समाजखेल आखिर खेलों में महिलाओं की भागीदारी समाज के लिए एक ‘समस्या’ क्यों है?

आखिर खेलों में महिलाओं की भागीदारी समाज के लिए एक ‘समस्या’ क्यों है?

भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआई) के आंकड़ों के अनुसार, प्रशिक्षण केंद्रों में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में कम है। खास तौर पर, राष्ट्रीय उत्कृष्टता केंद्रों में 1,658 लड़कों की तुलना में 1,514 लड़कियां हैं।

भारतीय समाज में पारंपरिक सोच ने लंबे समय तक लड़कियों की शारीरिक गतिविधियों और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी पर कई तरह की सीमाएं तय की हैं। ऐसे सामाजिक माहौल में जब लड़कियां खेलों के मैदान में उतरती हैं, तो यह सिर्फ एक खेल प्रतियोगिता नहीं होती। यह एक सशक्त कदम होता है, जो सामाजिक रुकावटों, लैंगिक भेदभाव और परंपरागत बंदिशों को तोड़ने की दिशा में उठाया जाता है। खेल के माध्यम से लड़कियां न केवल अपनी शारीरिक क्षमता को साबित करती हैं, बल्कि वे यह भी दिखाती हैं कि उन्हें भी बराबरी का अवसर मिलना चाहिए। यह भागीदारी उनके आत्मविश्वास, नेतृत्व और पहचान को भी मजबूती देती है। भारत में खेलों को लंबे समय तक पुरुष प्रधान क्षेत्र माना गया है। पारंपरिक सोच और सामाजिक मान्यताओं ने लड़कियों के लिए खेलों को अनुचित, असंभव या ‘अस्त-व्यस्त’ काम मानकर खारिज कर दिया। खेल को शारीरिक परिश्रम, प्रतिस्पर्धा और बाहरी दुनिया से जुड़ा माना गया, जिसे महिलाओं के लिए अनुपयुक्त समझा गया।

अक्सर यह कहा जाता था कि ‘लड़कियों को घर संभालना चाहिए, मैदान नहीं’, या ‘खेल-कूद से औरतों की शालीनता पर असर पड़ता है।’ इन सामाजिक पूर्वाग्रहों ने लड़कियों की खेलों में भागीदारी को सीमित कर दिया। बहुत सी लड़कियों को बचपन से ही खेलने से रोका गया, खेल के संसाधनों और प्रशिक्षण तक उनकी पहुंच नहीं बनी। ग्रामीण और निम्न आयवर्ग की लड़कियों के लिए यह चुनौती और भी बड़ी रही, जहां खेल को करियर नहीं, केवल लड़कों की मौज-मस्ती का माध्यम माना गया। ऐसे माहौल में जब कोई लड़की खेलों में हिस्सा लेती है, तो वह केवल अपने व्यक्तिगत सपनों के लिए नहीं लड़ रही होती, बल्कि वह सामाजिक रूढ़ियों और लिंग आधारित भेदभाव के खिलाफ एक प्रतिरोध भी दर्ज कर रही होती है। खेल में लड़कियों की भागीदारी उनके आत्मविश्वास, स्वतंत्रता और अधिकारों के दोबारा मिलने का भी प्रतीक बन जाती है। यह बदलाव सिर्फ मैदान में नहीं, बल्कि समाज की सोच में भी बदलाव लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होता है।

भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआई) के आंकड़ों के अनुसार, प्रशिक्षण केंद्रों में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में कम है। खास तौर पर, राष्ट्रीय उत्कृष्टता केंद्रों में 1,658 लड़कों की तुलना में 1,514 लड़कियां हैं।

महिलाओं और पुरुषों में खेल में भेदभाव

तस्वीर साभार: The Guardian

डालबर्ग एडवाइजर्स और स्पोर्ट्स एंड सोसाइटी एक्सेलरेटर की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि केवल 10 फीसद भारतीय वयस्क ही खेलों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। वहीं खेलों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की तुलना में काफी कम है। रिपोर्ट के अनुसार, लड़कियां और महिलाएं आमतौर पर लड़कों और पुरुषों की तुलना में खेल और शारीरिक गतिविधि (SAPA) में 20 फीसद कम समय बिताती हैं। यह असमानता शहरी क्षेत्रों में विशेष रूप से पाया जाता है। 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में केवल 43 फीसद महिलाएं ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के बताए शारीरिक गतिविधि के स्तर को पूरा करती हैं।

यह सिफारिश सप्ताह में कम से कम 150 मिनट की मध्यम तीव्रता वाली गतिविधि या 75 मिनट की तीव्र गतिविधि से जुड़ी है, जिसमें तेज़ चलना, दौड़ना, तैराकी, साइकल चलाना आदि शामिल हैं। यह आंकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि महिलाओं के लिए सुरक्षित, सुलभ और प्रोत्साहन देने वाले व्यायाम और खेल के अवसरों को बढ़ाना अब पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआई) के आंकड़ों के अनुसार, प्रशिक्षण केंद्रों में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में कम है। खास तौर पर, राष्ट्रीय उत्कृष्टता केंद्रों में 1,658 लड़कों की तुलना में 1,514 लड़कियां हैं। यह प्रवृत्ति एसएआई की अन्य प्रशिक्षण योजनाओं और केंद्रों में भी दिखाई देती है, जहां आमतौर पर प्रशिक्षण केंद्रों में लड़कों की संख्या लड़कियों से ज़्यादा होती है।

खेलों में सफलता के लिए अच्छी डायट, खेल किट और कोचिंग जरूरी होती है। लेकिन निम्न आय वर्ग और ग्रामीण क्षेत्रों में कई परिवार लड़कियों की खेल संबंधी ज़रूरतों पर खर्च करना गैरज़रूरी मानते हैं। उन्हें लगता है कि लड़कियों के लिए यह एक अस्थायी शौक है, न कि भविष्य का विकल्प।

महिलाओं के खेल में शामिल न होने के कारण

भारत में आज भी महिलाओं के लिए खेलों में आगे बढ़ना आसान नहीं है। हमारे समाज में आज भी पारंपरिक सोच और जेंडर आधारित भूमिकाओं की मजबूत पकड़ है। खेलों को अक्सर पुरुषों के लिए उपयुक्त माना जाता है, जबकि लड़कियों से घरेलू जिम्मेदारियों, शादी और पढ़ाई तक सीमित रहने की उम्मीद की जाती है। कई बार परिवार, रिश्तेदार और समाज के दबाव के चलते लड़कियों को खेलों से दूर कर दिया जाता है। ग्रामीण और छोटे शहरों में खेल ढांचे की स्थिति और भी खराब है। महिलाओं के लिए सुरक्षित और सही सुविधाओं जैसे महिला कोच, टॉयलेट्स, चेंजिंग रूम, सुरक्षित प्रशिक्षण स्थल और ट्रांसपोर्ट की भारी कमी है। इससे लड़कियां असहज महसूस करती हैं और खेलों को बीच में ही छोड़ देती हैं।

तस्वीर साभार: Canva

खेलों में सफलता के लिए अच्छी डायट, खेल किट और कोचिंग जरूरी होती है। लेकिन निम्न आय वर्ग और ग्रामीण क्षेत्रों में कई परिवार लड़कियों की खेल संबंधी ज़रूरतों पर खर्च करना गैरज़रूरी मानते हैं। उन्हें लगता है कि लड़कियों के लिए यह एक अस्थायी शौक है, न कि भविष्य का विकल्प। इससे लड़कियां पोषण की कमी, संसाधनों की अनुपलब्धता और आर्थिक तंगी के कारण पीछे रह जाती हैं। सरकार ने ‘खेलो इंडिया’, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’, ‘फिट इंडिया’ जैसे कई कार्यक्रम शुरू किए हैं, जिनका उद्देश्य लड़कियों और महिलाओं को खेलों में बढ़ावा देना है। लेकिन, इन योजनाओं की पहुंच, क्रियान्वयन और निगरानी ज़मीनी स्तर पर कमजोर है। बहुत से इलाकों में लोगों को इन योजनाओं की जानकारी तक नहीं है, या फिर प्रशासनिक लापरवाही के चलते लाभ नहीं मिल पाता। लेकिन, तमाम बाधाओं के बावजूद, लड़कियां मैदान में उतर भी रही हैं और अव्वल भी आ रही है।

अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार, महिला खेलों को केवल 4 फीसद मीडिया कवरेज मिलता है, जबकि 96 फीसद स्थान पुरुषों के खेल को मिलता है।

महिला खेलों को मीडिया में मिलती कम जगह

आज भी भारतीय मीडिया में महिला खेलों को पर्याप्त स्थान नहीं मिलता। अधिकतर खेल समाचार पुरुष खिलाड़ियों के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहते हैं। महिला खिलाड़ियों की उपलब्धियां मेहनत और संघर्ष की कहानियां अक्सर पीछे छूट जाती हैं। इस उपेक्षा का सीधा असर महिला खिलाड़ियों के करियर पर पड़ता है। जब उन्हें मीडिया में मंच नहीं मिलता, तो स्पांसरशिप, पहचान और भविष्य के अवसर सीमित हो जाते हैं। इससे न सिर्फ उनके पेशेवर विकास में बाधा आती है, बल्कि समाज में लड़कियों की खेलों में भागीदारी को भी बढ़ावा नहीं दिया जाता। महिला खिलाड़ी सिर्फ तब ही सुर्खियों में आती हैं जब वे ओलंपिक या किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय मंच पर पदक जीतती हैं। भारत और विश्व स्तर पर यह स्थिति लगभग समान है। अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार, महिला खेलों को केवल 4 फीसद मीडिया कवरेज मिलता है, जबकि 96 फीसद स्थान पुरुषों के खेल को मिलता है।

तस्वीर साभार: India Netzone

वहीं हिंदुस्तान टाइम्स की साल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में खेल समाचारों में महिला खिलाड़ियों को औसतन 4 फीसद से भी कम स्थान मिलता है। टोक्यो ओलंपिक 2020 के दौरान कुछ सकारात्मक बदलाव ज़रूर देखने को मिले। बीबीसी और अन्य मीडिया विश्लेषण संगठनों ने पाया कि उस दौरान महिला एथलीटों की मीडिया कवरेज में बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन वह भी 30 फीसद से अधिक नहीं पहुंच सकी। यह दिखाता है कि महिला खिलाड़ियों को लेकर मीडिया कवरेज में भारी असमानता मौजूद है।

हिंदुस्तान टाइम्स की साल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में खेल समाचारों में महिला खिलाड़ियों को औसतन 4 फीसद से भी कम स्थान मिलता है।

बदलाव की कहानी

आस्था हल्द्वानी सिटी की रहने वाली हैं और पिछले चार से पांच वर्षों से माउंटेन बाइकिंग कर रही हैं। यह एक साहसिक खेल है जिसमें पहाड़ों की कठिन पगडंडियों और ऑफ-रोड रास्तों पर साइकल चलाई जाती है। उन्होंने कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा भी लिया है। खेलों में भेदभाव के मामले में आस्था हल्द्वानी कहती हैं, “मेरा मानना है कि इस क्षेत्र में लड़कियों की भागीदारी अभी भी कम है, लेकिन धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है। अक्सर लड़कियां धूप में त्वचा के काले होने, चोट लगने या परिवार से समर्थन न मिलने की वजह से इस खेल से दूरी बना लेती हैं। इस खेल में खर्च काफी अधिक होता है। एक अच्छी माउंटेन बाइक, जरूरी सुरक्षा उपकरण और संतुलित डाइट का खर्च उठाना सभी के लिए आसान नहीं होता। फिर भी अगर किसी में सच्चा जुनून और मजबूत संकल्प हो, तो कोई भी चुनौती रास्ता नहीं रोक सकती।”

तस्वीर साभार: Daya

वह आगे कहती हैं, “हमें खुद पहल करनी होगी, अपनी फिटनेस, मानसिक ताकत और जानकारी को बेहतर बनाना होगा। समाज की मानसिकता अक्सर लड़कियों को हतोत्साहित करती है। जैसे, खेल में चोट लग गई तो भविष्य खराब हो जाएगा। इस खेल की ड्रेस शार्ट होती है जिसे खेल को खेलने और प्रेक्टिस करने में सुविधाजनक होता है, लेकिन लोग घूर-घूर कर देखते हैं, सवाल उठते हैं, जिससे हमें कई बार असहजता का सामना करना पड़ता है। लेकिन अगर हम बोलेंगे, आगे बढ़ेंगे, तो बदलाव जरूर आएगा।”

मेरा मानना है कि इस क्षेत्र में लड़कियों की भागीदारी अभी भी कम है, लेकिन धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है। अक्सर लड़कियां धूप में त्वचा के काले होने, चोट लगने या परिवार से समर्थन न मिलने की वजह से इस खेल से दूरी बना लेती हैं।

खेल के मैदान में लड़कियां है जरूरी

जब लड़कियां खेल के मैदान में उतरती हैं, तो वे केवल एक खेल नहीं खेल रही होतीं, बल्कि वे समाज को यह संदेश दे रही होती हैं कि वे बराबरी चाहती हैं और इसके लिए तैयार हैं। खेल उनके लिए आत्म-निर्भरता, आत्म-सम्मान और पहचान का ज़रिया बन जाता है। लंबे समय से खेलों को पुरुषों का क्षेत्र माना गया है, लेकिन लड़कियां इस सोच को चुनौती दे रही हैं। उनका खेलना पारंपरिक सोच, सामाजिक वर्जनाओं और पुरुष वर्चस्व के ख़िलाफ़ एक मजबूत संदेश है। आज छोटे शहरों और गांवों से आने वाली लड़कियां भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीत रही हैं। कई मामलों में सरकारी योजनाएं जैसे ‘खेलो इंडिया’ और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ इस बदलाव को समर्थन दे रही हैं। कई खिलाड़ी जैसे साक्षी मलिक, मिताली राज, पी.वी. सिंधु जैसी खिलाड़ी केवल पदक विजेता नहीं, बल्कि प्रेरणा हैं। उनकी सफलता यह बताती है कि खेलों में लड़कियों का भविष्य उज्ज्वल है।
इनके कारण कई परिवार अपनी बेटियों को खेलों में आगे बढ़ने का मौका देने लगे हैं। महिला खिलाड़ियों को पर्याप्त मीडिया कवरेज मिलना ज़रूरी है। उनकी कहानियां ही अगली पीढ़ी की लड़कियों को प्रेरित कर सकती हैं। स्कूल-कॉलेज स्तर पर खेलों का प्रचार और महिला कोचों की नियुक्ति इस दिशा में मददगार साबित हो सकती है। खेलों में लड़कियों की भागीदारी सिर्फ व्यक्तिगत जीत नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का प्रतीक है। यह साहस, आत्मविश्वास और बराबरी की ओर एक ठोस क़दम है। ज़रूरत है कि समाज मिलकर ऐसा माहौल बनाए जहाँ लड़कियाँ बिना डर के खेल सकें क्योंकि जब लड़कियां खेलती हैं, तब पूरा समाज जीतता है।

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