आम तौर पर जब हम किसी महिला या पुरुष के शरीर के बारे सोचते हैं, तो हम महिला के लिए छरहरा, कोमल शरीर और पुरुष के लिए सख्त, ऊंचा कदकाठी और मजबूत शरीर की कल्पना करते हैं। हमारी यह धारणा न सिर्फ पितृसत्तात्मक विचारधारा से प्रभावित है, बल्कि मेनस्ट्रीम सिनेमा भी एक अहम भूमिका निभाती आई है। बॉलीवुड ने भी हमेशा से यह धारणा बनाई है कि सुंदर महिला का मतलब पतली और गोरा चेहरा होना है। महिलाओं पर दुबले-पतले रहने और खान-पान पर ध्यान देने के सांस्कृतिक दबाव को एनोरेक्सिया नर्वोसा जैसे गंभीर खान-पान विकारों से जोड़ा गया है।
भारत में, 20वीं सदी के अंत तक खाने संबंधी विकार (ईडी) के मामले सामने नहीं आए थे। शायद, मीडिया और बॉलीवुड के सांस्कृतिक रूप से ‘साइज़ ज़ीरो’ शरीर के प्रकार का महिमामंडन और पतलेपन, शरीर को लेकर शर्मिंदगी और असंतोष की प्रवृत्ति ने, हाल ही में ईडी के मामलों में बढ़ोतरी किया है। लेकिन ये ध्यान देने वाली बात है कि लड़कियों के शरीर के मामले में बचपन से ही किशोरियों को घरों में एक निर्दिष्ट कदकाठी, चेहरे और शरीर की बनावट के लिए जोर दिया जाता है। महिलाओं में पतले होने की इच्छा सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक और यहां तक कि राजनीतिक पृष्ठभूमि से भी जुड़ा है। इसकी बढ़ती व्यापकता के बावजूद, ईडी एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी रिपोर्टिंग और शोध बहुत कम हुआ है। आज के परिदृश्य में स्वास्थ्य सेवा अनुसंधान और नीति नियोजन में ईडी पर अधिक ध्यान दिए जाने के कई कारण हैं। एनोरेक्सिया नर्वोसा (एएन) (जोकि ईडी का प्रोटोटाइप है) के मानसिक स्वास्थ्य विकारों में सबसे अधिक मृत्यु दर है।
पतले होने के सांस्कृतिक कारक
आज रास्तों, गली और नुक्कड़ों पर हमें ऐसे जिम के पोस्टर लगे मिलते हैं, जो ये दावा करते हैं कि शरीर को पतला करना कोई बड़ी बात नहीं। यहां तक कि आपके दोस्त या रिश्तेदारों के फेस्बूक पोस्टस पर ध्यान दें, तो कई बार जिन तस्वीरों पर वे मोटे हो जाने की चिंता जताते हैं, वे असल में चिंताजनक नहीं होता। सवाल ये भी है कि ये कैसे और कौन तय करेगा कि ‘पतला’ होना किसे कहेंगे। आज हमारे इंस्टाग्राम, फेस्बूक पर ही नहीं, बल्कि अखबार और टीवी पर भी सिर्फ एक निर्दिष्ट प्रकार के शरीर को पाने के लिए जनता को उकसाया जा रहा है। साइंस डायरेक्ट में छपे एक अध्ययन में दस भारतीय किशोरियों में वजन से असंतुष्टि के अनुभवों को दर्ज किया गया। शोध में उनके द्वारा वजन से असंतुष्टि की भावना में योगदान देने वाले कारकों, इसके कथित प्रभावों और उनकी इच्छित समर्थन पर गहराई से चर्चा की गई।
अध्ययन से पता चलता है कि वजन से असंतुष्टि इन किशोरियों और युवतियों की आत्म-भावना को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रतिभागियों ने माता-पिता, साथियों और मीडिया से मिलने वाले संदेशों को वजन कम करने के लिए ‘दबाव’ बनाने वाले ‘कारक’ के रूप में पहचाना। उनका मानना था कि वजन कम करने से बेहतर जीवन के अवसर और दूसरों से अधिक स्वीकृति मिलेगी। हालांकि प्रतिभागियों ने अपने शरीर के संबंध में कई नकारात्मक भावनाओं को महसूस करने की बात कही। लेकिन उन्होंने मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों से मदद या समर्थन की इच्छा ज़ाहिर नहीं की। इसके बजाय, उन्होंने परिवार और दोस्तों से मिलने वाले समर्थन को अधिक महत्वपूर्ण माना।
घरवालों और बाजारवाद का दबाव
इस विषय पर बताते हुए कोलकाता की तनु सरकार (नाम बदल हुआ) कहती हैं, “मैं महसूस कर रही थी कि काफी मोटी हो गई थी। घर पर भी लोग कहते थे और दफ्तर में खासकर मैं चूंकि कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम करती हूँ, तो ये एक प्रेशर की तरह काम कर रहा था। मैं अधिकतर समय खीरा, दही और रोटी खाने लगी ताकि वजन कम हो सके।” ध्यान देने वाली बात ये है कि भारत में सिर्फ पतला होना काफी नहीं, अक्सर एक निश्चित प्रकार के शरीर का ट्रेंड रहता है और उसी के अनुसार ये उम्मीद की जाती है कि महिलाएं वैसी दिखेंगी। हर समाज ने अपने तरीके से बार-बार यह बताया है कि महिलाओं को कैसा दिखना चाहिए या उन्हें क्या भूमिका निभानी चाहिए।
संस्कृति के अलावा, महिलाओं ने इन नियमों का समाज में स्वीकार्यता पाने के लिए पालन किया है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन में कर्नाटक के विद्यार्थियों पर ईडी का पता लगाने वाला एक शोध प्रकाशित किया गया। इस शोध के अनुसार, 26 से ज्यादा प्रतिभागी अपने असामान्य खाने के व्यवहार के कारण ईडी से ग्रस्त थे। शोध में वजन, कमर और कूल्हे की परिधि, बॉडी मास इंडेक्स, बेसल मेटाबॉलिक रेट, वसा प्रतिशत जैसे विभिन्न मापदंडों के संबंध में नियंत्रण और प्रतिभागियों के बीच महत्वपूर्ण अंतर पाया गया।
मैं महसूस कर रही थी कि काफी मोटी हो गई थी। घर पर भी लोग कहते थे और दफ्तर में खासकर मैं चूंकि कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम करती हूँ, तो ये एक प्रेशर की तरह काम कर रहा था। मैं अधिकतर समय खीरा, दही और रोटी खाने लगी ताकि वजन कम हो सके।
बात फिल्मों की करें, तो महिलाएं स्क्रीन पर किस तरह की भूमिकाएं निभाती हैं, यह अक्सर पुरुष निर्देशक की धारणा होती है। यह धारणा निर्देशक की मान्यताओं, दृष्टिकोण और मूल्यों पर आधारित होती है। साथ ही निर्देशक को यह भी लगता है कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं। यह एक चक्र के तरह चलते रहता है, जहां बदले में फिल्में दर्शक की अपेक्षाएं, उनकी मान्यताओं, दृष्टिकोण और मूल्यों पर आधारित होती हैं, जो उस सामाजिक ढांचे से आती हैं जिसमें वे रहते हैं, और निर्देशक भी उसी ढांचे में रहते हैं। इसलिए, हम अक्सर अभिनेत्रियों को एक निश्चित कदकाठी में देखते है और उसीको मानदंड समझते हैं।
पतले होने का दबाव और खाने संबंधी विकार (ईडी)
महिलाओं के शरीर को नियंत्रित करना, उनके व्यक्तित्व को नियंत्रित करने जैसा है और पुरुषों के तय मूल्यों के इर्द-गिर्द सामाजिक, सार्वजनिक व्यवस्था के अंतर्गत शरीर पर अधिकार के माध्यम से किया जाता है, और सही समझा जाता रहा है। आज की बेहद ‘पतली’ महिला के विवाह साथी की तलाश करने की संभावना कम है। वहीं कथित रूप से जो ‘मोटी’ हैं, उनके लिए भी समस्या वैसी ही है। बीएमसी पब्लिक हेल्थ में खाने के विकार और शारीरिक छवि के संबंध को खोजने के लिए पूर्वी भारत के मेडिकल के छात्राओं पर एक शोध किया गया। इस अध्ययन में प्रतिभागियों में खाने के विकार व्यवहार और कथित शारीरिक आकार, शारीरिक छवि, जीवन की गुणवत्ता और आत्म-सम्मान के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध पाया गया। यह भी पाया कि खाने के विकार की स्थिति बीएमआई, कथित शारीरिक आकार, जीवन की गुणवत्ता और आत्म-सम्मान से महत्वपूर्ण रूप से जुड़ी हुई थी।
पतलेपन का ईकानमी
स्लिमनेस अब खाद्य और दवा उद्योग के व्यावसायिक पृष्ठभूमि के तहत आ गया है, जो व्यक्तिगत खुशी, सामाजिक सफलता और सामाजिक स्वीकार्यता के नार्सिसिस्टिक लक्ष्यों की अधिक बात करता है। एक अध्ययन से पता चला है कि 80 फीसद पुरुष और महिलाएं एक आदर्श शरीर चुनते हैं, जो उनके वर्तमान शरीर के आकार से अलग होता है। साथ ही, आदर्श और वर्तमान शरीर के प्रकार के बीच इस तरह का अंतर खाने-पीने के व्यवहार से जुड़ी हुई है। अध्ययन में पाया गया कि 5 मिनट के लिए भी ‘पतली और आकर्षक मीडिया छवियों’ के संपर्क में रहने से महिलाओं में अपने शरीर के प्रति असंतोष बढ़ जाता है। साथ ही, जैसे-जैसे शरीर के प्रति बहुत ज्यादा असंतोष के साथ महिलाएं कॉलेज में प्रवेश करती हैं, उनके अव्यवस्थित खाने के लक्षण बिगड़ते जाते हैं। पत्रिकाओं के माध्यम से सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव भी महिलाओं में अव्यवस्थित खाने की प्रवृत्ति से जुड़ा हुआ है। हालांकि यह केवल मीडिया के संपर्क में आने से नहीं है, बल्कि कथित सामाजिक दबाव और उसके सामान्यकरण से भी है।
नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के एक अध्ययन में 18-25 वर्ष की आयु के भारतीय पुरुषों और महिलाओं में शारीरिक वजन और असंतोष, खान-पान के प्रति दृष्टिकोण और मीडिया के आंतरिककरण और दबाव के बीच संबंधों और लैंगिक अंतरों का पता लगाया गया। इसमें 31 फीसद महिलाओं और 22 फीसद पुरुषों ने अपने शरीर को लेकर असंतोष की सूचना दी। अध्ययन में पाया गया कि भारतीय मीडिया के सौंदर्य आदर्श को पूरा करने का दबाव, जो कि बड़े पैमाने पर कोकेशियन मानकों के अनुरूप हैं, खाने की विकृति और शरीर की छवि संबंधी चिंताओं का जोखिम पैदा कर सकता है। मीडिया पर दिखाई देने वाली अधिकांश मॉडलों का शरीर का वजन सामान्य शरीर के वजन से लगभग 20 फीसद कम होता है जोकि महिलाओं को हानिकारक रूप से प्रभावित कर रहा है।
शरीर से असंतुष्टि, भोजन संबंधी विकारों के विकास और उसके बने रहने के लिए प्रमुख जोखिम कारकों में से एक पाई गई है। समस्या ये है कि सांस्कृतिक, सामाजिक मानदंडों के अंतर्गत ये सामान्य लगने लगती है। भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 16 में से एक महिला और 25 में से एक पुरुष मोटापे से ग्रस्त है। महिलाएं अक्सर पतले होने के लिए कई प्रकार के डाएट करती हैं। लेकिन कितना पतला होने को हम स्वस्थ कह सकते हैं, इसकी जानकारी होना आम तौर पर संभव नहीं। जरूरी है कि हम गैर जरूरी मानकों को दरकिनार कर महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य के बारे में बात करें, ताकि उन्हें लंबे उम्र के साथ-साथ स्वस्थ जीवन भी मिले।