इंटरसेक्शनलजेंडर सामाजिक आंदोलनों में आत्मदेखभाल: ज़रूरत, रणनीति और सशक्तिकरण का ज़रिया

सामाजिक आंदोलनों में आत्मदेखभाल: ज़रूरत, रणनीति और सशक्तिकरण का ज़रिया

आत्मदेखभाल सामाजिक बदलाव की लड़ाई का मूल स्तंभ है। अमेरिकी लेखिका, नारीवादी और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता ऑड्रे लॉर्ड ने कहा था कि खुद की देखभाल करना आत्मभोग नहीं है।

सामाजिक आंदोलनों में समाज में बदलाव लाने, विकास को गति देने और अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के सामूहिक प्रयास होते हैं। ये आंदोलन राजनीतिक, सामाजिक या सामुदायिक मुद्दों पर केंद्रित होते हैं और व्यवस्था में सुधार या बदलाव की मांग करते हैं। जब किसान, आदिवासी, दलित या हाशिये पर रहे रहे वर्ग, महिलाएं या युवा अपने साथ होने वाले भेदभाव और अन्याय के ख़िलाफ़ एकजुट होते हैं, तो यह संघर्ष सिर्फ विचारों की लड़ाई नहीं रह जाती। यह शरीर, मन और संसाधनों से लड़ी जाने वाली लड़ाई बन जाती है। किसी भी आंदोलन में शामिल होना अपनेआप में साहसिक काम है, लेकिन उसमें टिके रहना और भी बड़ा क्रांतिकारी कदम होता है।

लंबे समय तक चलने वाले आंदोलन अक्सर कार्यकर्ताओं को थका देते हैं। उन्हें शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनाव का सामना करना पड़ता है। इस थकावट की प्रक्रिया को बर्नआउट कहा जाता है, जो कार्यकर्ताओं को भीतर से पूरी तरह तोड़ सकता है। लंबे संघर्ष के दौरान कार्यकर्ता अक्सर अपनी सेहत और मानसिक स्थिति की अनदेखी कर बैठते हैं। इसीलिए ज़रूरी है कि हम आत्मदेखभाल को केवल एक व्यक्तिगत आवश्यकता न मानें, बल्कि इसे सामाजिक आंदोलन का अहम हिस्सा समझें। यह कोई विलासिता नहीं है, न ही आंदोलन से ध्यान भटकाने वाला काम है। आत्म-देखभाल दरअसल आंदोलन को टिकाऊ और प्रभावशाली बनाए रखने की ज़रूरत है।

अमेरिकी लेखिका, नारीवादी और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता ऑड्रे लॉर्ड ने कहा था कि खुद की देखभाल करना आत्मभोग नहीं है। यह कथन सिर्फ उनके निजी अनुभवों से नहीं, बल्कि उन सभी लोगों की सच्चाई से जुड़ा है जो अन्याय के खिलाफ निरंतर संघर्ष करते हैं।

सामूहिक देखभाल से टिकाऊ बनते हैं सामाजिक आंदोलन

भारत में हाल के वर्षों में हुए कई बड़े आंदोलन — जैसे किसान आंदोलन, सीएए-एनआरसी विरोध आंदोलन और महिला खिलाड़ियों के साथ हुए यौन शोषण के खिलाफ हुए विरोध ने यह साफ़ कर दिया है कि लंबे संघर्ष के लिए कार्यकर्ताओं का शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना बेहद आवश्यक है। जब कार्यकर्ता अपनी देखभाल करते हैं, तो वे न सिर्फ खुद को संभालते हैं, बल्कि आंदोलन को भी अधिक सशक्त और टिकाऊ बनाते हैं। जब किसी भी सामाजिक आंदोलन में कार्यकर्ता केवल विरोध नहीं करते, बल्कि एक-दूसरे की ज़रूरतों और मानसिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखते हैं, तो ऐसे आंदोलन अधिक मानवीय और लंबे समय तक टिकाऊ बनते हैं। भारत सहित दुनिया भर में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां कलेक्टिव केयर  यानी सामूहिक देखभाल को आंदोलन की रणनीति और संस्कृति का हिस्सा बनाया गया है।

तस्वीर साभार: BBC

साल 2019-20 में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में मुस्लिम महिलाओं द्वारा शुरू किया गया धरना, भारतीय सामाजिक आंदोलनों के इतिहास में एक अनोखा उदाहरण बन गया। यह आंदोलन केवल राजनीतिक प्रतिरोध नहीं था, बल्कि एक ऐसी जगह भी बना जहां एक-दूसरे की देखभाल और सहयोग की मजबूत संस्कृति विकसित हुई। शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों ने सामूहिक देखभाल को आंदोलन का अहम हिस्सा बनाया। धरना स्थल पर सामुदायिक भागीदारी के ज़रिए भोजन और स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था की गई। सर्दी से लड़ने के लिए महिलाओं ने गर्म कपड़े, कंबल और अलाव की व्यवस्था की। चाय और गर्म भोजन की नियमित आपूर्ति ने प्रदर्शनकारी महिलाओं को शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर राहत दी।

शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों ने सामूहिक देखभाल को आंदोलन का अहम हिस्सा बनाया। धरना स्थल पर सामुदायिक भागीदारी के ज़रिए भोजन और स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था की गई। सर्दी से लड़ने के लिए महिलाओं ने गर्म कपड़े, कंबल और अलाव की व्यवस्था की।

इस आंदोलन की एक खास विशेषता यह थी कि वहां बच्चों की पढ़ाई और खेलने के लिए अस्थायी स्कूल और सुरक्षित जगहें तैयार की गईं। इससे माँएं बिना चिंता के प्रदर्शन में भाग ले सकीं। वहीं, बुज़ुर्ग प्रतिभागियों के लिए दवाइयों और स्वास्थ्य जांच की नियमित सुविधा सुनिश्चित की गई, जिससे उनकी सेहत का भी ध्यान रखा जा सका। शाहीन बाग आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय बातों में से एक थी रोटेशन प्रणाली। महिलाएं बारी-बारी से धरने में भाग लेती थीं और तय समय पर आराम करती थीं। इससे न सिर्फ शारीरिक थकान कम हुई, बल्कि आंदोलन की निरंतरता और स्थिरता भी बनी रही। यह सोच और व्यवस्था आंदोलन को टिकाऊ बनाने में बेहद प्रभावी रही। आंदोलन स्थल धीरे-धीरे एक जीवंत सांस्कृतिक मंच में तब्दील हो गया, जहां प्रतिरोध और रचनात्मकता का अनोखा मेल देखने को मिला। महिलाओं की अगुवाई में चला यह आंदोलन एक लोकतांत्रिक संवाद की मिसाल बना, जिसने नागरिकता के सवालों को देशभर में चर्चा का विषय बना दिया।

किसान आंदोलन: एकता, आत्मदेखभाल और सामूहिक समर्थन

तस्वीर साभार: NDTV

साल 2020-2021 में दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन भी महज एक राजनीतिक विरोध नहीं था। इस आंदोलन ने सामूहिक एकता, भावनात्मक सहयोग और आत्मदेखभाल के ज़रिए एक लंबे संघर्ष को जीवंत बनाए रखा। आंदोलन स्थल पर सातों दिन और चौबीसों घंटे चलने वाले लंगर ने इस आंदोलन को एक अलग पहचान दिलाई। इसमें किसानों और उनके परिवारों ने खाना बनाने, और भोजन वितरण में पूरी भागीदारी निभाई। इससे सामाजिक समरसता, सांप्रदायिक एकता और आपसी सहयोग की भावना और मजबूत हुई।

साल 2020-2021 में दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन भी महज एक राजनीतिक विरोध नहीं था। इस आंदोलन ने सामूहिक एकता, भावनात्मक सहयोग और आत्मदेखभाल के ज़रिए एक लंबे संघर्ष को जीवंत बनाए रखा।

शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और आत्मदेखभाल के रूप

कई महीनों तक चले इस आंदोलन में मानसिक और शारीरिक थकान से निपटने के लिए हर सुबह योग सत्र भी आयोजित किए गए। इसके साथ ही चार मसाज मशीनें किसानों के शिविर में लगाई गईं, ताकि वे शारीरिक रूप से राहत पा सकें। किसानों ने अपनी ट्रैक्टर ट्रॉलियों में मनोरंजन का भी इंतज़ाम कर लिया। यह न केवल मनोरंजन का माध्यम था, बल्कि मानसिक थकावट को दूर करने और सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखने का भी ज़रिया बना। कड़ाके की ठंड, प्रदूषण और लंबे संघर्ष के बीच किसानों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए मोबाइल मेडिकल कैंप लगाए गए। डॉक्टरों की टीमों ने नियमित स्वास्थ्य जांच की, और दवाइयां मुफ्त में उपलब्ध कराई गईं। मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया गया। कई संगठनों ने मनोवैज्ञानिक परामर्श और परामर्शदाता उपलब्ध कराए, ताकि आंदोलन में लंबे समय तक शामिल किसानों को तनाव और चिंता से राहत मिल सके।

ब्लैक लाइव्स मैटर और ‘हीलिंग जस्टिस’ की अवधारणा

तस्वीर साभार: The New Yorker


भारत की तरह ही अमेरिका में पुलिस हिंसा और नस्लीय अन्याय के खिलाफ़ उठे ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन ने भी सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की मांग की। लेकिन साथ ही इसने ‘हीलिंग जस्टिस’ (Healing Justice) नामक अवधारणा को भी आंदोलन का अहम हिस्सा बनाया। इस विचारधारा के अनुसार, आंदोलनकारियों ने यह समझा कि संघर्ष केवल बाहरी ढांचों के खिलाफ नहीं है, बल्कि भीतर की थकावट और घावों के उपचार की भी आवश्यकता है। बीएलएम आंदोलन के दौरान सामूहिक ध्यान सत्र आयोजित किए गए, जहां प्रदर्शनकारी गहरी सांस लेने और मानसिक शांति पाने की तकनीकें सीखते थे। भावनात्मक सहारा समूह भी बनाए गए, जिनमें कार्यकर्ता अपनी भावनाएं जैसे डर, गुस्सा, थकान और उम्मीद साझा कर सकते थे। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों और थैरेपिस्टों को आंदोलन से सक्रिय रूप से जोड़ा गया, ताकि कार्यकर्ता निरंतर तनाव और ट्रॉमा के बीच मानसिक रूप से स्थिर रह सकें।

आत्मदेखभाल को अब केवल व्यक्तिगत जरूरत नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के संघर्ष का एक सशक्त माध्यम माना जाता है। यह मॉडल यह स्पष्ट करता है कि जब कार्यकर्ता अपने मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं और एक-दूसरे को सहयोग देते हैं, तो आंदोलन और अधिक टिकाऊ, करुणामय और प्रभावशाली बनता है।

आत्मदेखभाल एक राजनीतिक काम है

तस्वीर साभार: The New York Times

आत्मदेखभाल को अब केवल व्यक्तिगत जरूरत नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के संघर्ष का एक सशक्त माध्यम माना जाता है। यह मॉडल यह स्पष्ट करता है कि जब कार्यकर्ता अपने मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं और एक-दूसरे को सहयोग देते हैं, तो आंदोलन और अधिक टिकाऊ, करुणामय और प्रभावशाली बनता है। आंदोलन के दौरान यह सकारात्मक ऊर्जा को बनाए रखता है और दीर्घकालिक संघर्ष की क्षमता को बढ़ाता है। किसी भी सामाजिक आंदोलन की सफलता के लिए आत्म-देखभाल एक रणनीतिक आवश्यकता है। यह केवल व्यक्तिगत भलाई तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामूहिक सशक्तिकरण और आंदोलन को लंबे समय तक जारी रखने का आधार है। कार्यकर्ताओं के लिए आत्म-देखभाल का मतलब है – अपने शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य का लगातार ख्याल रखना ताकि वे आंदोलन के चरम हालात के दबावों का सामना कर सकें। इसमें संतुलित आहार, पर्याप्त नींद, मानसिक विश्राम, भावनात्मक सहयोगी नेटवर्क का निर्माण, और सामूहिक हीलिंग प्रक्रियाएं शामिल होती हैं।

आत्मदेखभाल को शामिल करना क्यों ज़रूरी है

जब आंदोलन लंबे समय तक चलते हैं, तो कार्यकर्ताओं के लिए तनाव, थकान और भावनात्मक आघात का खतरा बढ़ जाता है। यह ‘बर्नआउट’ जैसी स्थिति को जन्म देता है, जिससे आंदोलन की ऊर्जा और प्रभावशीलता कमजोर पड़ सकती है। शाहीन बाग़ आंदोलन इसका एक उदाहरण है, जहां ‘रोटेशनल सिस्टम’ अपनाया गया ताकि प्रदर्शन में शामिल महिलाएं आराम कर सकें और बारी-बारी से अपनी जिम्मेदारी निभा सकें। इसी तरह, अमेरिका में ‘Black Lives Matter’ आंदोलन के तहत ‘हीलिंग जस्टिस’ फ्रेमवर्क को अपनाया गया। चिली के छात्र आंदोलन में भी कार्यकर्ताओं ने लंबे मार्चों और विरोध प्रदर्शनों के बीच विश्राम शिविर लगाए थे ताकि थकान से बचा जा सके और कार्यकर्ताओं को मानसिक ऊर्जा मिल सके। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि आत्म-देखभाल को आंदोलन की रणनीति में शामिल करना उसकी स्थिरता और सफलता के लिए बेहद जरूरी है।

सामूहिक आंदोलन का एक जरूरी आधार है आत्मदेखभाल

आत्मदेखभाल सामाजिक बदलाव की लड़ाई का मूल स्तंभ है। अमेरिकी लेखिका, नारीवादी और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता ऑड्रे लॉर्ड ने कहा था कि खुद की देखभाल करना आत्मभोग नहीं है। यह कथन सिर्फ उनके निजी अनुभवों से नहीं, बल्कि उन सभी लोगों की सच्चाई से जुड़ा है जो अन्याय के खिलाफ निरंतर संघर्ष करते हैं। किसी भी आंदोलन की सफलता केवल सरकार या नीतियों में बदलाव लाने से नहीं आती, बल्कि उसमें भाग लेने वाले कार्यकर्ताओं की मानसिक और शारीरिक दृढ़ता पर भी निर्भर करती है। अगर हम कार्यकर्ताओं की भलाई को नजरअंदाज़ करते हैं, तो हम पूरे आंदोलन की नींव को कमज़ोर कर देते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि आत्मदेखभाल को आंदोलन की रणनीति का हिस्सा बनाया जाए ताकि आंदोलन सकारात्मक, करुणामय और टिकाऊ बना रहे। आत्मदेखभाल ही वह आधार है, जो विरोध को रचनात्मक बदलाव में बदल सकता है।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content