जबतक आप ये रिपोर्ट पढ़ रहे होंगे, तबतक किसी महिला या बच्ची के साथ यौन हिंसा या बलात्कार की घटना हो चुकी होगी। बलात्कार और यौन हिंसा की कानूनी परिभाषा की समझ भले आम जनता को न हो, लेकिन शायद बालिग महिलाओं के लिए ये समझना मुश्किल नहीं कि उनके साथ यौन हिंसा हुई है। हमारे देश में आए दिन नाबालिग बच्चियों के साथ भी यौन हिंसा और बलात्कार होता है। चूंकि देश में कॉम्प्रेहेंसिव सेक्सुअलिटी एजुकेशन की कमी है और भारतीय घरों में आम तौर बच्चों को इन चीजों पर कोई जानकारी नहीं दी जाती, ऐसी घटनाओं में न्यायालय की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे घटनाओं को किस तरह देखते हैं और क्या फैसला करते हैं। हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि नाबालिग लड़की के अंतःवस्त्र यानि अन्डर गार्मन्ट उतारना और उसके सामने नग्न होना धारा 376 सहपठित धारा 511 के अंतर्गत ‘बलात्कार करने का प्रयास’ नहीं माना जाएगा, बल्कि इसे धारा 354 के अंतर्गत ‘महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने का अपराध’ माना जाएगा।
क्या है मामला और उच्च न्यायालय ने क्या दी टिप्पणी
उच्च न्यायालय ने यह बात 33 वर्ष पुराने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कही, जिसमें शिकायतकर्ता की पोती – जो उस समय लगभग छह वर्ष की थी, उसके साथ कथित तौर पर यौन हिंसा किया गया था। शिकायत में यह बताया गया है कि आरोपी ने खुदके और सर्वाइवर के कपड़े उतारे, लेकिन इसमें यह आरोप नहीं लगाया गया है कि आरोपी ने यौन संबंध (पेनेट्रेशन) का प्रयास किया। जस्टिस अनूप कुमार ढांड ने कहा कि बलात्कार के प्रयास के तहत किसी कृत्य को दंडनीय बनाने के लिए ‘तीन चरण’ पूरे होने चाहिए। पहला जब अभियुक्त अपराध करने का विचार या इरादा रखता है, दूसरा जब वह इसे करने की तैयारी करता है, और तीसरा, जब वह अपराध करने के लिए जानबूझकर कदम उठाता है।
नाबालिग बच्चियों के साथ रेप में बढ़ोतरी और कोर्ट का नजरिया
बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था क्राई द्वारा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, सभी प्रकार के यौन हिंसा (पेनेट्रेशन) सहित बाल बलात्कार के मामलों में साल 2016 से 2022 तक 96 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। साल 2022 में, बाल बलात्कार और पेनेट्रेटिव यौन हिंसा के 38,911 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 में 36,381 मामलों से उल्लेखनीय वृद्धि को बताता है। 2020 के लिए संख्या 30,705 थी, और 2019 के लिए 31,132 थी। 2018 में 30,917 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2017 में 27,616 मामले दर्ज किए गए। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, साल 2016 में 19,765 मामले दर्ज किए गए। अगर हम न्यायालय के तर्क के अनुसार चलें, तो नाबालिग बच्ची के कपड़े उतरना और फिर खुदके कपड़े उतरने का कृत्य, दर्शाता है कि अपराध यौन हिंसा करने की मंशा से की गई थी।
बिना सहमति के गैर पेनेट्रेटिव यौन क्रियाएं पर अदालतों की राय
हालिया मामले को देखें तो साफ है कि चूंकि सर्वाइवर नाबालिग बच्ची है, तो कॉन्सेंट की बात शामिल नहीं है। ये भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि इतनी छोटी उम्र की बच्ची के लिए कोर्ट को यह बता पाना मुश्किल है कि आरोपी की मंशा क्या थी। इतिहास में जाएं, तो ऐसे केस हुए हैं जहां उच्च न्यायालय ने बिना सहमति के गैर पेनेट्रेटिव यौन क्रियाएं को बलात्कार माना है। केरल उच्च न्यायालय ने साल 2021 में एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि यौन संतुष्टि प्रदान करने वाले गैर- पेनेट्रेटिव कृत्य भी भारतीय कानून के तहत बलात्कार माने जाएंगे। लेकिन इससे पहले साल 2014 में बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने बलात्कार के एक दोषी की सजा कम करते हुए फैसला सुनाया था कि महिला के जननांगों पर पुरुष अंग को रगड़ना बलात्कार नहीं लेकिन ‘बलात्कार का प्रयास’ माना जाएगा।
पोक्सो अधिनियम की धारा 3 (सी) के अनुसार यदि कोई व्यक्ति बच्चे के शरीर के किसी हिस्से के साथ यौन हिंसा करता है जिससे योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या शरीर के किसी अन्य हिस्से में पेनेट्रेशन हो जाए या वह बच्चे को अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए मजबूर करे, तो उसे ‘पेनेट्रेटिव यौन हिंसा’ कहा जाएगा। फरवरी 2024 में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने दोषियों की सजा कम करते हुए कहा था कि आरोपी के लिंग से बच्चे की योनि को छूना, यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉस्को) अधिनियम की धारा 4 और 6 के तहत पेनेट्रेटिव यौन हिंसा नहीं माना जाएगा।
इस तथ्य के बावजूद कि बलात्कार को जघन्य और आपराधिक प्रकृति का अपराध माना जाता है, इसकी संख्या और भयावहता लगातार बढ़ रही है। इसलिए, यह विषय बहुत गंभीर और संवेदनशील है। आम तौर पर रेप सर्वाइवर इसकी दोहरी कीमत चुकाते हैं, जहाँ उन्हें शारीरिक और मानसिक आघात से जूझना पड़ता है, वहीं उन्हें घटना की पीड़ा की वैधता का बचाव करने का बोझ भी उठाना पड़ता है। आपराधिक न्याय प्रणाली अविश्वास और सबूत के माध्यम से चलती है, और सर्वाइवर के साथ सहानुभूति के बजाय अदालत उन्हें संदेह से देखती है।
महिलाओं से संबंधित यौन हिंसा के मामलों में दिए गए फैसले हमारे न्याय व्यवस्था में सदियों से जड़ें जमाए हुए लैंगिक पूर्वाग्रह और रूढ़िवाद को उजागर करते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति कई तरीकों से होती है। इनमें न्यायाधीशों का महिलाओं के खिलाफ़ कठोर, अपमानजनक और अनुचित टिप्पणी, आरोपी पर विश्वास और सर्वाइवर पर अविश्वास जैसे असंवेदनशील व्यवहार शामिल है। हमारी अदालतें आज भी अक्सर बलात्कार को एक महिला की पवित्रता, यौनिकता, और शादी की संभावनाओं के खिलाफ अपराध के रूप में देखती हैं। लेकिन अक्सर महिला की एजेंसी और कॉन्सेंट की बात नहीं होती।
महिलाओं की एजेंसी की बात
बलात्कार की घटना कितनी देर हुई, किस तरह हुई, किन हालात में हुई, या महिला या बच्ची ने आरोपी व्यक्ति के खिलाफ आवाज़ उठाई या नहीं, या उठाने की कोशिश क्यों नहीं की, ये सवाल मायने नहीं रखते। जरूरी नहीं कि जो महिला यौनिक रूप से ऐक्टिव भी हो, वो आरोपी के साथ यौन संबंध बनाना चाहेगी। अक्सर बलात्कार या यौन हिंसा में सामाजिक या पारिवारिक पावर डाइनैमिक्स काम करता है, जहां महिला या बच्ची के साथ यौन हिंसा सिर्फ इसलिए होती है कि आरोपी अपनी सत्ता स्थापित करना चाहता है। हर महिला को अपनी शरीर और यौन स्वायत्तता यानि औटोनोमी का अधिकार है। यौन स्वायत्तता का मतलब है कि एक महिला के पास यह तय करने का विकल्प है कि वह किसके साथ यौन संबंध में शामिल होना चाहती है, वह कब ऐसा करना चाहती है और वह किस तरह की यौन संबंध करना चाहती है। चूंकि बलात्कार ऐसी यौन स्वायत्तता और महिला की शारीरिक अखंडता का उल्लंघन करता है, इसलिए इसे अपराध माना जाना चाहिए।
समर्पण का मतलब महिला की सहमति नहीं
हालांकि हमारा कानून व्यवस्था बलात्कार की परिभाषा में पेनेट्रेशन या ओरल प्रक्रिया की बात करता है, जो जबरन किया गया हो, इसलिए ये यह तय नहीं करती व्यक्ति की मंशा क्या है। डर या आतंक के प्रभाव में अपने शरीर को समर्पित करना, आरोपी के यौन संबंध के प्रयास का विरोध न कर पाना, कॉन्सेंट या सहमति नहीं है। सहमति और समर्पण में अंतर है और अक्सर समाज और हमारी अदालतें इसे सबूतों और नैतिकता के आधार पर देखते हैं। हर सहमति में समर्पण शामिल होता है, लेकिन इसका उलट नहीं होता है और सिर्फ समर्पण का मतलब महिला की सहमति नहीं होती है। डर के माहौल में अक्सर लोग कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाते। लेकिन मनोवैज्ञानिक भाषा में कहें तो फ्रीज़ होना अपनेआप में एक सम्पूर्ण प्रतिक्रिया है। इसलिए, ऐसी स्थिति में सर्वाइवर को दोषी मानना उचित नहीं।
हमारे कानून में ‘महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने’ की बात भी असल में एक पितृसत्तात्मक सोच दर्शाती है, जहां किसी महिला को सिर्फ उसके ‘गरिमा’ से आँका जाता है। समस्या ये है कि हर महिला का पालन-पोषण, शिक्षा और जागरूकता अलग होती है, जिसमें पितृसत्ता एक अहम भूमिका निभाती है। ये भी जरूरी नहीं कि महानगर में रहने वाली किसी महिला को जो कृत्य ‘गरिमा को ठेस पहुंचाने वाली’ लगे, वो बिहार के छोटे से गांव की महिला को भी लगे या इसका उलटा हो।
समस्या ये है कि नीतिनिर्माण करने वालों में समावेशी नजरिए की कमी के कारण न्यायालय चाहे भी तो महिलाओं या हाशिये के समुदायों के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। महिलाओं के प्रति सही रूप में संवेदनशील फैसले के लिए, न्यायालयों को पितृसत्तात्मक नजरिए को त्याग कर सोचना और फैसला लेना होगा। महिलाओं को एक वस्तु के रूप में नहीं बल्कि उनके एजेंसी के साथ देखना होगा। साथ ही, हमारी अदालतों और समाज को महिलाओं के साथ हो रहे यौन हिंसा से बचने और उसका विरोध करने के लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराना बंद करना होगा।