यह कहना कि मैं नारीवादी हूँ और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का विरोध करती हूँ। सुनने में थोड़ा अज़ीब लगना लाज़मी है। पर अगर नारीवादी होना उस विरोध का कारण हो तो यह बात मुश्किल से लोगों के गले से उतरेगी। क्योंकि हम आमतौर पर नारीवाद का मतलब सिर्फ़ महिलाओं के संदर्भ में समझते हैं और नागरिकता संशोधन कानून औरतों पर तो कुछ भी नहीं कहता, वह तो सब पर समान रूप से लागू है। यह बात उतनी ही सच है जितनी कि सीएए मुसलमानों के खिलाफ़ नहीं है।
‘नारीवादी’ शब्द को अक्सर केवल महिलाओं की समस्याओं से जोड़ा जाता है। यानि अगर कोई नियम या कानून खासतौर पर महिलाओं पर ही केंद्रित है तभी नारीवादी लोगों को उसके विरोध में सामने आना चाहिए। हालांकि नारीवादी होने के लिए एक ‘नारी’ होना बिल्कुल ज़रूरी नहीं है फिर भी यह शब्द नारी होने और केवल महिलाओं की समस्याओं को संबोधित करने वाला माना जाता है। और इसीलिए यह सवाल औरतों की मौजूदगी पर ही उठाया जाता है कि वे जहां भी हैं वहाँ क्यों हैं? वे घर से बाहर क्यों हैं? ऐसा क्या आन पड़ा कि वे भी किसी विरोध का हिस्सा हैं? बलात्कार के वक़्त भी वे वहाँ क्यों थी? खासकर तब जब सिर्फ़ पीड़ित औरतों के समूह ही नहीं बल्कि आम दफ़्तर या कॉलेज जाती, घर संभालती औरतें भी विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा बनी।
‘पर तुम तो नारीवादी हो?’
आजकल हम सोशल मीडिया पर लोगों को सीएए को और बेहतर समझने-समझाने की कोशिशों में लगा देख रहे हैं। फिर क्यों ना इसे नारीवाद के चश्मे से भी देखा जाये। जब आप और हम सीएए को लेकर बढ़ती जागरुकता की ओर ध्यान दे ही रहे हैं तो उसके नारीवादी पहलू को देखने-समझने में भी कोई हर्ज़ नहीं।
धर्म चाहे कोई भी हो, औरतों के प्रति भेदभाव हर समुदाय के लोगों ने किया है। पुरुष प्रधान इस समाज में हमेशा से सत्ता में रही पितृसत्ता आज भी उतनी ही कायम है। यूँ तो हमारे समाज में औरतों की आबादी आधी है, लेकिन जब हम इस संख्या को विशेषाधिकार और सत्ता के संदर्भ में देखते है तो उन्हें ओझल पाते हैं। लोकतांत्रिक भारत का संयोग कहें या विडंबना कि आज भी यहाँ की लोकसभा में 14 फ़ीसद महिला सांसद हैं। वहीं राज्यसभा में यह और भी कम 10 फ़ीसद है। यह आंकड़े केवल महिलाओं के हैं, जब आधी आबादी की स्थिति ये है तो हम आसानी से ट्रांसजेंडर और अन्य जेंडर के लोगों की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते हैं। भले ही नीति और कानून तय करने वाले ढांचों में महिलाओं का योगदान ना के बराबर हो, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि महिलाएँ कोई राय नहीं रखती है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की आवाज़ को अलग-अलग माध्यमों से दबाने की कोशिश की जाती रही है, जिसके चलते उनके विचार हाशिए में सिमटकर रह जाते है और इसलिए नारीवादी होना हमारी ज़रूरत है। ये ज़रूरी है कि नारीवादी नज़रिए से हर उस क़ानून का विश्लेषण किया जाए जो नागरिकों के लिए बनाए जाते हैं।
नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ क्यों हैं नारीवादी?
इतिहास में वे सभी क़िस्से दर्ज हैं जो यह साबित करते हैं कि दुनियाभर में जितनी भी लड़ाइयाँ लड़ी गईं उनके अधिकतम नकारात्मक परिणाम औरतों के हिस्से में आए। भारत में भी चाहे बात साल 1947 के विभाजन की हो या 2002 के गोधरा काण्ड की, मर्दों की मर्यादा औरतों के शरीर से कभी ऊपर ही नहीं उठ पायी। आज नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ़ उठती आवाज़ों को जिस तरह हिंसा के माध्यम से दबाने की कोशिश की जा रही है, यह स्थिति भी दंगों का रूप ले सकती है। 19 दिसम्बर को लखनऊ में पुलिस द्वारा की गयी हिंसा इसी बात की ओर इशारा करती है यानि ये संदेह खोखले बिलकुल नहीं हैं।
संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ़ सिर्फ़ ताकत के बलबूते पर थोपा गया कोई भी कानून बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
ऐसे समाज में जहाँ आज भी औरतों के लिए पढ़ने-लिखने के बजाए पितृसत्ता का पालन-पूजन करना ज़्यादा ज़रूरी समझा जाता हो, जहाँ उन्हें ज़मीन जायदाद के मालिकाना हक़ तो क्या आम मानवाधिकारों से भी वंचित रखा जाता हो, जहाँ ज़्यादातर घरों में औरतें कामकाज और शारीरिक भूख के समाधान के सिवा कुछ भी नहीं, वहाँ यह भारतीय राष्ट्रीय नागरिक रेजिस्टर ज़रूरी कागज़ों की एक सूची सामने रखता है। जिसकी पहली सूची में ना ही आधार कार्ड शामिल है और ना ही मतदाता पहचान पत्र। उसमें जन्म प्रमाण पत्र, बैंक खाते के कागज़, ज़मीन जायदाद के कागज़, सरकारी नौकरी के कागज़ आदि हैं। आदिवासी औरतें, गाँव देहात की औरतें, वे औरतें जो जगह-जगह मज़दूरी करती हैं और जिनका कोई ठहर-ठिकाना नहीं है, ये सभी सीएए के तहत इस देश की नागरिक नहीं है।
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ट्रांसजेंडर, क्वीयर और सीएए
आज ट्रांसजेंडर और क्वीयर समुदाय को लेकर बेशक जागरूकता आयी है, लेकिन समाज का इन समुदायों के प्रति रवैया जस का तस है। आज भी हम उन्हें तीसरे जेंडर की तरह नहीं बल्कि मौजूदा जेंडेर्स में एक खामी की तरह देखते हैं। इसी विचारधारा का शिकार ट्रान्स्जेंडर बिल 2019 भी हुआ जिसका मकसद असल में ट्रांस लोगों के अधिकार की रक्षा करना था न कि उन्हें और हीन दृष्टि से तोलना।
अक्सर इन समुदाय से जुड़े लोगों को अपनी पहचान, नाम, पढ़ाई-लिखाई सब छोड़कर एक नयी दुनिया का हिस्सा बनना पड़ता है, जिसे न केवल समाज बल्कि सरकार भी कोई वजूद नहीं देती। जिन्हें रहने को घर या दो वक़्त की रोटी भी नसीब ना होती हो वो भला कौन से कागज़ पेश कर अपनी नागरिकता साबित कर पाएंगे।
शाहीन बाग की औरतें जो बीस दिनों से भी अधिक समय से लगातार सीएए के खिलाफ़ आंदोलन में अडिग बैठी हैं, हज़ार से भी ज़्यादा महिलाएं और क्वीयर समुदाय के लोग जो 3 जनवरी के दिन मंडी हाउस से लेकर जंतर मंतर तक चले जुलूस का हिस्सा बने, ये सभी लोग इस देश के नागरिक हैं और कोई एक तरफ़ा कानून या फासीवादी नीति इनसे यह अधिकार नहीं छीन सकती। नागरिकता संशोधन कानून हाशिये पर पड़े लोगों को बद से बदतर स्थिति में लाकर खड़ा करता है। संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ़ सिर्फ़ ताकत के बलबूते पर थोपा गया कोई भी कानून बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हाँ, मैं नारीवादी हूँ और मैं नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रेजिस्टर का पुरज़ोर विरोध करती हूँ।
तस्वीर साभार : thenewsminute
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