एक आदर्श महिला होना क्या होता है? इस सवाल के जवाब में शायद हमारे समाज में सब के मन में एक छवि उभरकर आती है। एक ऐसी छवि जो एक आदर्श महिला को परिभाषित और आकारबद्ध करती है। लोगों के मन में उभरी इस तस्वीर में एक औरत होती है, जो ‘शालीन’ हो, जिसका पहनावा ‘सभ्य’ हो, जिसकी आवाज़ ‘धीमी’ और ‘विनम्र’ हो, नज़रें झुकी हो और जो हर सवाल का जवाब सिर्फ ‘हां’ में दे। इस छवि में जिस आदर्श महिला की कल्पना की जाती है उसका अपना कुछ नहीं होता। न कोई सपने, ना इरादे, ना इच्छाएं और न ही कोई मंज़िल। सब कुछ उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सौंपा जाता है, एक पुरुष के द्वारा। ऐसी आदर्श महिला की कल्पना एक पुरुष की कल्पना है। यह आदर्श महिला एक पुरुष द्वारा गढ़ी गई महिला है। लेकिन अफ़सोस, हमारा समाज इसी महिला की छवि को अपने भीतर अंगीकृत किए बैठा है। एक महिला को इस ‘आदर्श चश्मे’ से देखने के इस पुरुषवादी नज़रिए की बनवाट बड़ी चालाकी से यह पुरुष प्रधान समाज करता है।
लड़की के जन्म के पहले से ही पुरुषों की कल्पना के अनुसार उसे एक आदर्श महिला बनाने की जद्दोजहद शुरू होती है वह उसके मरने तक भी जारी रहती है। ऐसे में कोई भी लड़की अपने आप को एक पुरुष द्वारा गढ़ी गई महिला से अलग करके सोच ही नहीं पाती। वह तो ताउम्र उसी आदर्श महिला की मूर्ती की तरह बनने की कोशिश में लगी रहती है जिसे किसी पुरुष ने अपनी सहूलियत, अपने आप के लिए तराशा है। फिर से सवाल वहीं का वहीं है, अगर आज भी महिला एक पुरुष द्वारा ही परिभाषित की जाती है, तो आखिर एक महिला के नज़रिए से महिला होना क्या होता है? यह सवाल बहुत कठिन है, जिसके जवाब की खोज में हम औरतें आजकल दिन रात लगी रहती हैं। यह खोज, यह तलाश हमारे अस्तित्व की तलाश है।
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धीरे-धीरे हमारी लड़ाका पुरखिनों ने बगावत का रास्ता अख्तियार कर पुरुषों द्वारा तराशी गई आदर्श महिला की इस मूर्ति का खंडन किया और अपने कदम शिक्षा की और बढ़ाए तो हमारे अस्तित्व को कब्र से निकालकर उसे जिंदा करने की जद्दोजहद शुरू हो गई। आज हमारे देश में कई शिक्षण संस्थान ऐसे हैं जहां महिलाओं ने अपने संघर्षों की बदौलत अपने अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई को जिंदा रखा है। दिल्ली में स्थित एक ऐसा ही बहुचर्चित संस्थान है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। अभी हाल ही के कुछ सालों में इस संस्थान को बहुत अधिक ख्याति और बदनामी दोनों का सामना बराबरी से करना पड़ा है। इस पूरे मसले की शुरुआत और जड़ बहुत अलग थी लेकिन इस पूरे दौर में एक सवाल जो बार-बार इस संस्थान के सामने उठाया गया वह था की इस विश्वविद्यालय में महिलाएं इतनी ‘आज़ाद’ क्यों है? तरह-तरह के झूठ, प्रोपोगेंडा, तस्वीरों, वीडियो और दूसरी भ्रामक खबरों के ज़रिये यह प्रचारित किया गया की इस संस्थान में पढ़ने वाली लड़कियां ‘कैरेक्टरलेस’ यानी बद्किरदार होती हैं क्योंकि ये लड़कियां उस आदर्श महिला के किरदार में बिल्कुल फिट नहीं बैठती।
हालांकि एक पुरुषवादी समाज एक महिला को बद्किरदार और पतनशील तब कहता है जब वह औरत मर्द द्वारा बनाई हुई आदर्श महिला की मूर्ति का खंडन करके महिला होने की अपनी परिभाषा इजाद करती है। इस संस्थान की लड़कियां भी कुछ ऐसी ही हैं। शायद आज मैं भी उनमें से एक हूं, इस संस्थान की बदकिरदार और बद्तमीज़ लड़की हूं। यह कहानी मेरी महिला बनने की कहानी है। वह महिला जिसे मुझे किसी पुरुष ने नहीं गढ़ा है बल्कि जिसे मैंने खुद अपने अनुभवों, अपनी इच्छाओं, अपने सपनों और अपने अरमानों से बनाया है। जेएनयू और यहां पढ़ने वाली महिलाओं ने मुझे बताया है की एक महिला के लिए महिला होने के क्या मायने हैं। इस संस्थान में आने से पहले मेरी परवरिश भी एक पितृसत्तात्मक समाज और माहौल में हुई थी। हमारे मुआशरे में हर परिवार की हर एक महिला उस घर का ‘गुरूर’, ‘शान’ और ‘इज्ज़त’ होती है और यह गुरूर तब तक कायम रहता है जब तक उस घर की औरतें पुरुष द्वारा गढ़ी गई उस आदर्श महिला के खांचे में फिट होती है।
जेएनयू में पढ़ने वाली लड़कियों को बद्किरदार कहा जाता है। शायद इसलिए क्योंकि ये लड़कियां एक आदर्श महिला के किरदार में बिल्कुल फिट नहीं बैठती।
इस परिभाषा को बदलने का मतलब है, इज्ज़त का नीलाम होना और गुरूर का टूटकर बिखर जाना। मैंने भी यही सब सीखा था। मेरे अस्तित्व की शुरुआती नींव यही परवरिश थी। मैंने कभी अपने आप को खोजना नहीं चाहा, अपने बारे में कुछ नया, कुछ अलग, कुछ असाधारण जानना नहीं चाहा। कभी-कभी कुछ खुलकर हंसती हुई, अपनी शर्तों पर जीती हुई लड़कियों को देखकर अच्छा तो लगता था लेकिन फिर झट से दिमाग में उस आदर्श औरत का ख़्याल आ जाता था और वह कुछ पलों की ख़ुशी और मुस्कराहट उन उन्मुक्त लड़कियों के प्रति घृणा और गुस्से में तब्दील हो जाती थी। कभी नहीं सोचा था की कुछ समय बाद मैं भी उन्हीं महिलाओं में से एक हो जाऊंगी जिनसे यह पितृसत्तात्मक समाज सबसे ज़्यादा घृणा करता है। अपनी मास्टर्स की पढ़ाई के लिए मैं जेएनयू आई। मुझे राजनीति पढ़नी थी। पढ़ने के लिए राजनीति महिलाओं का विषय माना जाता है लेकिन असल ज़िन्दगी में राजनीति एक “ऑल मेन्स क्लब” है।
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मैं भी सोचती थी की राजनीति महिलाओं की चीज़ नहीं है क्योंकि जिस तरह की विशेषताएं राजनीति के लिए ज़रूरी हैं वह किसी महिला में हो ही नहीं सकती। राजनीति में हिम्मत और निडरता चाहिए, लेकिन महिलाएं तो डरपोक, नाजुक और कमज़ोर होती हैं। राजनीति के लिए तेज़ दिमाग और चालाकी के साथ सही फैसला लेने की क्षमता चाहिए लेकिन लड़कियां तो बेवकूफ़, भावुक और बददिमाग होती हैं। लड़कियों रट्टा मारने और अच्छी हैण्ड राइटिंग लिखने में तो माहिर होती हैं लेकिन तर्क-वितर्क करने के काबिल नहीं। यही सब अपने दिमागों में भरकर हम अपने साथ इस संस्थान में ले आते हैं। लेकिन यहां की दुनिया जैसे इन सभी धारणाओं और पितृसत्तात्मक परवरिश को मुंह के बल पटक देती है। इस संस्थान में राजनीति में महिलाएं पुरुषों से कहीं ज्यादा आगे हैं। कक्षाओं के भीतर और बाहर तर्क और वाद-विवाद में कहीं ज्यादा तेज़ और सक्षम हैं। यहां की लड़कियों को देखकर शुरू-शुरू में मैं बहुत असहज महसूस करती थी। परवरिश की बेड़ियां इतनी आसानी से कहां टूटती हैं लेकिन अपने चारों ओर इतनी स्वछन्द, उन्मुक्त और आत्मविश्वास से भरी लड़कियों को देखकर इन बेड़ियों को तो एक दिन टूटना ही था।
कुछ ही समय में जैसे ज़िंदगी बदल गई। मैं भी धीरे-धीरे ऊंची आवाज़ में नारे लगाती उन लड़कियों में शामिल होने लगी, उनके वाद-विवादों का हिस्सा बनने लगी। उन्होंने मुझे अपने भीतर ऐसे आत्मसात कर लिए जैसे मैं हमेशा से उनका ही एक हिस्सा थी। ज़िंदगी बहुत आसान और मज़ेदार लगने लगी। मैं अपने आप को स्वीकार करना सीख रही थी, अपने साथ ईमानदार हो रही थी। जहां पहले मैं अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं के बारे में सोचकर ग्लानि महसूस किया करती थी। वहीं, आज यही सपने मेरा आत्मविश्वास बढ़ा रहे थे। ग्रेजुएशन तक मैंने शायद ही कक्षा में अपना मुंह खोला हो। ऐसा लगता था जैसे में सच में सिर्फ रट्टा मारने के काबिल हूं, तार्किक चीजें मेरे बस का नहीं है। लगता था जैसे मैं चार लोगों के बीच में बोल नहीं पाऊंगी। मेरे हाव-भाव कहीं गलत न हो, मेरे उठने-बैठने का तरीका कहीं ठीक नहीं हुए तो। मेरे बारे में कायम की गई हर राय से मुझे फ़र्क पड़ता था। जेएनयू आने के बाद जैसे कितना कुछ बदल गया। मैं उन चार लोगों के सामने भी खुलकर बोलने लगी थी जिनसे मैं पहले डरती थी। कुछ विश्वास यूं भी जगा जब मैं तर्क करने लगी, मुझे यकीन हुआ की मैं भी इस तरह सोच सकती हूं। रात-रात भर चाय के साथ राजनीति पर चर्चा करना, राजनीतिक गतिविधियों का एक हिस्सा बनाना, उनमें भाग लेना मेरे भीतर बहुत कुछ बदल रहा था। जहां पहले दिमाग में एक नियत समय पर घर आ जाने की पाबंदी पड़ी रहती थी, जेएनयू आकर वह भी जाती रही।
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दिल्ली की सर्द रात में कभी अकेले ही हॉस्टल से निकलकर जेएनयू की सुनसान सड़क पर बेख़ौफ़ होकर घूमना एक ऐसा एहसास है जिसे शब्दों में बयां कर पाना बहुत मुश्किल है। यह एक उम्मीद देता है कि शायद इस परिसर की चारदीवारी के बाहर भी कभी एक ऐसी दुनिया बन पाएगी जहां इस देश की आधी आबादी को इतनी ही आज़ादी से अपनी खोज में निकलने के लिए दूसरी दफ़ा सोचना नहीं पड़ेगा। जेएनयू की लड़कियां, हर जगह, हर प्लैटफार्म पर अपनी राय, अपनी बातें बहुत बेबाकी से रखती हैं। शायद इसलिए क्योंकि वे जानती हैं कि किस प्रकार एक क्रूर साज़िश के तहत पुरुषों ने स्त्री को अपने बनाए हुए नियम, कानून, कायदों और बंधनों में जकड़कर रखा है। वे बहुत अच्छी तरह से जानती हैं कि एक महिला होना क्या होता है और यह जानने के लिए पुरुष द्वारा बनाए गए इस समाज और इसके बंधनों को जड़ से उखाड़कर फेंका जाना कितना ज़रूरी है। इसलिए यहां पर ‘नारी मुक्ति जिंदाबाद’ और महिलाओं के साथ साथ पुरुष द्वारा सदियों से सताए गए दूसरे लैंगिक अल्पसंख्यकों के लिए उस ‘आज़ादी’ का नारा लगाया जाता है जिसने सालों से इस महिलावादी आंदोलन को जिंदा रखा है।
यहां की महिलाओं का अपने हक के लिए आवाज़ उठाना इस समाज को असहज करता है और यहां पढ़ने-लिखने वाली औरतों को बद्किरदार करार दिया जाता है। बहरहाल, समय गुज़रने के साथ इस कैंपस ने मेरे भीतर जो आत्मविश्वास भरा उसने मुझे अपने विचारों को इतनी बेबाकी से लिखने और और उनका इज़हार करने का हौसला दिया। यह लेख मैंने उन सभी बदतमीज़, बद्किरादार, बेहया महिलाओं के लिए लिखा है जिन्होंने मुझे और मेरे जैसी कई लड़कियों को अपने आप से मिलाया। यह जेएनयू के उस खूबसूरत संस्थान के लिए लिखा गया है जिसने मुझे खुद पर यकीन करने का हौसला दिया। खैर, अब मैं भी उनकी जमात का एक हिस्सा हूं। इसीलिए आए दिन सिर्फ अपने विचार व्यक्त करने के लिए मुझे सोशल मीडिया और असल जीवन में न जाने कितने पुरुषों की गालियों का सामना करना पड़ता है। आज उनके द्वारा बनाई गई उस आदर्श महिला की मूर्ति में कई दरारें पड़ चुकी हैं। हम बेहया लड़कियां यह देखकर मुतमईन हैं।
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(यह लेख ख़ुशबू शर्मा ने लिखा है, जो जेएनयू में राजनीति विज्ञान की छात्रा हैं)
तस्वीर साभार : financialexpress