“मैं कॉरपोरेट ऑफिस में काम करती हूं, लेकिन सिर्फ़ ट्रांस महिला होने की वजह से लोग मुझे सेक्स वर्कर समझते हैं।” महाराष्ट्र के सोलापुर जिले की रहने वाली अमृता दुबे को हाल ही में एक कॉरपोरेट कंपनी में नौकरी मिली है, जहां उनकी लैंगिक पहचान को पूरी तरह स्वीकार किया गया है। यह नौकरी उनके जीवन में एक बड़ी उपलब्धि है। अब नौकरी के कारण अमृता को पुणे जाना होगा। लेकिन, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपने रहने के लिए घर ढूंढना। आम तौर पर किसी एकल महिला के लिए किराये पर घर लेना आसान नहीं होता। लेकिन, अमृता के लिए यह और भी मुश्किल है क्योंकि वह एक ट्रांसजेंडर महिला हैं। यही उनकी सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।
भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय को सदियों से समाज के हाशिए पर रखा गया है। सामाजिक भेदभाव और पूर्वाग्रह ने उनके जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है, जिसमें आवास भी शामिल है। जब ट्रांसजेंडर व्यक्ति किराए पर घर ढूंढ़ते हैं, तो उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कई मकान मालिक गलत धारणाओं के कारण मानते हैं कि ट्रांस व्यक्ति उनके अन्य किरायेदारों या पड़ोसियों को असहज कर सकते हैं, इसलिए वे उन्हें घर किराए पर देने से मना कर देते हैं। कई कोशिशों के बाद अमृता को आखिरकार एक घर मिला, लेकिन कुछ शर्तों के साथ। उसे बताया गया कि चार हजार रुपये किराए वाले घर के लिए उसे सात हजार रुपये देने होंगे, और उसके घर में अन्य ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का आना मना होगा।
मैंने उनसे कहा कि मैं कॉरपोरेट ऑफिस में काम करती हूं। सिर्फ ट्रांस महिला होने के कारण लोग मुझे सेक्स वर्कर समझते हैं। मुझे इन अनुभवों के बाद मजबूरी में पुरुषों के पीजी में रहना पड़ा। वहां भी पीजी मालिक ने तुरंत कमरा नहीं दिया बल्कि कहा, “बाकियों से पूछकर बताना होगा कि तुम्हारा यहां रहना कहीं उनके लिए असुरक्षित तो नहीं।
कैसे ट्रांस लोगों को घर के लिए किया जाता है उत्पीड़ित
अमृता बताती हैं कि जब उन्होंने पुणे में घर किराए पर लेना चाहा, तो उनकी मकान मालकिन ने सबसे पहले यह सुनिश्चित किया कि वे सेक्स वर्कर न हों। सिर्फ़ इसलिए उन्हें घर मिल गया क्योंकि वे एक कॉर्पोरेट ऑफिस में काम करती हैं। लेकिन पुणे में कई ट्रांस व्यक्ति अब भी ऐसे घर नहीं पा पाते, और मजबूरन स्लम जैसे इलाकों में रहना पड़ता है। मकान मालिक जानते हैं कि ट्रांस लोगों के पास घर के कम विकल्प होते हैं, इसलिए वे उनसे ज़्यादा किराया वसूलते हैं। अमृता कहती हैं कि उनकी मकान मालकिन आज भी बिना बताए घर में आकर देखती हैं कि कहीं कोई ट्रांस व्यक्ति उनके घर तो नहीं आया। वे कहती हैं कि वे अपने ही घर में घुट-घुटकर जी रही हैं।
मकान मालकिन उनकी पहचान छिपाती हैं और लोगों से कहती हैं कि अमृता एक सीसजेंडर महिला हैं, लेकिन वह इससे खुश नहीं हैं। वे अपनी ट्रांस पहचान पर गर्व करती हैं और चाहती हैं कि समाज यह जाने कि ट्रांस महिलाएं भी कॉर्पोरेट ऑफिसों में काम करती हैं और समाज का बराबरी का हिस्सा हैं। वहीं, स्वर्णिम, जो पुणे की एक ट्रांस महिला हैं, बताती हैं, “घर खोजते समय मुझे भी भेदभाव का सामना करना पड़ा। मैं एक शेयर्ड फ्लैट में रहती थीं, जहां मुझे कुल किराए का 50 प्रतिशत देना पड़ता था, जबकि मेरा हिस्सा सिर्फ़ 33 प्रतिशत था। बाकी दोनों रूममेट—एक महिला और एक पुरुष—सिर्फ़ 25-25 प्रतिशत किराया देते थे। मुझे उसी शर्त पर वहां रहने की इजाज़त मिली थी।”
घर खोजते समय मुझे भी भेदभाव का सामना करना पड़ा। मैं एक शेयर्ड फ्लैट में रहती थीं, जहां मुझे कुल किराए का 50 प्रतिशत देना पड़ता था, जबकि मेरा हिस्सा सिर्फ़ 33 प्रतिशत था। बाकी दोनों रूममेट—एक महिला और एक पुरुष—सिर्फ़ 25-25 प्रतिशत किराया देते थे। मुझे उसी शर्त पर वहां रहने की इजाज़त मिली थी।
अमेरिकी ट्रांसजेंडर सर्वे 2015 के अनुसार, 53 फीसद से अधिक ट्रांसजेंडर लोगों ने अपने जीवन में किसी न किसी रूप में हिंसा का सामना किया है। ट्रांस व्यक्तियों को सिसजेंडर लोगों की तुलना में 2.5 गुना अधिक हिंसक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। यही वजह है कि उनके लिए सुरक्षित आवास ढूंढना बेहद जरूरी हो जाता है। उन्हें अक्सर यह डर रहता है कि मकान मालिक या पड़ोसी उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। लेकिन, स्वर्णिम के साथ हिंसा उनके अपने ही घर में हुई। उनकी फ्लैटमेट, जो एक महिला थी, स्वर्णिम से शारीरिक संबंधों की मांग करती थी, और उनके मना करने पर वह लगातार उनके साथ मानसिक हिंसा करती रही।
पेइंग गेस्ट में ट्रांस लोगों के लिए चुनौतियां
कॉलिविंग या पेइंग गेस्ट (पीजी) में रहना एक तरह की हॉस्टल जैसी व्यवस्था होती है, जहां कोई व्यक्ति एक कमरा दूसरे व्यक्ति के साथ शेयर कर सकता है। ऐसे पीजी में लगभग सभी ज़रूरी सुविधाएं मौजूद होती हैं। कमरे को शेयर करने से किराया किसी पूरे मकान के किराए से कम पड़ता है। कॉलिविंग की ख़ासियत यह है कि यहां महिला और पुरुष दोनों आपसी सहमति से एक ही कमरे में रह सकते हैं। 27 साल की ट्रांस महिला जेन पिछले दो साल से हैदराबाद में कॉरपोरेट सेक्टर में काम कर रही हैं। नौकरी की शुरुआत में उन्हें रहने के लिए पीजी का सहारा लेना पड़ा, लेकिन वहां का अनुभव उनके लिए बेहद कठिन और अपमानजनक रहा। जेन बताती हैं, “महिलाओं के पीजी में हमें रहने नहीं दिया जाता क्योंकि पीजी के मालिक हमें ‘महिला’ मानते ही नहीं। जब मैंने कॉलिविंग पीजी में रहने की कोशिश की, तो मुझसे कहा गया कि मैं सिर्फ सिंगल रूम में रह सकती हूं जिसका किराया दोगुना होता है। जब मैंने रूम शेयरिंग की बात की, तो कहा गया कि कोई भी मेरे साथ कमरा शेयर नहीं करना चाहेगा।”
उन्होंने एक और पीजी में फोन कर जानकारी ली। शुरुआत में हामी भर दी गई, लेकिन जब जेन कमरा देखने पहुंची, तो पीजी के मालिक ने उन्हें देखकर मना कर दिया और कहा “यहां सेक्स वर्क करना मना है।” इसपर जेन कहती हैं, “मैंने उनसे कहा कि मैं कॉरपोरेट ऑफिस में काम करती हूं। सिर्फ ट्रांस महिला होने के कारण लोग मुझे सेक्स वर्कर समझते हैं। मुझे इन अनुभवों के बाद मजबूरी में पुरुषों के पीजी में रहना पड़ा। वहां भी पीजी मालिक ने तुरंत कमरा नहीं दिया बल्कि कहा, “बाकियों से पूछकर बताना होगा कि तुम्हारा यहां रहना कहीं उनके लिए असुरक्षित तो नहीं।” हालांकि केवल ट्रांस महिलाएं ही नहीं, बल्कि ट्रांस पुरुष भी ऐसी ही परेशानियों का सामना करते हैं।
स्वर्णिम के साथ हिंसा उनके अपने ही घर में हुई। उनकी फ्लैटमेट, जो एक महिला थी, स्वर्णिम से शारीरिक संबंधों की मांग करती थी, और उनके मना करने पर वह लगातार उनके साथ मानसिक हिंसा करती रही।
दस्तावेजों की कमी में किराये की दिक्कत
21 वर्षीय अमर (नाम बदला हुआ) बेंगलुरु में रहते हैं। उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया, “घर किराए पर लेना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि मकान मालिक कई दस्तावेज़ मांगते हैं जिनमें नाम और जेंडर अपडेट होना चाहिए। लेकिन यह हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला होता है। कई ट्रांस व्यक्ति अपना नाम या जेंडर बदलना नहीं चाहते, या कई बार यह प्रक्रिया आसान नहीं होती। इसी वजह से दस्तावेज़ जमा करना बड़ी दिक्कत बन जाता है। इसी कारण मैं कॉलिविंग पीजी जैसे स्थानों में रहना पसंद करता हूं, क्योंकि वहां ज़्यादा दस्तावेज़ देने की ज़रूरत नहीं होती। लेकिन वहां भी परेशानियां कम नहीं हैं। मुझे किसी के साथ कमरा शेयर करने नहीं दिया जाता। मजबूरन ज़्यादा किराया देकर सिंगल रूम में रहना पड़ता है। मुझे ऐसा कमरा दिया गया है जहां न हवा आती है, न धूप। दिन और रात दोनों एक जैसे लगते हैं। इससे मेरा स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। जब मैंने पीजी मालिक से दूसरा कमरा देने की बात की, तो उन्होंने मना कर दिया और कहा कि अगर पसंद नहीं है तो पीजी छोड़ दो।”
अमर कहते हैं कि हालांकि वे बाकी लोगों से ज़्यादा किराया देते हैं, फिर भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। वे अपने अनुभव साझा करे हुए कहते हैं, “हमारी मजबूरियों का फायदा उठाया जाता है, और हमें ऐसे बंद कमरों में रहना पड़ता है जहां जीना भी मुश्किल हो जाता है।” इन सभी मामलों में साफ़ दिखाई देता है कि समाज अब भी ट्रांस व्यक्तियों के प्रति गहरे पूर्वाग्रह रखता है। लोगों को अक्सर यह भ्रम होता है कि हर ट्रांस व्यक्ति ज़रूर सेक्स वर्क में ही होगा। समाज शिक्षित और पेशेवर ट्रांस व्यक्तियों को भी उसी नज़र से देखता है। कई बार ट्रांस समुदाय के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन सेक्स वर्क इसलिए बनता है क्योंकि तथाकथित ‘सभ्य समाज’ उन्हें अन्य अवसर नहीं देता। योग्य होने के बावजूद उन्हें नौकरी और शिक्षा के संसाधनों से वंचित रखा जाता है। मजबूरी में कई लोगों को सेक्स वर्क को अपनी आजीविका का माध्यम बनाना पड़ता है।
मैंने उनसे कहा कि मैं कॉरपोरेट ऑफिस में काम करती हूं। सिर्फ ट्रांस महिला होने के कारण लोग मुझे सेक्स वर्कर समझते हैं। मुझे इन अनुभवों के बाद मजबूरी में पुरुषों के पीजी में रहना पड़ा। वहां भी पीजी मालिक ने तुरंत कमरा नहीं दिया बल्कि कहा, “बाकियों से पूछकर बताना होगा कि तुम्हारा यहां रहना कहीं उनके लिए असुरक्षित तो नहीं।”
इस विषय पर ट्रांस कवयित्री और ट्रांस राइट्स एक्टिविस्ट दिशा शेख़ कहती हैं, “अक्सर समाज ने ट्रांस व्यक्तियों को भिक्षा मांगते या सेक्स वर्क करते हुए ही देखा है, जो उन्हें अनैतिक लगता है। बहुत कम लोग ट्रांस व्यक्तियों को किसी ऊंचे पद या पेशेवर भूमिका में देखते हैं। इसीलिए, उन्हें लगता है कि पूरा ट्रांस समुदाय केवल भिक्षा या सेक्स वर्क ही करता होगा।” महाराष्ट्र में रहने वाली दिशा शेख़ बताती हैं कि जब उन्होंने कुछ ज़मीन ख़रीदने की कोशिश की, तब ज़मीन के मालिक ने बेचने से मना कर दिया। दिशा कहती हैं, “ज़मीन के मालिक को पता चला कि मैं ट्रांसजेंडर हूं तो वह झिझक गए। उन्हें डर था कि अगर मैं ज़मीन ख़रीद लूंगी, तो पड़ोसी असहज हो जाएंगे और आस-पास की ज़मीन कोई नहीं ख़रीदेगा।”
क्या है कानूनी प्रावधान
भारतीय कानून में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के सुरक्षा के लिए कई प्रावधान मौजूद हैं। भारत का कानून ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समान आवास का अधिकार भी देता है। इस विषय पर अधिवक्ता अभिनव अडसुल बताते हैं, “ट्रांस व्यक्तियों को घर किराए पर मिलना उनका संवैधानिक अधिकार है। उनकी लैंगिक पहचान के कारण उन्हें मकान किराए पर देने से इनकार करना न केवल उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि यह एक अपराध भी है।” भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों के लिए समान कानून की बात करता है। अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। अनुच्छेद 21 हर भारतीय को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। इसके अंतर्गत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के आवास सहित उनके अन्य अधिकारों की भी रक्षा की जाती है। अडसुल आगे कहते हैं, “अगर इन प्रावधानों के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं होती, तो ट्रांस व्यक्ति पुलिस स्टेशन या कलेक्टर को आवेदन दे सकते हैं। अगर तब भी मकान मालिक पर कोई कार्रवाई नहीं होती है, तो ट्रांस व्यक्ति उस आवेदन की रसीद एसीपी, डीसीपी या मानवाधिकार आयोग को भेज सकते हैं। इसके बाद वे हाईकोर्ट में अपील भी कर सकते हैं।”
हालांकि, इन कानूनी प्रावधानों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर बदलाव बहुत कम दिखाई देते हैं। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अक्सर सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। उन्हें अपने समुदायों से अलग-थलग कर दिया जाता है, जिससे उनके लिए सुरक्षित और सम्मानजनक आवास ढूंढना बेहद कठिन हो जाता है। यह सामाजिक अस्वीकारता न केवल उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि उन्हें अकेलेपन और असुरक्षा की स्थिति में भी डाल देता है। हमें यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समान आवास के अवसर ही नहीं बल्कि मौके और अधिकार भी मिलें। जरूरी है कि मकान मालिक अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाएं और ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति संवेदनशील हों। एक समावेशी समाज का निर्माण तभी संभव है जब हर व्यक्ति सुरक्षित, समान और सम्मानजनक जीवन जी सके।

