नारीवाद पोस्ट कोलोनियल फेमिनिज़म : क्या दुनिया की सभी महिलाओं को एक होमोज़िनस समुदाय की तरह देखा जा सकता है ?

पोस्ट कोलोनियल फेमिनिज़म : क्या दुनिया की सभी महिलाओं को एक होमोज़िनस समुदाय की तरह देखा जा सकता है ?

पोस्ट कोलोनियल नारीवाद पश्चिमी नारीवादियों के अनुभव को नारीवादी सिद्धांतों का आधार बताकर अगुआई करने की आलोचना करता है। वैसे ही भारत में इस पर बात करते हुए यहां के सामाजिक ढाँचों को रेखांकित करना भी उतना ही जरूरी हो जाता है, तभी जाकर महिलाओं को एक होमोज़िनस समुदाय की तरह देखने से बचा जा सकता है।

अमरीकी नारीवादी लेखिका ऑड्रे लार्ड ने कहा है, “The master’s tool will never dismantle the master’s house”। इस का मतलब यह है कि शोषक समुदाय के औजारों से ही शोषण को नहीं ढहाया जा सकता। इस नाम से प्रकाशित अपने लेख में वह दुनिया को पोस्ट कोलोनियल फेमिनिज़म यानी उत्तर औपनिवेशिक नारीवाद के नज़रिए से देखने की बात करती हैं और वैश्विक मुख्यधारा नारीवाद यानी पश्चात नारीवाद से कई सवाल करती हैं। महिलाएं केवल अपनी लैंगिक पहचान के आधार पर एक होमोज़िनस समुदाय यानी कि सजातीय नहीं हो सकती। ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्तिगत और सामाजिक पैमाने पर महिलाओं के अस्तित्व के साथ उनकी और कई पहचान जुड़ी हैं। लार्ड लिखती हैं, “ये एक तरह का अकादमिक अभिमान है कि कोई भी नारीवादी थ्योरी बिना ग़रीब, ब्लैक, तृतीय विश्व के देशों की महिलाओं, लेस्बियन्स के साथ अपनी भिन्नताओं पर गौर न करें और उनके इस उनका मत न लें।” उनके अनुसार जिस देश में नस्लभेद, लिंगभेद, होमोफोबिया (समलैंगिकता के प्रति घृणा) इतनी हावी है वहां महिलाओं के अनुभव एक समान नहीं हो सकते। इसलिए अगर नस्लभेदी पितृसत्ता के चश्मे से ही उस पितृसत्ता के परिणामों को देखा जाए तो नारीवाद में बदलाव का दायरा काफ़ी छोटा हो जाता है।

ऑड्रे लॉर्ड आगे लिखती हैं कि जो औरतों समाज के स्वीकृत महिलाओं की परिभाषा से बाहर हैं, उनके लिए जीवित रहना कोई अकादमिक हुनर नहीं है। लॉर्ड के अनुसार से महिलाओं के बीच उनके अन्य जरूरी सामाजिक पहचनों के आधार पर जो भिन्नताएं हैं उसे स्वीकारा जाना चाहिए और नारीवादी विमर्श में जगह दी जानी चाहिए। वह मुख्यधारा नारीवाद में ब्लैक फेनिमिस्ट्स को नरजंदाज़ किए जाने और श्वेत नारीवादियों द्वारा सेवियर कॉम्प्लेक्स दिखाए जाने की आलोचना करती हैं। वह वैश्विक सिस्टरहूड की कल्पना की तरफ़ झुकाव नहीं रखती क्योंकि उनके अनुसार ये एक तरह से महिलाओं की अन्य पहचनों पर पर्दा डालने का काम करती है। “sisterhood is global” यह स्लोगन नारीवाद की दूसरी लहर से आया था, लेकिन यह आंदोलन अपने स्लोगन जितना वैश्विक और समावेशी नहीं था। 

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पोस्ट कोलोनियल नारीवाद को समझने के लिए इसकी मूल भावना को समझना होगा। यह नारीवाद 1980 के आसपास उस नारीवाद के जवाब और अलोचना में आया जो सिर्फ़ पश्चिमी संस्कृति और पुराने औपनिवेशिक कॉलोनियों की महिलाओं के अनुभवों पर आधारित था। इसका मानना है कि पश्चिमी संस्कृति के बाहर की महिलाओं का मुख्यधारा नारीवाद ने ठीक चित्रण और विश्लेषण नहीं किया है। उनका मानना है कि महिलाओं को एक सार्वभौमिक समूह मानना जिसमें उनके वर्ग, नस्ल, यौन चुनाव को उनकी पहचान में शामिल ना हो, ये सही नहीं है। पहले और दूसरे नारीवादी लहरों ने नस्ल और वर्ग के आधार पर औरतों की पहचान को अहमियत नहीं दी गई और केवल श्वेत पश्चिमी महिलाओं की समस्याओं को संबोधित करने का चुनाव किया। इसलिए नारीवाद की तीसरी लहर में पोस्ट कोलोनियल नारीवाद सामने आया। यह नारीवाद ब्लैक नारीवाद के भी काफ़ी नज़दीक है। 

अगर भारत में नारीवादी विमर्श केवल उच्च जातियों की महिलाओं के अनुभवों पर आधारित होता है तो वह विमर्श स्वयं को हर भारतीय महिला का मुखपत्र नहीं कह सकता।

चंद्रा तालपडे मोहन्ती जो इस नारीवादी सिद्धांत को गढ़ने में मुख्य भूमिका में रही हैं अपने लेख ‘Under Western Eyes’ में ज़िक्र करती हैं कि कैसे तृतीय दुनिया के देशों की महिलाओं को पश्चिमी नारीवाद ने मर्दाना नियंत्रण का शिकार और परंपरा द्वारा शोषित बताते वक़्त उनके इतिहास और पश्चिम के साथ सांस्कृतिक भिन्नताओं की जानकारी नहीं दी। मोहन्ती के अनुसार इन महिलाओं को अपनी कहानियां अपने जिये अनुभव अपनी आवाज़ में नारीवादी विमर्श के भीतर लाना चाहिए। मोहन्ती उन नारीवादियों में से हैं जो ‘double colonisation’ शब्द को मानती हैं, यानि कि महिलाओं का शोषण पितृसत्ता और औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा किया जाना। 

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अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो लैंगिक पहचान और जातीय पहचान को एक साथ देखना ज़रूरी हो जाता जो कि लंबे समय तक यहां की मुख्यधारा नारीवादी चर्चा से नदारद रहा है। पोस्ट कोलोनियल नारीवाद की मूल भावना के अनुसार महिलाओं के बीच भी जो अन्य सामाजिक पहचानें हैं वे निर्धारित करती हैं कि महिला पितृसत्ता से किस तरह से प्रभावित है और उससे निकलने के रास्ते कैसे बना पा रही है। उदाहरण के तौर पर एक ग्रामीण दलित स्त्री सामाजिक पायदान पर वहां खड़ी है जहां उसका शारीरिक शोषण श्रम और यौन आधार पर और मानसिक शोषण दोनों ही होता है। वहीं एक तथाकथित उच्च जाति की स्त्री का ‘सम्मान’ दलित स्त्री से ज्यादा है क्योंकि उसके साथ एक बड़ी जाति का नाम जुड़ा है और जातीय आधार पर हुए शोषण में वह स्त्री भी शोषक की भूमिका में रही है। इसलिए दलित बहुजन महिलाओं के हितों की बात करते हुए नारीवादी चश्मे को इन सभी परतों को देख पाना जरूरी हो जाता है। अगर भारत में नारीवादी विमर्श केवल उच्च जातियों की महिलाओं के अनुभवों पर आधारित होता है तो वह विमर्श स्वयं को हर भारतीय महिला का मुखपत्र नहीं कह सकता।

पोस्ट कोलोनियल नारीवाद पश्चिमी नारीवादियों के अनुभव को नारीवादी सिद्धांतों का आधार बताकर अगुआई करने की आलोचना करता है। वैसे ही भारत में इस पर बात करते हुए यहां के सामाजिक ढाँचों को रेखांकित करना भी उतना ही जरूरी हो जाता है, तभी जाकर महिलाओं को एक होमोज़िनस समुदाय की तरह देखने से बचा जा सकता है।

बेबी कांबले और उर्मिला पवार भारत के मुख्यधारा नारीवाद को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखती हैं यह दृष्टिकोण दलित महिलाओं पर उनके समुदाय के अंदर और बाहर दोनों तरह से होने वाले पितृसत्तामक शोषण को खारिज़ करने पर केंद्रित है। शर्मिला रेगे रेखांकित करती हैं कि दलित महिलाओं की आत्मकथा कई मायनों में बाकी आत्मकथाओं से अलग है। बेबी कामले और उर्मिला पवार की किताबें ऐसी ही आत्मकथा है। आंबेडकरवादी आंदोलनों में पोस्ट कोलोनियल नारीवाद का वह हिस्सा देखने मिलता है जो महिलाओं के बीच बंटे प्रिविलेज़ और संघर्षों को कुबूल करता है। उर्मिला पवार ने मीनाक्षी मून के साथ दलित महिलाओं के संघरोँ का दस्तावेज़ीकरण किया है जिस में नारीवादी नज़रिए से दलित इतिहास देखने मिलता है। पोस्ट कोलोनियल नारीवाद को स्वयं को लेकर और तृतीय विश्व के देशों में रहने वाली अलग-अलग सामाजिक पहचान की महिलाओं को लेकर सजग होना जरूरी है। इसलिए वर्ग, नस्ल, यौन चुनाव के आधार पर बात करते हुए भारत के संदर्भ में जाति अहम भूमिका निभाती है।

शर्मिला हेगे लिखती हैं कि बाबा साहब आंबेडकर के विश्लेषण से हम पाते हैं कि भारत में जाति के भीरत शादी की परंपरा औरतों की यौनिकता को नियंत्रित करती है। जातिगत आधार पर श्रम का बंटवारा, श्रम का यौनिक बंटवारा, यौन श्रम का बंटवारा होता है। उमा चक्रवर्ती द्वारा लिखा गया ‘conceptualising brahmanical patriarchy’ में वह कहतीं है कि हिन्दू समाज में एक चीज़ जो देखने मिलती है वो ये है कि महिलाओं की यौनिकता पर अंकुश लगाने के पीछे ‘जातिगत पवित्रता’ का कारण है। हालांकि ये साफ़ नज़र आता कि दलित बहुजन महिलाएं क्योंकि तथाकथित छोटी जाति से मानी जाती हैं इसलिए उनके स्पर्श मात्र से यही ‘पवित्रता’ नष्ट हो जाएंगी। भवंरी देवी मामले में राजस्थान कोर्ट ने अपने फैसले में ऐसा कहा भी था। कहा गया था कि बड़ी जाति के पुरूष छोटी जाति की महिला का बलात्कार इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि इससे उनकी ‘पवित्रता’ भंग हो जाएगी। कोर्ट की यह बात समाज का वह आईना है जो महिलाओं का शोषण लैंगिक और जातिगत ढांचे के आधार पर करता है। पोस्ट कोलोनियल नारीवाद पश्चिमी नारीवादियों के अनुभव को नारीवादी सिद्धांतों का आधार बताकर अगुआई करने की आलोचना करता है। वैसे ही भारत में इस पर बात करते हुए यहां के सामाजिक ढाँचों को रेखांकित करना भी उतना ही जरूरी हो जाता है, तभी जाकर महिलाओं को एक होमोज़िनस समुदाय की तरह देखने से बचा जा सकता है।

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तस्वीर साभार : femmagazine.com

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