहानी में नया मोड़ तब आता है जब दिल्ली में स्वीटी की मुलाक़ात साहिल (राजकुमार राव) से होती है। वह एक संघर्षरत पटकथा लेखक है जो नाटकों के लिए लेखन करता है। वह अपने पिता की उम्मीद के विपरीत लेखन के अपने शौक को कॅरियर के तौर पर आगे बढ़ना चाहता है। यहां आम परंपरावादी भारतीय पिता की उम्मीदों को दिखाया गया है, जो कि बने-बनाए रास्ते पर ही चलने के आदी होते हैं। वहीं साहिल को स्वीटी से एकतरफा प्यार हो जाता है और वह नाटक के बहाने उसके शहर मोगा, पंजाब पहुंच जाता है। उसके साथ उसकी नाटक मंडली की सदस्य छत्रो (जूही चावला) भी आती है जो कि काफ़ी अल्हड़ किस्म की महिला है। छत्रो अभिनय के अपने सपने को पूरा करना चाहती है। बाद में स्वीटी के पिता बलविंदर सिंह और छत्रो के बीच हल्के-फुल्के अंदाज़ में आकर्षण दिखाया गया है।

तस्वीर साभारः Just Watch

“एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा” फ़िल्म को जो चीज़ अलग बनाती है, वह है मुख्यधारा के बॉलीवुड रोमांस के भीतर क्वीयर प्रेम संबंधों का संवेदनशील चित्रण। इस फ़िल्म में जहां क्वीयर समुदाय से होने के नाते स्वीटी की पहचान और आत्म स्वीकार्यता की यात्रा को दिखाया गया है, वहीं पारंपारिक रूढ़िवादी सांचे में ढले समाज के निश्चित मानदंडों के चलते अपने शेफ बनने के सपनों की कुर्बानी देने वाले बलविंदर सिंह की मजबूरी को भी बखूबी बयां किया गया है। फ़िल्म में होमोसेक्शुलिटी पर बने नाटक के मंचन और उस दौरान आई चुनौतियों का सटीक प्रदर्शन किया गया है। साहिल, पहली बार स्वीटी की सेक्शुलिटी को जानने के बाद जिस तरह से उसका मजाक उड़ाता है वह भी समाज की वास्तविकता है। इसके साथ ही धीरे-धीरे उसका विचार बदलते है और स्वीटी की दिलो जान से मदद करना भी उनके संवेदनशील व्यक्तित्व की गहराई को प्रदर्शित करता है। बाद में उसके द्वारा लिखे नाटक के माध्यम से एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की स्वीटी की प्रेम कहानी को समाज के सामने लाना फ़िल्म का टर्निंग प्वाइंट साबित होता है।

फ़िल्म न सिर्फ़ एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों की प्रेम कहानी पर केंद्रित करती है, बल्कि रूढ़िवादी समाज की पारंपरिक मान्यताओं से हटकर चलने वाले लोगों के जीवन की कठिनाइयों को भी सामने लाती है। बलविंदर सिंह जो शेफ बनना चाहता था उसे बीजी के दबाव में कपड़ों के व्यापारी के रूप में अपने सपनों को छोड़ना पड़ता है। यह फ़िल्म विद्रोह की कहानी भी है। फ़िल्म के आख़िर में बलविंदर सिंह द्वारा अपना रेस्टोरेंट खोलना हो या फिर स्वीटी का खुलेआम अपने लेस्बियन प्रेम संबंधों को स्वीकार करना बगावत का एक उदाहरण है।

हालांकि इसमें स्वीटी और कुहू की प्रेम कहानी के बीच की केमिस्ट्री और रोमांस को उतनी जगह नहीं मिली जितनी आमतौर पर फ़िल्मों में स्ट्रेट कपल्स को मिलती है। दरअसल  यह हमारे समाज की हक़ीक़त भी है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के जोड़ों को निजी ज़िंदगी में भी अपने प्रेम संबंधों को महसूस करने और जीने के मौके बहुत कम मिलते हैं। खुलकर प्रेम जता पाने के बजाय उन्हें अपनी ऊर्जा अपनी पहचान और प्रेम संबंध को छुपाने या फिर उसकी स्वीकार्यता के लिए परिवार और समाज के साथ संघर्षों में गुज़ारनी पड़ती है। इस तरह यह फ़िल्म क्वीयर युगल की अपनी पहचान, प्रेम, परिवार और समाज के बीच के अंतर्द्वंद्व को बेहतरीन तरीके से उजागर करती है। इसके अलावा फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी और गाने कहानी की ख़ूबसूरती बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं। 

यह फ़िल्म विद्रोह की कहानी भी है। फ़िल्म के आख़िर में बलविंदर सिंह द्वारा अपना रेस्टोरेंट खोलना हो या फिर स्वीटी का खुलेआम अपने लेस्बियन प्रेम संबंधों को स्वीकार करना बगावत का एक उदाहरण है।

इस तरह यह फ़िल्म समाज की बनाई अप्रासंगिक मान्यताओं और रूढ़ियों को तोड़ने का काम करती है। प्यार के इंद्रधनुषी स्वरूप को समाज के सामने लाती है। अपने प्रगतिशील विषय को संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत कर हाशिए के समुदाय को विमर्श करने के लिए उकसाती यह फ़िल्म मुख्यधारा के लिहाज़ से बेहद महत्त्वपूर्ण है। यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रतिनिधित्व के लिए एक महत्त्वपूर्ण क़दम है और इसका प्रभाव आने वाले वर्षों में निश्चित तौर पर समाज में सकारात्मक रूप से देखा जाएगा।


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