वैश्विक जन-आंदोलनों के इतिहास में प्राइड मंथ एक विशेष महत्व रखता है। ग्रीनविच के स्टोनवॉल में पुलिस द्वारा क्वीयर समुदाय के ऊपर की गई हिंसा के विरुद्ध एलजीबीटी+ समुदाय ने संघर्ष किया। सबने अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान की कीमत को समझा और इस तरह प्राइड मंथ का चलन शुरू हुआ। एक क्वीयर व्यक्ति और अवध क्वीयर प्राइड कमिटी जो कि लखनऊ में प्राइड मंथ का आयोजन करवाती है, के सदस्य होने के कारण अपने निजी अनुभव के साथ भी हम ये कह सकते हैं कि प्राइड सिर्फ एक आनंद समारोह ही नहीं होता। उस सतरंगी झंडे के रंगों में हमारी संवेदनाएं, हमारा दर्द, हमारे सपने, हमारी उम्मीदें लहराती हैं। बजते हुए ढोल की आवाज़ में हम भुला देना चाहते सालभर के ताने जो गूंजते हैं हमारे अंदर। हम घरों से निकलकर आते हैं ताकि हमारी उड़ान देख कोई घायल पक्षी भी कोशिश करेगा हमारी तरह एक ऊंची उड़ान भरने की।
हालांकि, यह सवाल बरकरार है कि भारत में क्वीयर समुदाय के लिए हालात कितने बदले हैं? सरकारी योजनाओं और नीति निर्माताओं के ध्यान से हमेशा परे कैसे रहा है एलजीबीटी+ समुदाय। साथ ही कौन सी मुश्किलों का सामना करता आया है भारत का क्वीयर समूह? पिछले दो सालों से लॉकडाउन और कोरोना वायरस से पूरा देश जूझ रहा है। ऐसे स्थिति में स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली, गिरती जीडीपी, बेरोज़गारी ने हर आम आदमी को परेशान किया। क्वीयर समूह के लोग भी इसी तरह की सभी परेशानियों का सामना कर रहे हैं पर एक विषमलैंगिक पितृसत्तात्मक समाज में हमारे लिए चुनौतियां और भी हैं।
घरेलू हिंसा और मानसिक स्वास्थ्य
अमूमन लखनऊ जैसे छोटे शहरों में क्वीयर समूह के लोग कुछ खास जगहों को अपने मिलने-जुलने के लिए चिन्हित करके रखते हैं। शहर के बाहरी इलाकों के पार्क , रिवर फ्रंट आदि। ऐसी जगह जो आम दुनिया से थोड़ी अलग, थोड़ी सुनसान हो। जहां उनके चलने के तरीके को देखकर कोई उन्हें ताना नहीं देगा। जहां वे अपने जैसे, अपने लोगो से अपनी तरह से बात कर पाते हैं। लॉकडाउन के चलते क्वीयर समुदाय घरों में रहने को मजबूर हो गया। लैंगिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ना होने से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। कितने ऐसे क्वीयर युवा थे जो इस लॉकडाउन के दौरान फ़ोन कॉल पर रोते थे, यहां तक कि सिर्फ बात करने के लिए विनती करते थे। लैंगिक अभिव्यक्ति को चाहकर भी दबाया नहीं जा सकता और इसमें जब आप पूरे समय घर पर हैं तो किसी ना किसी की नज़र पड़ती है जिसके लिए ताने सुनना आम सी बात है और कभी-कभी तो बात हिंसा तक पहुंच जाती है।
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प्राइड सिर्फ एक आनंद समारोह ही नहीं होता। उस सतरंगी झंडे के रंगों में हमारी संवेदनाएं, हमारा दर्द, हमारे सपने, हमारी उम्मीदें लहराती हैं। बजते हुए ढोल की आवाज़ में हम भुला देना चाहते सालभर के ताने जो गूंजते हैं हमारे अंदर।
क्वीयर समुदाय के लिए शेल्टर होम यानि ‘सेफ स्पेस’ की आवश्यकता है पर ये मुद्दे कभी सत्ताधारियों के संज्ञान में भी नहीं आते ना ही सरकार इसमें रुचि लेती है। लॉकडाउन के इस दौर में जल्द शादियों की भी खबरें सामने आई। कई नारीवादी और अन्य मानवाधिकार पर काम करने वाले संगठनों ने इस मुद्दे को उठाया। ऐसे में क्वीयर समुदाय भी इससे अछूता नहीं रहा और समुदाय के परिपेक्ष में एक यह भी कारण था कि तालाबंदी के कारण कई लोगों की लैंगिकता के विषय में उनके घरवालों को पता चल गया और शादी को तो विषमलैंगिक परिवार हमेशा से समलैंगिकता सुधारने की चिकित्सा पद्धति के रूप में इस्तेमाल करते आए हैं। इसी वजह से कई लोगों पर शादी का दबाव बनाया गया। विशेष तौर से क्वीयर महिलाओं पर क्योंकि महिला होने के कारण वे कभी स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं ले पाती न ही उनके निर्णय का सम्मान किया जाता है।
क्वीयर मानसिक स्वास्थ्य
ऐसी स्थिति में जब आपको 24 घंटे रहना हो तो इसका असर आपके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। ऐसी स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले मनोचिकित्सक, काउंसलर, आदि तक पहुंच का होना आवश्यक है लेकिन हमारे निजी अनुभव में ऐसा पाया गया है की न तो क्वीयर समुदाय मनोचिकित्सकों के साथ आसानी से सहज हो पाते हैं, ना ही उनके लिए सेवाएं उपलब्ध हैं। इसकी एक प्रमुख वजह ये भी है कि आज भी एलजीबीटी+ फ्रेंडली मनोचिकत्सकों का अभाव हमें देखने को मिलता है। मैं अगर खुद अपनी निजी बात भी करूं तो मेरा भी अनुभव बहुत खराब रहा है या तो ऐसे डॉक्टर हैं जो होमोफोबिक हैं या जिनको क्वीयर समुदाय के विषय में जानकारी नहीं, न ही वे संवेदनशील हैं। लॉकडाउन के ही दौरान सरकार द्वारा लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के ऊपर काफी चर्चा की गई और कुछ विशेष कदम भी उठाए गए लेकिन इनमें से किसी में भी क्वीयर समुदाय के मुद्दों को नहीं शामिल किया गया। इसलिए ये ज़रूरी है कि विशेष जेंडर सेंसटाइजेशन ट्रेनिंग के द्वारा क्वीयर फ्रेंडली डॉक्टरों और मनोचिकित्सकों को तैयार किया जाए। साथ ही सरकार द्वारा समुदाय को यह सुविधा सस्ते या मुफ्त में उपलब्ध करवाई जाए।
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सामाजिक सुरक्षा
आज की युवा पीढ़ी में डेटिंग ऐप के इस्तेमाल का चलन पिछले कुछ दशकों में काफी प्रचलित हुआ है लेकिन क्वीयर डेटिंग ऐप पर फ्रॉड और उससे होने वाले अपराध की खबरें छिपी नहीं हैं। हमारे यहां भी कई ऐसे केस आए। अमूमन ऐसे केस में पीड़ित खुद ही शिकायत दर्ज नहीं करवाता और ऊपर से अगर आप क्वीयर व्यक्ति है तो आपको और भी डर लगता है। सबसे बड़ी मुश्किल जो इसमें क्वीयर समुदाय को होती है, वह यह है कि पुलिस क्वीयर समुदाय के साथ संवेदनशील नहीं होती। मैं खुद पिछले साल जब एक ऐसी घटना के लिए एफआईआर करवाने पुलिस के पास पीड़ित को लेकर गया तो चौकी के इंचार्ज को परिचय देते ही वह अपने हवलदार से बोले, “लो अब सुप्रीम कोर्ट के चक्कर में इन जैसों का भी केस देखना पड़ेगा।” इस प्रकार एक केस में पुलिस का फोबिया देखते हुए हमें पीड़ित की लैंगिक पहचान को छिपाते हुए शिकायत दर्ज करवाया।
कैसे बनाएं एक समावेशी समाज
क्वीयर समुदाय की ये परेशानियां आज भी इतनी ज्यादा इसलिए हैं क्योंकि इन पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। वक्त रहते जेंडर-सेंसिटिव और समावेशी यौन शिक्षा अगर स्कूलों में पढ़ाई जाती तो समाज में काफी हद तक होमोफोबिया को रोका जा सकता था। सरकारी नेतृत्व और बहुसंख्यक समाज द्वारा क्वीयर मुद्दों पर रुचि ना लेने के कारण आज भी समुदाय अधिकारों से वंचित है। पुलिस, चिकित्सा आदि जन सेवा सरकारी संस्थाओं में भी जेंडर सेंसटाइजेशन प्रोग्राम चलाकर उन्हें भी क्वीयर मुद्दों पर जानकारी दी जानी चाहिए। कई क्वीयर लोग हमें फोन कर अनुरोध करते हैं कि क्या आप मेरे माता-पिता या बड़े भाई को समझा देंगे क्योंकि वे बहुत परेशान कर रहे हैं। इस बात को समझकर हमने यह महसूस किया कि ज़रूरत है कि सरकारी परिवार-नियोजन कार्यक्रमों में इन मुद्दों पर बात हो। साथ ही सरकार द्वारा क्वीयर समुदाय के लोगों के लिए हेल्पलाइन सुविधा उपलब्ध करवाई जाए। जो न सिर्फ शिकायत पर कार्रवाई करे बल्कि बाद में पीड़ित के संपर्क में रहकर हालात का निरीक्षण भी करे। घरेलू हिंसा कानून में क्वीयर समुदाय को शामिल किया जाए और उनके लिए शेल्टर होम और सेफ स्पेस बनाए जाए। इस लॉकडाउन ने घुटन में जीने का एहसास ज़रूर करवाया होगा, आवश्यकता है कि आप समझे कि आपके सामाजिक ढांचे ने हजारों सालों से एक बहुत बड़ी आबादी को ऐसे ही घुटन भरा जीवन जीने के लिए मजबूर किया है।
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तस्वीर : रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
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