हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जुड़ी हुई बातें अक्सर धीमी आवाज़ों में होती हैं, जैसे कि यह कोई शर्म की बात हो। लेकिन जब यह उन महिलाओं से जुड़ी होती हैं जो पहले से ही जाति, धर्म, वर्ग और पहचान के कारण हाशिए पर हैं, तो यह बातचीत और भी मुश्किल हो जाती है। इन महिलाओं की ज़िंदगियां कई तरह की असमानताओं से गुज़रती हैं। वे एक साथ महिला, मुस्लिम, गरीब होने और ‘दूसरी’ कही जाने वाली पहचान का बोझ ढोती हैं। समाज में उन्हें आज भी पुरुषों की तुलना में सेकेंडरी सिटिज़न माना जाता है, जिनके अधिकार, आवाज़ और सपने हमेशा दूसरे नंबर पर रखे जाते हैं।
इनमें से कई महिलाएं शहरों के कोनों में बसे अर्बन ‘घेटोज़’ में रहती हैं। ये वो इलाके हैं जहां ग़रीबी, असुरक्षा और सामाजिक दूरी एक साथ मिलकर उनकी दुनिया को सीमित कर देते हैं। यानी वे अक्सर ऐसे इलाकों में रहती हैं, जहां बुनियादी सुविधाएं कम हैं, रोज़गार के अवसर सीमित हैं, और बाहर की दुनिया से उनका संपर्क लगभग टूटा हुआ है। कभी उनमें से कुछ महिलाएं बंगाली भाषा बोलती हैं। लेकिन, उन्हें ‘बांग्लादेशी’ कहकर शक की निगाह से देखा जाता है। ये ठीक वैसा ही है, जैसे अपनी ही मिट्टी पर उनकी पहचान खो सी गई हो। हाल ही में समुदाय के बाहर हुए विरोध प्रदर्शनों ने इस डर को और गहरा कर दिया है। कई महिलाएं अब अपना पता तक बताने से झिझकती हैं। इससे यह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि गरीबी, जाति, वर्ग और जेंडर किस तरह से महिलाओं को मानसिक रूप से और हाशिये पर ले आता है।
हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जुडी हुई बातें अक्सर धीमी आवाज़ों में होती हैं, जैसे कि यह कोई शर्म की बात हो। लेकिन जब यह उन महिलाओं से जुड़ी होती हैं जो पहले से ही जाति, धर्म, वर्ग और पहचान के कारण हाशिए पर हैं। तो यह बातचीत और भी मुश्किल हो जाती है।
‘बैठक’ जहां महिलाएं अपनी पहचान खुद गढ़ रही हैं
सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार महिलाओं के मन में डर, असुरक्षा और हीनता की भावना को और गहरा कर देता है। इन्हीं चुनौतियों के बीच ‘बैठक’ जैसी पहल ने जन्म लिया है, जो उन पारंपरिक पुरुष-प्रधान चौपालों से अलग है जहां बातचीत का अधिकार केवल पुरुषों का ही होता है। बैठक अब महिलाओं के लिए एक खुला, बिना एजेंडा वाला सामुदायिक जगह है। यहां वे मिलती हैं, अपने अनुभव साझा करती हैं और पहली बार अपने मन की बात कहती हैं। वे अपने ढंग से, छोटे-छोटे तरीक़ों से, समाज के बनाए जेंडर आधारित नियमों और असमान ढांचे को चुनौती दे रही हैं।
यह कोई रेखीय या एक झटके में आने वाला बदलाव नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे पनपता हुआ प्रतिरोध है। यह इसी प्रतिरोध की जगह है। जो कभी पुरुषों की चौपाल हुआ करती थी, आज महिलाओं के लिए एक खुला, भरोसेमंद जगह बन गई है। यह इन महिलाओं के लिए सिर्फ़ मिलने-जुलने की जगह नहीं है, बल्कि अपने अस्तित्व को पहचानने और नए सिरे से गढ़ने की प्रक्रिया है। यहां वे सीख रही हैं कि मानसिक स्वास्थ्य केवल मन की शांति का नहीं, बल्कि सम्मान, आत्मनिर्भरता और समानता का सवाल भी है।
बैठक अब महिलाओं के लिए एक खुला, बिना एजेंडा वाला सामुदायिक जगह है, जहां वे मिलती हैं, अपने अनुभव साझा करती हैं, और पहली बार अपने मन की बात कहती हैं। वे अपने ढंग से, छोटे-छोटे तरीक़ों से, समाज के बनाए जेंडर आधारित नियमों और असमान ढांचे को चुनौती दे रही हैं।
मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में बैठक की पहल
परंपरागत रूप से ‘बैठक’ घर का वह स्थान माना जाता है, जहां पुरुष निर्णय लेते हैं, सामाजिक और पारिवारिक मामलों पर चर्चा करते हैं और अपने विचार रखते हैं। महिलाओं की भूमिका अक्सर उस घेरे से बाहर रहने की रही है कभी रसोई में तो कभी भीतरी आंगन में। उन्हें सुना नहीं जाता, सिर्फ देखा जाता है। वह भी अक्सर सिर्फ एक जिम्मेदारी निभाने वाली भूमिका में, जैसे कि माँ, पत्नी, बहू या बेटी के रूप में और घर का काम करने वाली ‘आदर्श महिला’ के रूप में। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की साल 2024 की टाइम यूज़ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाएं रोज़ाना औसतन 289 मिनट अवैतनिक घरेलू कामों में बिताती हैं, जबकि पुरुष केवल 88 मिनट काम में लगाते हैं। इसके अलावा, महिलाएं परिवार के सदस्यों, बच्चों, बुज़ुर्गों या बीमारों की देखभाल में लगभग 137 मिनट रोज़ाना बिताती हैं, जबकि पुरुष औसतन 75 मिनट ही देते हैं।
इसी परंपरागत संरचना को चुनौती देते हुए ‘महिला बैठक’ को एक वैकल्पिक सामाजिक स्थान के रूप में तैयार किया गया है, जहां महिलाएं सिर्फ भूमिका नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के रूप में उपस्थित हो सकती हैं। दिल्ली का श्रम विहार ऐसा इलाका है जहां कई परिवार ग़रीबी, असमानता और असुरक्षा में दिन बिताते हैं। यहां की अधिकांश महिलाएं घरेलू कामगार हैं या छोटे स्तर की नौकरियां करती हैं। सुबह से रात तक बच्चों, रसोई, कपड़ों और जिम्मेदारियों के बीच सिमटा रहता है। उनके पास न मन का आराम है, न शरीर का विश्राम। उदाहरण के तौर पर, एक किशोरी कहती हैं,”मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं अपने ही घर में क़ैद हूं, क्योंकि मेरे भाई बाहर जा सकते हैं, लेकिन मुझे अकेले बाहर जाने की इजाज़त नहीं है।”
जब एक महिला कहती हैं, “मुझे भी कभी-कभी लगता है कि मैं थक गई हूं”, और दूसरी महिला सिर हिलाकर कहती है “मुझे भी यह लगता है“ यहीं से जेंडर न्याय का वास्तविक सामूहिक भाव जन्म लेता है। यह कोई राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि रिश्तों पर आधारित जेंडर समझ है।
वहीं एक विधवा महिला, जो तीन बच्चों और दो नौकरियों को संभाल रही है, कहती हैं, “मेरे पास रोने का भी समय नहीं है। अगर मैं रुक गई, तो सब कुछ बिखर जाएगा।” ये अनुभव बताते हैं कि हाशिए पर रह रही महिलाओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ़ सहन करना नहीं, बल्कि उस व्यवस्था में बचकर निकलना भी है, जो उन्हें कभी रुकने या अपनी थकान जताने की इजाज़त नहीं देती। बैठक इस चौखट को तोड़ती है। यह एक ऐसा सुरक्षित सामाजिक भावनात्मक दायरा है, जहां महिलाएं बिना किसी औपचारिकता के हंसती हैं, गुनगुनाती हैं, कहानियां सुनाती हैं और कभी-कभी चुप रहकर भी अपनी उपस्थिति को महसूस करती हैं। यह चुप्पी भी एक तरह का संवाद है, मानसिक स्वास्थ्य की भाषा में इसे स्पेस होल्डिंग कहा जाता है।
मानसिक स्वास्थ्य के लिए बैठक की भूमिका
कोविड-19 महामारी ने दुनिया को मानसिक स्वास्थ्य के महत्व के बारे में जागरूक किया हो, लेकिन भारत में महिलाओं की मानसिक सेहत का मुद्दा अब भी नजरअंदाज किया जाता है। खासकर उन महिलाओं का, जो पूरे दिन घर के कामों में लगी रहती हैं। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन में छपी डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं में अवसाद का खतरा पुरुषों की तुलना में करीब 50 फीसदी ज़्यादा होता है, वहीं भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां सबसे ज़्यादा लोग अवसाद से प्रभावित हैं। बैठक इस ‘दबे हुए भावनात्मक संसार’ को धीरे-धीरे शब्द देती है। यहां महिलाएं सिर्फ सुनने वाली नहीं बल्कि कहानी कहने वाली बनती हैं। वे अपने जीवन के अनुभव साझा करती हैं। घरेलू संघर्ष, बच्चे की शिक्षा की चिंता, शरीर और पीरियड्स से जुड़ी चुप्पियां आदि। जब एक महिला कहती हैं, “मुझे भी कभी-कभी लगता है कि मैं थक गई हूं”, और दूसरी महिला सिर हिलाकर कहती है “मुझे भी यह लगता है“ यहीं से जेंडर न्याय का वास्तविक सामूहिक भाव जन्म लेता है। यह कोई राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि रिश्तों पर आधारित जेंडर समझ है।
उन्होंने कहा, “हमारे घरों में बात करने का रिवाज नहीं है, पर यहां कोई सुनता है। यहां कोई डांटता नहीं, बस समझता है।” मानसिक स्वास्थ्य सत्रों में प्रशिक्षकों ने आराम की सांस, और हंसी के खेल जैसे सरल अभ्यास कराए।
श्रम विहार बैठक की महिलाएं कर रही हैं बातें साझा
सुनीता की कहानी मनोबल की मिसाल है। दो नौकरियों, दो बच्चों की ज़िम्मेदारी और जीवनभर की थकान के बीच उन्होंने पहली बार अपने लिए समय का अर्थ खोजा। आज वे हर सत्र में सबसे आगे बैठती हैं। सीखने की उत्सुक, प्रेरित और नई महिलाओं के लिए हौसले की मिसाल बनकर। कपासी का आत्मविश्वास उसकी दिन प्रतिदिन की गतिविधियों में झलकता है। बैठक में आत्म-अभिव्यक्ति के अवसर ने उसे यह महसूस कराया कि महिलाओं की आवाज़ भी सुनी जा सकती है। आज वह अपने समुदाय की आंगनवाड़ी के लिए सरकारी दफ्तरों में बिना किसी झिझक के जाकर बात करती हैं। वृद्ध महिलाओं ने बताया कि बैठक उनके लिए घर की दीवारों के बाहर की पहली अनुभव पूर्ण जगह थी।
उन्होंने कहा, “हमारे घरों में बात करने का रिवाज नहीं है, पर यहां कोई सुनता है। यहां कोई डांटता नहीं, बस समझता है।” मानसिक स्वास्थ्य सत्रों में प्रशिक्षकों ने आराम की सांस, और हंसी के खेल जैसे सरल अभ्यास कराए। इन अभ्यासों का असर इतना सकारात्मक रहा कि कई महिलाएं अब नियमित रूप से बैठक में आने लगी हैं, भले घर का काम अधूरा रहे। इन अनुभवों ने दिखाया कि बैठक केवल सामूहिक बातचीत का मंच नहीं बल्कि भावनात्मक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया बन चुकी है। महिलाएं अब अपने भीतर के दबाव को साझा करना सीख रही हैं, और यही साझा करना उनके मानसिक सशक्तिकरण का बुनियादी कदम है।
सुनीता की कहानी मनोबल की मिसाल है। दो नौकरियों, दो बच्चों की ज़िम्मेदारी और जीवनभर की थकान के बीच उन्होंने पहली बार अपने लिए समय का अर्थ खोजा। आज वे हर सत्र में सबसे आगे बैठती हैं। सीखने की उत्सुक, प्रेरित और नई महिलाओं के लिए हौसले की मिसाल बनकर।
इसके दीर्घकालिक प्रभाव और भविष्य की दिशा
बैठक ने जो शुरुआत की है, उसके दीर्घकालिक प्रभाव अब दिखाई देने लगे हैं। समुदाय में विश्वास का माहौल बना है। महिलाएं अब एक-दूसरे से सलाह लेती हैं, मानसिक स्वास्थ्य समस्या हो या घरेलू तनाव पर खुलकर बात करती हैं। कई परिवारों में पुरुषों ने भी इन परिवर्तनों को देखा और समझना शुरू किया। पहले जहां महिलाएं मानसिक स्वास्थ्य को कमज़ोरी मानती थीं, अब वे इसे जरूरी देखभाल के रूप में समझ रही हैं। कुछ प्रतिभागियों ने स्थानीय स्कूलों और समुदायिक केंद्रों में इस मॉडल को आगे बढ़ाने की इच्छा जताई है। बैठक की टीम अब युवतियों के भावनात्मक शिक्षण और घर के अंदर संवाद पर केंद्रित नए सत्रों की योजना बना रही है। दीर्घकालिक रूप से इस पहल का लक्ष्य है कि श्रम विहार जैसी बस्तियों में मानसिक स्वास्थ्य और जेंडर न्याय की चर्चा सामान्य हो शर्म या अपराधबोध के बजाय समझ और सहानुभूति के साथ।
ग़रीबी, असुरक्षा, जाति-धर्म आधारित भेदभाव और पितृसत्ता की दीवारें महिलाओं के मन पर ऐसे निशान छोड़ती हैं जिन्हें समाज अक्सर देख ही नहीं पाता। उनके लिए मानसिक स्वास्थ्य समस्या का मतलब इलाज नहीं, बल्कि जीवित रहने की रणनीति है। एक ऐसी प्रणाली में जो उनसे निरंतर सहने, चुप रहने और निभाने की उम्मीद रखती है। लेकिन इसी चुप्पी के बीच बैठक जैसी पहल एक उम्मीद की किरण बनकर उभरी है। यहां महिलाएं अपने मन की गांठें खोलती हैं। हंसते हुए, गुनगुनाते हुए, या कभी बस चुप रहकर। वे महसूस करती हैं कि उनकी भावनाएं बोझ नहीं हैं, बल्कि उनकी ताक़त हैं। जब कोई किशोरी कहती है कि उसे घर की दीवारों से बाहर निकलने की चाह है, और कोई विधवा अपने संघर्ष को साझा करती है, तो यह सिर्फ़ दर्द का इज़हार नहीं बल्कि सामूहिक उपचार की शुरुआत है। बैठक ने दिखाया कि मानसिक स्वास्थ्य और जेंडर न्याय एक-दूसरे से अलग नहीं हैं।

