विश्वविद्यालय जैसे तथाकथित प्रगतिशील स्पेस क्या जातिवादी और सामंतवादी मानसिकता से उबर पाए हैं? यह सवाल बार-बार हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है। बीते महीने भारत के अलग-अलग प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में ऐसी घटनाएं हुई हैं जो इस सवाल को दोहराने पर बार-बार मजबूर करती हैं। चाहे वह आईआईटी खड़गपुर में बहुजन विद्यार्थियों के लिए प्रोफेसर सीमा सिंह द्वारा क्लासरूम में जातिसूचक अपशब्दों का इस्तेमाल करने का मामला रहा हो या बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सोशल साइंस विभाग के डीन कौशल मिश्रा द्वारा मनुस्मृति का गुणगान करने और अपने सोशल मीडिया पर आरक्षण को अयोग्यता बताकर बाबा साहब के संविधान की खिल्ली और सामाजिक न्याय की प्रक्रिया का मख़ौल बनाने की बात रही हो।
हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज में एक और ऐसी घटना हुई है जो विश्वविद्यालय के प्रगतिशील होने के बारे में हो रहे संवाद और विमर्श को केवल कागज़ी और सतही साबित कर रही है। बीते सोमवार, 16 अगस्त को हुए कॉलेज की एक विभागीय मीटिंग में लक्ष्मीबाई कॉलेज की स्टाफ़ असोसिएशन की अध्यक्ष और शिक्षिका डॉक्टर नीलम पर हिंदी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉक्टर रंजीत कौर ने हाथ उठाया। दरअसल, रजिस्टर में जिन-जिन मुद्दों पर चर्चा हुई थी उसे दर्ज़ कर मौजूद सभी लोगों से उस पर हस्ताक्षर लिया जा रहा था। डॉक्टर नीलम के अनुसार मीटिंग में उन्हें भी मिनट्स पर हस्ताक्षर करने को कहा गया, जबकि वह ऐसा करने से पहले थोड़ा समय लेकर उसे पढ़ना चाहती थीं। डॉक्टर रंजीत कौर यह काम जल्द करना चाहती थी और डॉक्टर नीलम बिना मिनट्स पढ़े उस पर साइन करने के पक्ष में नहीं थीं। परिणामस्वरूप उन्होंने गुस्से में डॉक्टर नीलम को सभी स्टाफ़ के सामने एक थप्पड़ मार दिया।
एक नज़र में यह घटना जैसी दिखती है, यानि विभाग के अंदर का मामला जो एक व्यक्ति के क्षणिक गुस्से और जल्दबाज़ी के कारण एक अप्रिय घटना में तब्दील हो गई, वैसी है नहीं। मामला उससे बड़ा है, मामला जातीय दंभ से उपजे साहस का है, वह साहस जिसने एक औपचारिक स्पेस में, विश्वविद्यालय के स्पेस में एक सवर्ण व्यक्ति को एक दलित व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार करने का असंवैधानिक साहस दे दिया। वह अपने जातीय दंभ और तानाशाह व्यवहार की मंत्रमुग्धता में स्टाफ़ असोसिएशन की अध्यक्ष के पद का सम्मान तक नहीं कर पाई।
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विश्वविद्यालय एक ऐसा स्पेस होता है जहां समाज की सारी दिक़्क़तों पर चर्चा, बहस, सुधार पर बात होती है और उसे व्यवहार में लाने की कोशिश होती है। देश-विदेश के अलग-अलग हिस्सों से आए विद्यार्थियों के लिए सीखने और समझने की जगह होती है। प्रोफ़ेसर्स से उम्मीद की जाती है कि वे विद्यार्थियों को मानसिक रूप से तार्किक बनने में मदद करें। उनके अंदर समाज की रूढ़ियों को लेकर एक सवाल करने, उसका जवाब अपने अनुभवों के आधार पर ढूंढने की जिज्ञासा और उसे जीवन में उतारने की समझ का स्पेस दें। विश्वविद्यालय में विषय की पढ़ाई-लिखाई के साथ यह व्यवहार के स्तर पर खुद को क्रॉस चेक करने के मौक़े होते हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया से बातचीत में डॉक्टर नीलम कहती हैं, “अगर इसमें आप दलित पहचान की बात ना भी करें तो थप्पड़ मारना ही कितनी ग़लत बात है। एक शिक्षिका के तौर पर, पढ़ाई-लिखाई के स्पेस में ऐसा रवैया निंदनीय है। कल को कोई स्टूडेंट अपना असाइनमेंट देरी से करे, क्लासरूम में आपसे असमहत होकर सवाल कर दे, तो आप एक शिक्षिका के रूप से उसे कैसे लेंगी? विश्वविद्यालय हमेशा हिंसा की घटना का विरोधी रहा है, यह उसका मूल स्वरूप है। लेकिन एक प्रोफेसर होकर अगर आप दूसरे प्रोफेसर के साथ ऐसा व्यवहार करती हैं तो विद्यार्थियों को लेकर आपका रवैया कितना तानाशाही भरा होगा या हो सकता है।”
एक नज़र में यह घटना जैसी दिखती है, यानि विभाग के अंदर का मामला जो एक व्यक्ति के क्षणिक गुस्से और जल्दबाज़ी के कारण एक अप्रिय घटना में तब्दील हो गई, वैसी है नहीं। मामला उससे बड़ा है, मामला जातीय दंभ से उपजे साहस का है, वह साहस जिसने एक औपचारिक स्पेस में, विश्वविद्यालय के स्पेस में एक सवर्ण व्यक्ति को एक दलित व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार करने का असंवैधानिक साहस दे दिया।
16 तारीख़ की उस मीटिंग में 13 अन्य प्रोफ़ेसर्स मौजूद थे। सभी ने यह घटना देखी है। डॉक्टर नीलम के अनुसार कुछ लोग मीटिंग के बाद कमरे से बाहर आते वक़्त कह रहे थे कि डॉक्टर रंजीत कौर का यह व्यवहार ग़लत था। इस घटना के तुरंत बाद डॉक्टर नीलम ने कॉलेज प्रिंसिपल से लंबी बातचीत की। पुलिस के पास शिकायत दर्ज़ करने गईं लेकिन कहीं से उन्हें उचित प्रतिक्रिया नहीं मिली बल्कि उनकी शिकायत करने के बाद रंजीत कौर ने एक दिन बाद, 17 तारीख़ को उनके ही ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज़ करवाई कि उन्होंने मीटिंग में रस्जिस्टर फाड़ दिया और ‘गुत्थम गुत्थी’ की है। डॉक्टर नीलम कहती हैं, “अगर मैंने रजिस्टर फाड़ दिया होता तो डॉक्टर रंजीत उस रजिस्टर से जो मिनट्स कोट कर के लिख रही हैं वह कैसे लिख पा रही और रजिस्टर उनके पास है, उसे फाड़ना न फाड़ना मेरे हाथ में कैसे था, वह चाहेंगी तो बाद में उसे फाड़कर इल्ज़ाम लगा सकती हैं। मीटिंग में मौजूद अन्य लोगों से पूछा जाना चाहिए कि मैंने क्या ऐसा किया था। 18 या 19 तारीख़ के आसपास उल्टा मुझे प्रिंसिपल की तरफ़ से मेल आया कि मैंने रजिस्टर फाड़ा है और मुझसे 24 घंटे के अंदर जवाब मांगा गया।”
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कार्रवाई में देरी
सात दिनों बाद भी डॉक्टर नीलम द्वारा डॉक्टर रंजीत के ख़िलाफ़ की गई शिकायत पर न कोई एफआईआऱ दर्ज़ हुई है न ही उसकी कोई कॉपी उन्हें भेजी गई है, जबकि यह मामला एससी-एसटी एक्ट के तहत आता है। पिछले दो दिनों से पुलिस अन्य 13 लोगों से पूछताछ कर रही है लेकिन उसके बारे में कोई ख़बर या अपडेट डॉक्टर नीलम को नहीं दी जा रही है। बातचीत में उन्होंने यह भी बताया है कि प्रिंसिपल ने इस मामले को लेकर गवर्निंग बॉडी के साथ एक मीटिंग रखी थी, ऐसा उन्हें बताया गया है। लेकिन इस मीटिंग से क्या निष्कर्ष निकाला गया, कमेटी बैठी या नहीं, या अन्य कोई भी सूचना डॉक्टर नीलम को न कॉलेज प्रशासन की तरफ़ से न ही पुलिस की तरफ़ से दी जा रही है। वह कहती हैं, “मुझे यह भी नहीं मालूम कि मैंने पुलिस से जो शिकायत दर्ज़ की है वह उन्होंने किस एक्ट के तहत दर्ज़ किया है।”
फेमिनिज़म इन इंडिया से बातचीत में डॉक्टर नीलम कहती हैं, “अगर इसमें आप दलित पहचान की बात ना भी करें तो थप्पड़ मारना ही कितनी ग़लत बात है। एक शिक्षिका के तौर पर, पढ़ाई-लिखाई के स्पेस में ऐसा रवैया निंदनीय है।
इसके अलावा डॉक्टर कौर ने इसी बीच दस दिन की छुट्टी मांगी जिसे कॉलेज प्रशासन ने अप्रूव कर दिया है, जबकि ऐसे किसी भी मामले में आरोपित व्यक्ति, जिन पर किसी भी स्तर पर जांच हो रही हो, उन्हें छुट्टी दिया जाना औपचारिक रूप से भी सही नहीं है। साफ़ नज़र आता है कि मामले को कॉलेज की प्रतिष्ठा या विभाग की प्रतिष्ठा के नाम पर दबाने की या उसपर तुरंत कार्रवाई के बजाय उसे खींचते रहने और सर्वाइवर का समय बर्बाद कर के उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से थकाने की शोषणकारी कोशिश हो रही है। इसके अलावा कोई कारण नज़र नहीं आता कि क्यों प्रिंसिपल, कॉलेज प्रशासन और पुलिस इतना ढीला रवैया अपना रही है।
डॉक्टर नीलम कहती हैं, “जिन टीचर्स ने ख़ुद डॉक्टर रंजीत कौर के मुंह से सुना है उन्हें खुद यह कबूलते हुए कि हां मैंने थप्पड़ मारा है, पुलिस या जो कमिटी इसे देख रही है उनके द्वारा ये बयान दर्ज़ किए जाएं।” दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के ऑफ़िस में हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस में डॉक्टर नीलम ने बताया कि उन्हें कुछ लोगों ने ये भी कहा कि वे इस मामले को बहुत ज़्यादा तूल दे रही हैं।
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विश्वविद्यालय या समाज का कोई भी स्पेस बहुजन तबक़े को शिक्षा और शिक्षित होने के अधिकार के क़ाबिल नहीं मानता था है। यह बात बार-बार सवर्णवादी, सामंतवादी सोच और व्यवहार में दिख जाती है। अगर यह तबक़ा उस स्पेस में पहुंच भी पाता है तो उन्हें प्रशासन और मुख्यधारा अपनी शर्तों पर, प्रगतिशीलता के नाम पर और प्रतिनिधित्व के नाम पर स्वीकार भी लें तो उन्हें निर्णायक भूमिका में नहीं देखना चाहते हैं। इस थप्पड़ पर कार्रवाई होना शिक्षण संस्थानों में हिंसा की घटनाओं को चुनौती देने के साथ ही साथ उस सवर्ण मानसिकता को भी चुनौती देना है जिन्हें लगता है कि जातिसूचक गालियां आम भाषा में ठीक है। आपकी जातिगत पहचान आपको यह सामाजिक स्थान दे सकती है कि आप अपने सहकर्मियों के साथ जो उस पहचान के हो जिन्हें समाज के तथाकथित ढांचे में बेहतर जीवन के मौक़ों से पीढ़ीगत तरीक़े से दूर रखा गया, उनसे बेहतर या श्रेष्ठ हैं। भले ही आपके सहकर्मी के पास वे सारी शैक्षणिक योग्यताएं और समझ हो उस उस स्पेस में मौजूद किसी के पास भी होनी चाहिए। जैसे कि यहां रंजीत कौर स्टाफ़ असोसिएशन के पद की गरिमा तक को भूल जाती हैं। डॉक्टर नीलम बताती हैं, “जातिसूचक शब्द इधर-उधर सुनने में आते ही रहते थे, मैं नज़रंदाज़ करती थी कि चलो जब तक हद पार न हो।”
सोचिए कि डॉक्टर नीलम को यह बात नज़रंदाज़ क्यों करनी पड़ी। जातिगत भेदभाव को सहने की कोई हद निर्धारित क्यों करनी पड़ी, क्योंकि ये तथाकथित प्रगतिशील विश्वविद्यालय जातिगत भेदभाव से उतने ही लबरेज़ हैं जितना भारत का समाज। वे भी जातिगत भेदभाव का सामान्यीकरण कर चुके हैं और उस से निकलना नहीं चाहते हैं। जातिगत ढांचे के पायदान पर नीचे रख गए लोगों के लिए यह उनका निजी अनुभव और रोज़मर्रा का अनुभव बन जाता है। इसलिए किसी जगह रहने, काम करने के दौरान अपनी मानसिक शांति बचाए रखने और अन्य औपचारिक कारणों को लेकर कई बार वे न चाहते हुए भी कुछ बातों को नज़रंदाज़ कर के चलते हैं। उन्हें ऐसा करना पड़ता है। यह बात दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे स्पेस के लिए रोज़ के स्तर पर शर्मसार करने लायक़ बात होनी चाहिए।
डॉक्टर नीलम से मैंने जानना चाहा कि क्या उन्हें सामूहिक निराशा हुई है कि ऐसे वक़्त पर दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक-शिक्षिकाओं का वैसा समर्थन सार्वजिनक रूप से हासिल नहीं हो रहा है जैसा होना चाहिए था। दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक की पूर्व छात्रा होने के नाते मैं यह जानना चाह रही थी कि क्या मेरे प्रोफ़ेसर्स जो केंद्रीय सरकार की निंदा जब होनी चाहिए, वैसा करने में सोशल मीडिया पर आवाज़ बुलंद करते हैं, दुनिया-जहान के तमाम मानवाधिकार मुद्दों पर लिखते-बोलते हैं, अपने ही विश्वविद्यालय में एक सहकर्मी के साथ हुई हिंसा पर सार्वजनिक राय रखने में क्यों झिझक रहे हैं, प्रोफ़ेसर्स की कम्युनिटी भावना के तहत वह इस हिंसा की निंदा क्यों नहीं कर रहे हैं। “कुछ लोग ऐड हॉक पर पढ़ाते हैं, उन्हें कॉलेज प्रशासन कभी भी निकाल बाहर कर सकता है, इसलिए वे ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते। हालांकि उनके अलावा कुछ लोग बोल सकते थे, हैं, खुलकर समर्थन दे सकते थे या अपनी राय रख रखते थे वे भी ऐसा नहीं कर रहे हैं। उनसे निराशा तो है। एक बात और है कि जाति की बात आने पर, एक दलित लड़की के साथ अगर ऐसा हो रहा है तो लोग बोलने में झिझकते हैं, सोचते हैं।” डॉक्टर नीलम ने यह भी कहा कि ऐसी घटनाएं आगे न हों या उन पर तुरंत संज्ञान लिया जा सके ये सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में एक बॉडी होनी चाहिए।
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तस्वीर साभार: Careers 360