संस्कृतिसिनेमा साल 2021 की वे फिल्में जहां महिलाओं ने निभाए सशक्त किरदार

साल 2021 की वे फिल्में जहां महिलाओं ने निभाए सशक्त किरदार

समाज का दर्पण कहे जाने वाले सिनेमा में महिलाओं का प्रतिबिम्ब बहुत कम ही नज़र आता है। ज्यादातर भारतीय फिल्मों में महिलाओं को सिर्फ सजावट की वस्तु के रूप में ही रखा जाता है। नायक की मां, बहन, प्रेमिका और पत्नी ही महिला किरदारों की पहचान होती है। अपवाद के रूप में पहले भी कुछ फिल्में महिलाओं को केंद्र में रखकर बनाई जाती थीं और आज भी बनाई जा रही हैं। आज हम इस लेख में साल 2021 में बनी ऐसी ही टॉप पांच फिल्मों की बात करेंगे, जिसमें महिला कलाकारों ने एक सशक्त भूमिका निभाई।


1. द ग्रेट इंडियन किचन

क्या किचन सिर्फ महिलाओं के लिए है?
तस्वीर साभार: The Scroll

यह एक कम बजट में बनी मलयालम फिल्म है। अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही इस फिल्म के राइटर-डायरेक्टर हैं जियो बेबी। फिल्म की कहानी देश के अधिकतर घरों के किचन की कहानी है। द ग्रेट इंडियन किचन ने बिना हंगामा किए भारतीय परिवारों में मौजूद पितृसत्ता को उघारकर रख दिया है। फिल्म में एक शादीशुदा जोड़ा और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी की सामान्य कहानी दिखाई गई है। लेकिन देखते ही देखते फिल्म घरों में मौजूद लैंगिक भेदभाव के मुश्किल सवाल उठाने लगती है।किचन में झोंक दी गई पत्नी के अपने सपने हैं। वह डांस टीचर बनना चाहती है लेकिन ससुर को बहु का काम करना पसंद नहीं है। अपना उदाहरण देते हुए ससुर बड़े गर्व से बताता है कि उसकी पत्नी ने एमए करने के बाद भी घर की ज़िम्मेदारी उठाना बेहतर समझा और इसलिए आज बच्चे अच्छी जगह पर हैं। पितृसत्ता के नशे में चूर इस ससुर के मुताबिक महिलाओं का घर पर रहना ही शुभ होता है।

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2. जय भीम

जय भीम
तस्वीर साभार: ट्विटर

जय भीम साल 1993 में तमिलनाडु में घटी एक सच्ची घटना पर आधारित है। टीजे नानवेल द्वारा निर्देशित ‘जय भीम’ पुलिस के आतंक और जातिगत भेदभाव से लड़ती एक गर्भवती आदिवासी महिला (सेंगिनी) की कहानी है। इस लड़ाई में सेंगिनी का साथ देते हैं एक वामपंथी-आम्बेडकरवादी वकील चंद्रू। फिल्म में कुछ खामियां भी ज़रूर हैं। जैसे, फिल्म शुरू होने के 45 मिनट बाद शायद निर्देशक भूल जाते हैं कि कहानी सेंगिनी की है, वकील चंद्रू की नहीं। शुरुआती 45 मिनट में बहुत ही संवेदशील तरीके से चल रही जय भीम की कहानी अचानक लाउड हो जाती है। स्क्रीन पर चंद्रू की एंट्री के बाद फिल्म लगभग हीरो सेंट्रीक बन जाती है। बहुत अच्छा होता अगर पूरी फिल्म के केंद्र में सेंगिनी होतीं और सहायक चेंद्रू होते।

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3. रश्मि रॉकेट

रश्मि रॉकेट
तस्वीर साभार: FilmiBeat

आकर्ष खुराना निर्देशित रश्मि रॉकेट स्पोर्ट्स ड्रामा कैटेगरी की फिल्म है। इसमें महिला खिलाड़ियों को लेकर समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों और साजिशों को बयान करने की कोशिश की गई है। साथ ही खेल के क्षेत्र में मौजूद जेंडर टेस्ट जैसे नाजुक मुद्दे को भी उठाया गया है। जेंडर टेस्ट वह मुद्दा है जिस पर अब तक किसी भी हिन्दी फिल्म में बात नहीं हुई है। ना ही इस मुद्दे पर भारतीय खेल प्रशंसकों ने कभी अपने खिलाड़ियों का साथ दिया है। ऐसे में रश्मि रॉकेट एक बहुत ही जरूरी फिल्म बन जाती है। फिल्म अपने रुख को लेकर स्पष्ट है, यह बिना किसी डर फिल्म अपने मुद्दें के साथ खड़ी नजर आती है। जेंडर टेस्ट गलत है तो गलत है। यह कहने में फिल्म ज़रा भी नहीं हिचकती। फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। जैसे, फिल्म रश्मि की वेदना को दिखाने में असफल साबित होती है। फिल्म ना तो ढंग से रश्मि की बेबसी को दिखा पाती है, ना ही समाज की क्रूरता को। स्क्रीन पर चल तो सब कुछ रहा होता है लेकिन उसमें वह अपील नहीं जो रश्मि के ट्रामा को दर्शकों तक पहुंचा सके।

और पढ़ें: कमियों के बीच ज़रूरी मुद्दा उठाती फिल्म ‘रश्मि रॉकेट’

4. छोरी

तस्वीर साभार: Audition form

छोरी मराठी फिल्म ‘लप्पाछपी’ का हिन्दी रीमेक है। विशाल फुरिया के निर्देशन में बनी यह फिल्म अमेजन प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही है। कहानी बच्चों के एनजीओ से जुड़ी एक गर्भवती औरत की है। आठ महीने की गर्भवती इस महिला के पति पर काफी लोन होता है। ऐसे में खुद को छिपाने के लिए पति अपनी पत्नी को लेकर अपने ड्राइवर के गांव आ जाता है। यहां शुरू होती है अजीबो-गरीब घटनाएं। दरअसल बॉलीवुड पिछले कुछ समय से महिलाओं से जुड़ी कुप्रथाओं पर वार करने की नरम कोशिश कर रहा है। ‘छोरी’ उसी कोशिश की अगली कड़ी है। कन्या भ्रूण हत्या को लेकर सवाल उठाती यह फिल्म एक महत्वपूर्ण संदेश देने की कोशिश करती है। साथ ही पितृसत्तामक मानसिकता पर चोट भी करती है। फिल्म उन लोगों को आईना दिखाने का काम करती है जो आज भी बेटियों को बोझ समझते हैं।

5- पगलैट

"जब लड़की लोगों को अकल आती है न तो सब उन्हें पगलैट ही कहते हैं"
तस्वीर साभार: सान्या मल्होत्रा के इंस्टाग्राम से

नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई यह फिल्म उमेश बीस्ट द्वारा निर्देशित है। इस फिल्म में एक मिडिल क्लास परिवार है। संध्या (सान्या मल्होत्रा) हैं, उसकी शादी को केवल पांच महीने ही बीते हैं और उसके पति आस्तिक की मौत हो जाती है। पूरे घर में दुख का माहौल है। लेकिन उसे अपने पति आस्तिक की मौत पर रोना ही नहीं आ रहा है। अपनी बिल्ली के मरने पर तीन दिन तक खाना न खाने वाली संध्या को पति के मौत के बाद जमकर भूख लग रही हैऔर वह चोरी-छिपे चिप्स, पेप्सी और गोलगप्पे खा भी रही है। हालांकि संध्या को पति के जाने का गम नहीं होता। उसे नॉर्मल देखकर परिवार चौंक जाता है। सभी को लगता है कि संध्या सदमे में है लेकिन संध्या बिल्कुल दुखी नहीं होती। संध्या का गुस्सा अपनी मां की तरफ भी दिखता है, जिनके लिए हमेशा बेटी की शादी ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। उसका गुस्सा परिवार के उन लोगों के लिए भी दिखता है, जो अगले कमरे में बैठे उसकी दूसरी शादी की चर्चा करते हैं। हमारे पितृसतात्मक समाज में स्त्री का पूरा जीवन पुरुष के वर्चस्व से जुड़ा है। अगर हमारे समाज में किसी स्त्री के पति का देहांत हो जाए तो उसे ‘मनहूस, कलमुँही’ समझा जाता है लेकिन संध्या को इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग क्या कहेंगे और क्या सोचेंगे। संध्या समाज और परिवार की रूढ़िवादी सोच में फिट नहीं बैठती।

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