साल था 1930। दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गर्मी अपने चरम पर थी। प्लेटफॉर्म पर भीड़ जुटी थी — कोई सामान समेट रहा था, तो कोई राजनीतिक हलचलों से भरे अख़बारों में डूबा हुआ था। इसी बीच, दो महिलाएं तेज़ क़दमों से प्लेटफॉर्म पर आईं। एक थीं कमला नेहरू और दूसरी थीं हंसा जीवराज मेहता। पल भर की चुप्पी के बाद, दोनों ने एक साथ गूंजती आवाज़ में नारा लगाया, ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद! इंक़लाब ज़िंदाबाद!’ उनकी बुलंद आवाज़ जैसे ही ब्रिटिश सत्ता की नींव तक पहुंचने को थी, अंग्रेज़ अफ़सरों ने ट्रेन के इंजन के हूटर बजवा दिए और इतनी तेज़ कि प्लेटफॉर्म पर खड़े किसी भी व्यक्ति तक उन नारों की गूंज न पहुंच सके। यह महज एक तकनीकी हस्तक्षेप नहीं था, बल्कि राजनीतिक प्रतिरोध की आवाज़ को दबाने का सुनियोजित प्रयास था।

यह घटना इस बात का प्रतीक बन गई कि औपनिवेशिक शासन महिलाओं की सार्वजनिक और राजनीतिक भागीदारी से कितना असहज और भयभीत था। हंसा मेहता के लिए यह सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं था, बल्कि उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआती झलक थी, जहां वे एक जागरूक, साहसी और राजनीतिक रूप से सक्रिय नागरिक के रूप में सामने आईं। आगे चलकर यही भूमिका उन्हें भारत की संविधान सभा तक ले गई, जहां उन्होंने मौलिक अधिकारों, महिला समानता और मानवाधिकारों के सवालों पर महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए। यह घटना यह भी दिखाती है कि ब्रिटिश हुकूमत को महिलाओं की राजनीतिक चेतना और आवाज़ से कितना खतरा महसूस होता था और यही चेतना, स्वतंत्र भारत के निर्माण में एक मज़बूत स्तंभ साबित हुई।
हंसा ने बड़ौदा कॉलेज से दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री ली और फिर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गईं। वहां उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में पढ़ाई की।
हंसा मेहता और उनका काम
गुजरात के (बड़ौदा) वडोदरा में साल 1897 में जन्मी हंसा मेहता एक प्रगतिशील और शिक्षित गुजराती परिवार से थीं। उनके पिता, मनुभाई मेहता, बड़ौदा राज्य के दीवान थे और एक प्रबुद्ध विचारक माने जाते थे। हंसा ने बड़ौदा कॉलेज से दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री ली और फिर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गईं। वहां उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में पढ़ाई की। उस दौर में जब भारत में महिलाओं की साक्षरता दर बेहद कम थी, हंसा की यह शैक्षणिक यात्रा अपने आप में एक साहसी कदम और सामाजिक परंपराओं के विरुद्ध बगावत थी। उन्होंने अपने जीवन से यह साबित किया कि नारीवाद केवल लैंगिक समानता की मांग नहीं है, बल्कि वह सामाजिक, जातीय और वैचारिक बंधनों को तोड़ने का संघर्ष भी है।

राजनीति उनके लिए सत्ता की चढ़ाई नहीं, सामाजिक न्याय का उपक्रम थी। साल 1926 में वे बॉम्बे स्कूल कमेटी की सदस्य बनीं और 1945 से 1960 तक भारतीय शिक्षा और महिला अधिकार से जुड़ी कई संस्थाओं की शीर्ष पदों पर रहीं। वे महिला विश्वविद्यालय की कुलपति, AIWC अध्यक्ष, इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड ऑफ इंडिया की अध्यक्ष और महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी की उपकुलपति भी रहीं। स्वतंत्रता संग्राम में के दौरान वो तीन बार जेल भी गईं और महिलाओं को आंदोलनों से जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया। हंसा मेहता का सबसे निर्णायक योगदान भारत की संविधान सभा में रहा जहां उन्होंने अड्वाइज़री कॉमिटि और फन्डमेनल राइट्स सब कॉमिटि की सदस्य के रूप में यह सुनिश्चित किया कि नवजात भारत का संविधान स्त्री-पुरुष समानता की बुनियाद पर आधारित हो।
राजनीति उनके लिए सत्ता की चढ़ाई नहीं, सामाजिक न्याय का उपक्रम थी। साल 1926 में वे बॉम्बे स्कूल कमेटी की सदस्य बनीं और 1945 से 1960 तक भारतीय शिक्षा और महिला अधिकार से जुड़ी कई संस्थाओं की शीर्ष पदों पर रहीं।
संविधान सभा में हंसा मेहता की हस्तक्षेप
संविधान सभा में मौलिक अधिकारों पर चर्चा के दौरान हंसा ने पर्दा प्रथा को समाप्त करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने इसे एक अमानवीय परंपरा बताते हुए कहा कि धर्म के नाम पर होने वाले किसी भी अन्याय को संविधान में संरक्षण नहीं मिलना चाहिए। उनका यह साहसी कदम रूढ़िवादिता के खिलाफ था, जिसे अधिकांश पुरुष नेता उठाने से हिचकते थे। एक अन्य मौके पर जब असम से आए सदस्य रोहिणी कुमार चौधुरी ने महिलाओं की तुलना गायों से करते हुए कहा कि पुरुषों को उनसे सुरक्षा चाहिए, तो हंसा मेहता ने करारा जवाब दिया कि “अगर ऐसा होता, तो पुरुषों को दुनिया के सामने अपना चेहरा छुपाकर जीना पड़ता।” हंसा की ये टिप्पणियां उस दौर में महिलाओं की मजबूत राजनीतिक चेतना और पितृसत्तात्मक मानसिकता के खिलाफ उनके संघर्ष का प्रतीक थीं। हंसा ने साफ कर दिया कि पितृसत्ता का वास्तविक पीड़ित कौन है और स्त्री अधिकार पुरुष की विनम्रता का परिचारक नहीं बल्कि उसकी बराबरी का संवैधानिक दावा है।
राष्ट्रीय ध्वज सौंपने का ऐतिहासिक क्षण

15 अगस्त 1947 — यह दिन भारत के इतिहास का सबसे अहम और भावनात्मक दिन था। जब स्वतंत्र भारत को पहली बार उसका राष्ट्रीय ध्वज सौंपा जाना था, तब यह कोई औपचारिक प्रक्रिया मात्र नहीं थी। इस ऐतिहासिक क्षण के लिए न तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खड़े हुए, न ही गवर्नर जनरल। यह सम्मान एक साहसी और दूरदर्शी महिला हंसा मेहता को सौंपा गया। हंसा ने भारत की समस्त महिलाओं की ओर से तिरंगे को अपने हाथों में थामकर संविधान सभा को सौंपा। यह क्षण केवल एक झंडा सौंपने का नहीं था, बल्कि भारत की महिलाओं के संघर्ष, बलिदान और स्वतंत्रता के अधिकार की गूंज बन गया। अपने संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली संबोधन में उन्होंने कहा — “यह गर्व की बात है कि संविधान सभा पर फहराया जाने वाला पहला ध्वज भारत की महिलाओं का उपहार है। हमने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया, बलिदान दिए और आज अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है। अब हम एक ऐसे महान भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं जो विश्व मंच पर सम्मान से खड़ा हो।”
एक अन्य मौके पर जब असम से आए सदस्य रोहिणी कुमार चौधुरी ने महिलाओं की तुलना गायों से करते हुए कहा कि पुरुषों को उनसे सुरक्षा चाहिए, तो हंसा मेहता ने करारा जवाब दिया कि “अगर ऐसा होता, तो पुरुषों को दुनिया के सामने अपना चेहरा छुपाकर जीना पड़ता।”
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनका योगदान
हंसा मेहता का योगदान केवल भारत तक सीमित नहीं रहा, उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी महिला अधिकारों के लिए इतिहास रच दिया। साल 1947 में जब एलेनोर रूज़वेल्ट के नेतृत्व में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक उद्घोषणा का मसौदा तैयार किया जा रहा था, तो उसमें पहली पंक्ति थी, “सभी पुरुष स्वतंत्र जन्म लेते हैं और गरिमा व अधिकारों में समान होते हैं।” हंसा ने इस पंक्ति पर कड़ी आपत्ति जताई और साफ़ कहा कि यह भाषा लैंगिक रूप से निष्पक्ष नहीं है और इससे ऐसा साफ होता है कि महिलाओं को शामिल नहीं किया गया है। जब रूज़वेल्ट ने कहा कि ‘मेन’ शब्द में महिलाएं भी आती हैं, तो हंसा ने जवाब दिया कि “अब समय आ गया है कि दुनिया ‘मानव’ कहना सीख लें।” उनकी इस दृढ़ आपत्ति का नतीजा यह हुआ कि संयुक्त राष्ट्र को अपने प्रारूप में बदलाव करना पड़ा और उस पंक्ति को लैंगिक रूप से समावेशी बनाया गया। यह महज़ एक भाषाई सुधार नहीं था, यह एक भाषाई क्रांति थी जिसे एक भारतीय महिला ने संभव बनाया। यह हस्तक्षेप उस समय के लिए बेहद क्रांतिकारी था, जब विश्व मंच पर महिलाओं की उपस्थिति सीमित थी।

हंसा मेहता के इस ऐतिहासिक योगदान को वैश्विक स्तर पर भी सराहा गया। साल 2018 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुटेरेस ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि “अगर भारत की बेटी हंसा मेहता नहीं होतीं, तो शायद हम आज भी ‘मानवाधिकार’ नहीं बल्कि ‘पुरुष अधिकार’ पढ़ रहे होते।” हंसा मेहता का जीवन भारत की नारी चेतना, समानता की लड़ाई और भाषाई न्याय का प्रतीक बन चुका है। उनका साहस, दृष्टिकोण और संघर्ष यह साबित करता है कि महिलाएं न केवल इतिहास की दर्शक रही हैं, बल्कि वे इतिहास को गढ़ने वाली शक्तिशाली उपस्थिति रही हैं। उन्होंने स्वतंत्रता के ध्वज को महिलाओं की ओर से थाम कर जो संदेश दिया, और फिर विश्व मंच पर भाषा में समता के लिए जो आवाज़ उठाई — वह आज भी नारीवादी सोच और न्याय की प्रेरणा बनी हुई है।

