स्वास्थ्यमानसिक स्वास्थ्य कैसे डिमेंशिया महिलाओं को कर रहा है अलग तरह से प्रभावित

कैसे डिमेंशिया महिलाओं को कर रहा है अलग तरह से प्रभावित

विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट के मुताबिक बहुत-सी महिलाएं अपना आधा से ज़्यादा समय डिमेंशिया से ग्रस्त अपने परिवार जनों की देखभाल में बिताती हैं। इसे एक तरह से महिलाओं पर डिमेंशिया के अप्रत्यक्ष प्रभाव की तरह देखा जा सकता है।

साल 2022 में एक फ़िल्म रिलीज़ हुई। फ़िल्म का नाम था ‘थ्री ऑफ़ अस’। इस फ़िल्म को दर्शकों ने काफ़ी पसंद किया। यह फ़िल्म डिमेंशिया से जूझ रही एक अधेड़ उम्र की महिला के इर्द-गिर्द केंद्रित है। डिमेंशिया एक ऐसी बीमारी है जिसमें किसी व्यक्ति की याददाश्त धीरे-धीरे कमज़ोर होने लगती है, जिससे उसकी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पर काफ़ी नकारात्मक असर पड़ता है। मौजूदा आंकड़ों पर गौर तो डिमेंशिया के कुछ प्रकारों को छोड़कर महिलाएं पुरुषों की तुलना में डिमेंशिया से अधिक प्रभावित होती हैं। दुनिया भर में इससे प्रभावित महिलाओं की संख्या पुरुषों से दोगुनी है। आमतौर पर बुज़ुर्ग महिलाएं इससे ज़्यादा प्रभावित होती हैं, लेकिन कुछ मामलों में किसी युवा महिला को भी यह बीमारी हो सकती है। 

क्या महिलाएं अधिक प्रभावित होती हैं

तस्वीर साभार: 360

इस बारे में न्यूरोलॉजिस्ट और डिमेंशिया इंडिया एलायंस की कार्यकारी निदेशक रमणी सुंदरम बताती हैं, “दुनिया भर में पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं इससे प्रभावित होती हैं। इसकी क्या वजह हैं, ये बताना मुश्किल है। लेकिन, इतना मालूम है कि मेनोपॉज़ के बाद होनेवाले हार्मोनल बदलावों की वजह से महिलाओं में अल्ज़ाइमर बीमारी ज़्यादा पाई जाती है और इससे ग्रस्त महिलाओं में डिमेंशिया होने की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक लंबा जीवन जीती हैं इसलिए भी महिलाओं में यह बीमारी होने की संभावना अधिक होती है।” महिलाओं में डिमेंशिया का जोखिम तो ज़्यादा होता ही है। साथ ही, शोध से यह पता चलता है कि अगर परिवार में किसी को डिमेंशिया हो जाता है, तो डिमेंशिया से ग्रस्त व्यक्ति की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी आखिरकार परिवार की किसी महिला पर ही आती है।

अच्छा पोषण न मिलने से बहुत सी महिलाएं विटामिन बी-12, विटामिन डी-3 की कमी और खून की कमी का सामना करती हैं। इनसे मस्तिष्क को ऐसे नुकसान हो सकते हैं, जो डिमेंशिया की वजह बन सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक बहुत सी महिलाएं अपना आधा से ज़्यादा समय डिमेंशिया से ग्रस्त अपने परिवार जनों की देखभाल में बिताती हैं। इसे एक तरह से महिलाओं पर डिमेंशिया के अप्रत्यक्ष प्रभाव की तरह देखा जा सकता है क्योंकि देखभाल करने वाली घर की महिला को इसके लिए कोई पैसे नहीं दिए जाते। इसके उलट, अगर खुद किसी महिलाओं को डिमेंशिया हो जाता है, तो आमतौर परिवार के लोग उसे डिमेंशिया केयर के लिए बने आवासीय केन्द्रों में भेजने को सलाह देते हैं। इस पर रमणी कहती हैं, “जब किसी महिला को डिमेंशिया हो जाता है तो परिवार के लोगों के लिए उसकी देखभाल करना मुश्किल हो जाता है। इसकी वजह यह है कि महिलाओं को हमेशा देखभाल करने वाली भूमिकाओं में ही देखा जाता है। यहां तक कि अगर पति-पत्नी में से पति को डिमेंशिया होता है तो पत्नी घर पर उसकी देखभाल करती है, जबकि अगर पत्नी को डिमेंशिया होता है तब पुरुषों की तुलना में उन्हें आवासीय देखभाल के केन्द्रों में भेजने की प्रवृत्ति नज़र आती है।” 

डिमेंशिया के सामाजिक कारक 

बहुत सी अन्य बीमारियों की तरह ही डिमेंशिया के पीछे भी कुछ सामाजिक कारक ज़िम्मेदार होते हैं। इस बारे में रमणी कहती हैं, “कम शिक्षित होना इसकी एक बड़ी वजह है। आज के समय में भी कई महिलाओं की अच्छी शिक्षा तक पहुंच पुरुषों की तुलना में कम है। इसके अलावा गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को समुचित पोषण नहीं मिलता। अच्छा पोषण न मिलने से बहुत सी महिलाएं विटामिन बी-12, विटामिन डी-3 की कमी और खून की कमी का सामना करती हैं। इनसे मस्तिष्क को ऐसे नुकसान हो सकते हैं, जो डिमेंशिया की वजह बन सकता है।” आगे उन्होंने बताया कि अगर किसी महिला के पति की मृत्यु हो जाती है तो इससे स्वास्थ्य सुविधाओं तक उनकी पहुंच पर असर पड़ता है, साथ ही वे अपना ध्यान रखना कम कर देती हैं। बुढ़ापे में होने वाली बीमारियों से खुद को कैसे बचाना है वे इस पर ध्यान नहीं दे पाती हैं। इसके अलावा, परिवार में महिलाएं अधिकार देखभाल करनेवाली भूमिकाओं में होती हैं।

तस्वीर साभार: Down To Earth

इन भूमिकाओं को निभाते-निभाते जब वे थक जाती हैं, तो इसका असर उनके दिमाग पर भी पड़ता है और उनमें डिमेंशिया की संभावना बढ़ जाती है। यही नहीं पुरुषों के सामाजिक संपर्क भी महिलाओं की तुलना में ज़्यादा व्यापक होते हैं, जो उन्हें डिमेंशिया जैसी बीमारियों से बचाते हैं। कई बार महिलाओं का सामाजिक दायरा सीमित होता है और पति के गुज़र जाने के बाद यह और भी सीमित रह जाता है। महिलाओं में डिमेंशिया के अधिक प्रसार में केवल जैविक कारक ही ज़िम्मेदार नहीं हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक और लैंगिक भेदभाव से जुड़े कारक भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शिक्षा, पोषण, देखभाल की ज़िम्मेदारियों और सीमित सामाजिक संपर्क जैसी असमानताएं न केवल महिलाओं को इस बीमारी के प्रति संवेदनशील बनाती हैं, बल्कि उन्हें इस बीमारी से अकेले सामना करने के लिए भी मजबूर कर देती हैं।

डिमेंशिया सिर्फ एक न्यूरोलॉजिकल बीमारी नहीं है। यह एक सामाजिक मुद्दा भी है। जैविक कारणों के साथ-साथ सामाजिक असमानता, पोषण की कमी, सीमित शिक्षा, और लैंगिक भूमिकाएं इस बीमारी को और गंभीर बना देती हैं। महिलाएं न सिर्फ इसका सामना करती हैं, बल्कि देखभाल के भार को भी ढोती हैं।

डिमेंशिया की जागरूकता को लेकर सरकार की भूमिका

अमूमन महिलाओं के स्वास्थ्य को अभी भी प्राथमिकता नहीं दी जाती है। डिमेंशिया जैसी बीमारी एक ऐसी बीमारी है, जिसके बारे में आम लोगों में से बहुत से लोग यह जानते तक नहीं है। ऐसे में रोकथाम के प्रयास भी कम हो जाते हैं। सरकार के स्तर पर भी डिमेंशिया की जागरूकता के प्रयास न के बराबर हो रहे हैं। डिमेंशिया में सरकार और समाज की भूमिका को लेकर रमणी कहती हैं, “आज भी बहुत-से लोग यही सोचते हैं कि उम्र बढ़ने के साथ याद्दाश्त का कमज़ोर होना एक सामान्य-सी बात है। तो इसे लेकर समाज में व्यापक जागरूकता की ज़रूरत है, जिसमें सरकार भूमिका निभा सकती है। इसके अलावा इसकी स्क्रीनिंग की सुविधाएं भी बहुत कम हैं। हमारे देश में मनोवैज्ञानिकों, न्यूरोलॉजिस्ट की कमी है। समय पर इस रोग की पहचान हो सके इसके लिए ऐसे केंद्र स्थापित किए जाने की ज़रूरत है, जहां पर प्रशिक्षित कर्मी हों और जहाँ डिमेंशिया के अनियंत्रित होने से पहले ही इसकी पहचान करके इसे प्रबंधित किया जा सके।” 

तस्वीर साभार: The Hindu

डिमेंशिया को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए नीतिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर ठोस कार्रवाई की ज़रूरत है। जबतक हम महिलाओं के स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लेंगे और मानवाधिकार नहीं समझेंगे, तबतक इस बीमारी के खिलाफ़ हमारी लड़ाई अधूरी रहेगी। डिमेंशिया सिर्फ एक न्यूरोलॉजिकल बीमारी नहीं है। यह एक सामाजिक मुद्दा भी है। जैविक कारणों के साथ-साथ सामाजिक असमानता, पोषण की कमी, सीमित शिक्षा, और लैंगिक भूमिकाएं इस बीमारी को और गंभीर बना देती हैं। महिलाएं न सिर्फ इसका सामना करती हैं, बल्कि देखभाल के भार को भी ढोती हैं। इसके बावजूद, उन्हें न सामाजिक पहचान मिलती है, न स्वास्थ्य सेवाओं में प्राथमिकता। ज़रूरत है कि सरकार और समाज दोनों स्तरों पर डिमेंशिया को लेकर जागरूकता बढ़ाई जाए। महिलाओं की देखभाल को केवल ‘कर्तव्य’ नहीं, बल्कि ‘सहयोग और समर्थन’ के रूप में देखा जाए। साथ ही, सामाजिक और नीतिगत बदलाव किए जाएं ताकि महिलाएं इस बीमारी से अकेली न लड़ें।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content