इंटरसेक्शनलजेंडर दिहाड़ी महिला मजदूरों पर काम का दोहरा बोझ और खराब स्वास्थ्य की समस्या

दिहाड़ी महिला मजदूरों पर काम का दोहरा बोझ और खराब स्वास्थ्य की समस्या

असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को कई शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लंबे समय तक शारीरिक श्रम जैसे खड़े होकर काम करना, बोझ उठाना, तेज़ धूप में काम करने से कमर दर्द और थकान की शिकायत बनी रहती  है।

भारत में महिलाएं असंगठित और अनौपचारिक श्रम क्षेत्र में एक बड़ी संख्या में काम करती हैं। असंगठित श्रम क्षेत्र देश की कार्यशील आबादी के लगभग 90 फीसद हिस्से को समेटे हुए है। इस क्षेत्र में महिलाएं बड़ी संख्या में काम करती हैं जैसे कि कृषि, निर्माण, घरेलू काम, सफाई, बीड़ी बनाना, कपड़ा और दस्तकारी उद्योग, ईंट भट्टे और छोटे कारखानों में काम करना आदि। देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन उनका श्रम अनदेखा और मूल रूप से अवैतनिक श्रेणी में बना रहता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में करीब 80 फीसद महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं। वहीं राष्ट्रीय नमूना सर्वे कार्यालय (एनएसएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक, ग्रामीण भारत में महिलाओं का लगभग 75 फीसद  श्रम असंगठित क्षेत्र में आता है।

 महिलाएं न केवल कठिन परिश्रम करती हैं, बल्कि दोहरे काम का बोझ भी उठाती हैं। दिहाड़ी मजदूरी करने के बाद घर के काम में भी उन्हें उतना ही समय देना पड़ता है। इससे उनके स्वास्थ्य पर भी गहरा असर पड़ता है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को कई शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लंबे समय तक शारीरिक श्रम जैसे खड़े होकर काम करना, बोझ उठाना, तेज़ धूप में काम करने से कमर दर्द और थकान की शिकायत बनी रहती  है। स्वच्छता और सुरक्षा का अभाव उन्हें पीरियड्स में स्वच्छता, प्रसव पूर्व और प्रसव के बाद देखभाल से वंचित करता है। आर्थिक असुरक्षा और समय की कमी के कारण महिलाएं अक्सर पर्याप्त पोषण युक्त खाना नहीं खा पातीं। वहीं, मजदूरी और घरेलू काम की जिम्मेदारी उन्हें मानसिक तनाव, चिंता और अवसाद की ओर ले जाता है।

इतनी मेहनत करने के बाद भी कई बार ऐसा होता है कि घर में खाना नहीं होता। महीने में 5 से 6 बार ऐसा होता है। भूख हम किसी तरह सह लेते हैं, लेकिन बच्चों को तो खाना देना ही पड़ता है।

महिलाओं पर घरेलू और कार्यस्थल के काम का बोझ 

तस्वीर साभार : The Hindu

दैनिक जीवन काम और स्वास्थ्य के विषय में बात करते हुए उत्तर प्रदेश की अंजली कहती हैं, “ मेरे लिए दिन की शुरुआत सुबह 5 बजे होती है। घर और बच्चों का काम करते हुए 3 घंटे लग जाते हैं। उसके बाद मैं मजदूरी करने के लिए जाती हूं। सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक काम के दौरान सिर्फ एक घंटे का समय मिल पाता है जिसमे हम खाना ही खा पाते हैं आराम के लिए समय नहीं मिल पाता। शाम को 7 बजे घर पहुंचती हूं उसके बाद घर का काम करके 10 या 11 बजे बच्चों को सुलाने के बाद खुद सोते हैं।” भारत सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के साल 2019 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15 से 60 वर्ष की महिलाएं और लड़कियां हर दिन लगभग 7.2 घंटे घरेलू काम करती हैं।

वहीं पुरुषों का योगदान इसका आधा भी नहीं होता। यहां तक कि जो महिलाएं बाहर नौकरी या मज़दूरी करती हैं, वे भी पुरुषों की तुलना में घर के काम में दोगुना समय लगाती हैं। अक्सर महिला मजदूरों को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है। काम और बराबर समय सीमा में बंधे होने के बावजूद भी महिलाओं को कम पैसों में काम करना पड़ता है। अंजली वेतन के विषय में बात करते हुए कहती हैं, “पुरुषों की मजदूरी 450 रुपए है और महिलाओं की मजदूरी 350 रुपए है। मेहनत दोनों की बराबर होती है पर हमें पैसे कम ही मिलते हैं। सभी महिलाएं मालिक से बात करती हैं तो वे बताते हैं कि सब जगह यही रेट है। काम करना हो तो करो नहीं तो जाओ।”

सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक काम के दौरान सिर्फ एक घंटे का समय मिल पाता है जिसमे हम खाना ही खा पाते हैं, आराम के लिए समय नहीं मिल पाता। शाम को 7 बजे घर पहुंचती हूं उसके बाद घर का काम करके 10 या 11 बजे बच्चों को सुलाने के बाद खुद सोते हैं।

ऐसी परिस्थिति में महिलाएं अपने अधिकारों को अनदेखा कर आजीविका के लिए कम पैसों में भी काम करना जरूरी मानती हैं। घर की स्थिति को सुधारने के लिए दोहरी मेहनत करती हैं। महिला मजदूरों को अपने बच्चों को भी कार्यस्थल पर साथ ले जाना पड़ता है। कई बार एकदम छोटे जैसे 1 साल या उससे भी छोटे बच्चे कार्यस्थल पर दिखाई पड़ते हैं। निर्माण कार्य, खेत, सफाई कार्य जैसे स्थानों पर बच्चे साथ रहते हैं, जिससे बच्चों के जीवन पर भी गहरा असर पड़ता है। यूएन वुमन में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 60फीसद महिला मजदूरों को अपने बच्चों को काम पर लाना पड़ता है, जिससे उनका काम और मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। 

सुविधाओं की कमी से महिलाओं के स्वास्थ्य पर असर 

तस्वीर साभार : NDTV

सिटीजन मेटर्स में छपी रिपोर्ट के मुताबिक महिला निर्माण श्रमिकों को कार्यस्थल पर कई गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जो उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा दोनों के लिए चिंता का कारण हैं। एक सर्वे के अनुसार, लगभग 80 फीसद महिलाओं को शौचालय की सुविधा नहीं मिल पाती, जिससे उन्हें असुविधा और स्वास्थ्य संबंधी जोखिमों का सामना करना पड़ता है। वहीं, 70 फीसद महिलाओं को साफ पीने का पानी नहीं मिल पाता, 67 फीसद  महिलाओं ने बताया कि काम बहुत ज्यादा शारीरिक मेहनत वाला होता है, जिससे थकावट और शारीरिक दर्द सामान्य हो जाते हैं। इसके अलावा, 60 फीसद  महिलाओं को लंबे समय तक लगातार काम करना पड़ता है, जिससे उन्हें आराम का भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाता। 46 फीसद  महिलाओं को अत्यधिक गर्मी, सर्दी या बारिश जैसे मौसम में भी काम करना पड़ता है और बच्चों की देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं होती, जिससे उनके ऊपर दोहरी जिम्मेदारी का बोझ पड़ता है।

पुरुषों की मजदूरी 450 रुपए है और महिलाओं की मजदूरी 350 रुपए है। मेहनत दोनों की बराबर होती है पर हमें पैसे कम ही मिलते हैं। सभी महिलाएं मालिक से बात करती हैं तो वे बताते हैं कि सब जगह यही रेट है। काम करना हो तो करो नहीं तो जाओ।

क्या दिहाड़ी महिला मजदूरों के लिए कार्यस्थल सुरक्षित है

सबसे चिंताजनक बात यह है कि 8 फीसद  महिलाओं ने कार्यस्थल पर यौन शोषण की शिकायत की, लेकिन ज्यादातर मामलों में उन्हें कोई सहायता या न्याय नहीं मिल पाता। ये समस्याएं दिखाती हैं कि महिला श्रमिकों के लिए कार्यस्थल अब भी सुरक्षित और सम्मानजनक नहीं है। महिलाएं अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रख पातीं यहां तक कि पिरियड्स के दौरान महिलाओं के पास सुरक्षित साधनों की भी भारी कमी होती है। सैनिटरी नैपकिन की कीमतें अधिक होने के कारण, ज़्यादातर महिलाएं आज भी गंदे कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। यह कपड़े साफ नहीं होते और समय पर नहीं बदले जाते, जिससे इंफेक्शन, खुजली और गर्भाशय से जुड़ी बीमारियां हो सकती हैं। इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स पत्रिका के मुताबिक ग्रामीण भारत में केवल 2-3 फीसद महिलाएं ही पीरियड्स के दौरान सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं।

इसके अलावा, रिपोर्ट में पाया गया कि 70 फीसद महिलाओं को पैसों की कमी का सामना करना पड़ता है, जिससे वह सैनिटरी पैड नहीं खरीद पातीं। एक महिला मजदूर कहती हैं, “हम कपड़े का ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि पैड महंगे आते हैं। पैड खरीदने से बेहतर होता है कि हम उसका राशन खरीद लें।यह केवल एक आर्थिक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता का भी सवाल है। एक महिला मज़दूर कहती हैं, “जब भी हम मज़दूरी के लिए जाते हैं, तो पीने के लिए पानी तक नहीं होता है। शौचालय भी आसपास नहीं होता है। पीरियड के समय में बहुत ज्यादा परेशानी होती है। उस वक्त घर में रहने के अलावा कोई चारा नहीं होता। लेकिन पैसे की कमी के कारण कई बार उस समय भी काम करना पड़ता है।”

जब भी हम मज़दूरी के लिए जाते हैं, तो पीने के लिए पानी तक नहीं होता है। शौचालय भी आसपास नहीं होता है। पीरियड के समय में बहुत ज्यादा परेशानी होती है। उस वक्त घर में रहने के अलावा कोई चारा नहीं होता। लेकिन पैसे की कमी के कारण कई बार उस समय भी काम करना पड़ता है।”

एनीमिया, पोषण की कमी और थकान

तस्वीर साभार : Poverty Action

द इंडियन एक्स्प्रेस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 49 वर्ष की 57 फीसद महिलाएं एनीमिया यानी खून की कमी से पीड़ित हैं, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा सिर्फ 25 फीसद है। यह सिर्फ देश में मौजूद एक गहरी पोषणीय असमानता का संकेत है। हड्डियों और मांसपेशियों की कमजोरी, प्रजनन स्वास्थ्य की समस्या, लगातार थकान और मानसिक तनाव, ये सभी समस्याएं महिला श्रमिकों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं। लेकिन इन समस्याओं को अक्सर वे अनदेखा कर देती हैं क्योंकि काम और घर की दोहरी जिम्मेदारी के बीच उनके पास स्वास्थ्य का ध्यान रखने का न तो समय होता है और न ही संसाधन।

महिला श्रमिकों की सेहत पर असर का एक बड़ा कारण नियमित पोषण की कमी भी है। कई बार काम न मिलने के कारण उनके पास खाना खरीदने तक के पैसे नहीं होते। एक महिला बताती हैं, “इतनी मेहनत करने के बाद भी कई बार ऐसा होता है कि घर में खाना नहीं होता। महीने में 5 से 6 बार ऐसा होता है। भूख हम किसी तरह सह लेते हैं, लेकिन बच्चों को तो खाना देना ही पड़ता है।” काम मिलने के बावजूद कई बार उन्हें मेहनताना नहीं दिया जाता, खासकर कृषि और घरेलू कामों में। ऐसी स्थिति में उन्हें न केवल आर्थिक संकट से जूझना पड़ता है बल्कि पोषण की कमी के कारण बीमारियों का सामना भी करना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था जटिल और असंवेदनशील है। समय पर इलाज न मिलने के कारण महिलाएं अक्सर घरेलू उपचार या खुद ही ठीक होने का इंतज़ार करती हैं।

जब हालत बिगड़ती है, तब मजबूरी में उन्हें प्राइवेट अस्पतालों का रुख करना पड़ता है, जो उनकी आय से बाहर होता है। भारत में असंगठित क्षेत्र में काम कर रही महिला मजदूर न सिर्फ़ देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देती हैं, बल्कि समाज की रीढ़ भी हैं। लेकिन वे आज भी स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मान से वंचित हैं। उनकी अनदेखी सिर्फ़ एक आर्थिक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता का सवाल है। ज़रूरी है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर उनके लिए सुरक्षित कार्यस्थल, पोषण, स्वास्थ्य सेवाएं, उचित वेतन और मातृत्व सुविधाएं  सुनिश्चित करें। साथ ही उन्हें श्रम कानूनों की सुरक्षा और यौन हिंसा से संरक्षण देना भी बेहद जरूरी है। जब तक महिला मज़दूरों के अधिकार और स्वास्थ्य की गारंटी नहीं दी जाती, तब तक भारत का विकास अधूरा रहेगा। 

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