‘पुरूष और हिंसा के बीच का रिश्ता एक ऐतिहासिक सच्चाई है। लेकिन सत्ता हमेशा पुरुषों के हाथ में नहीं थी, पुरातत्व की खोज से इस बात के सबूत मिले हैं कि शुरू में औरत ही सभ्यता का केंद्र थी।’ ‘पितृ, पुत्र और धर्मयुद्ध’ डॉक्यूमेंट्री के ये शब्द पितृसत्ता और मातृसत्ता के बदलते स्वरूप को दिखाते हैं, जहां शुरुआती संसाधन या सम्पत्ति, पालतू मवेशियों पर एकमात्र अधिकार पुरुषों के पास होने से सत्ता उनके हाथों में जाती रही। इसके साथ ही पितृसत्ता स्थापित होने के बाद से दुनिया के तमाम युद्ध पुरुषों के अहंकार और संसाधनों को हथियाने के लिए किए गए।
“सबक सिखा दिया हमने, हम नपुंसक नहीं हैं, चूड़ियां नहीं पहनी हैं हमने, हम मर्द की औलाद हैं।” धार्मिक हिंसा और लूटपाट से शुरू यह दस्तावेजी फ़िल्म यूं तो बीसवीं सदी के दौर पर रोशनी डालती है लेकिन इसकी प्रासंगिकता हर उस दौर में रहेगी जब तक कि राजनीतिक नेता और धार्मिक कट्टरपंथी इस धार्मिक हिंसा में अपनी रोटियां सेंकते रहेंगे। ‘पितृ पुत्र और धर्मयुद्ध’ आनंद पटवर्धन की पितृसत्ता पर चोट करती डॉक्यूमेंट्री है। उनकी यह डॉक्यूमेंट्री पितृसत्तात्मक समाज के क्रूर चेहरे को उघाड़ती चलती है, जिसे दो भागों में बांटा गया है, पहला भाग- TRIAL BY FIRE और दूसरा भाग- HERO PHARMACY.
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आनंद पटवर्धन ने साल 1974 में ‘क्रांति की तरंगें‘ (Waves of Revolution) डॉक्यूमेंट्री से एक प्रतिरोध या कहें सिनेमा में विमर्श की शुरुआत की। उन्होंने अपनी फिल्मों में नैतिकता, परम्परा और संस्कृति के खोल में छिपे समाज की धार्मिक, लैंगिक, जातिगत विसंगतियों के नंगेपन को बखूबी उघाड़ा है।
डॉक्यूमेंट्री के पहले हिस्से TRIAL BY FIRE (आग से परीक्षण) में दंगों की आगजनी में लूट-खसोट करते दंगाई, औरतों का बलात्कार करके अपनी मर्दानगी साबित करते रहे हैं। धर्म की आड़ लेकर हर हिंसा, हर हत्या, हर क्रूरता को सही ठहराया जाता रहा है। जैसा कि हमें इस भाग में सती प्रथा की आखिरी शिकार हुई स्त्री रूप कंवर के संदर्भ में देखने को मिलता है। सती प्रथा को जौहर प्रथा का ही परिवर्तित रूप कहा सकता है जिसमें राजाओं के युद्ध में मर जाने की खबर मिलते ही उनकी तमाम पत्नियां और राज महल की स्त्रियां दुश्मन के हाथों में आने से पहले आग के कुँए में कूद कर ख़ुद को जौहर कर लेती थीं।
सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के लिए 1829 में कानून बनने के बावजूद यह अपराध आगे भी ऐसे ही जारी रहा। राजस्थान के सीकर जिले के देवराला गाँव के एक राजपूत परिवार में 3 सितम्बर 1987 को रूप कंवर के पति माल सिंह शेखावत की किसी बीमारी से मौत हो जाती है। 4 सितम्बर 1987, को पति के साथ रूप कंवर को भी जिंदा जला दिया जाता है। इसे बड़े ही नाटकीय ढंग से दैवीय रूप देकर अफवाहें फैलाई जाती हैं। यह खेल सिर्फ यहीं तक नहीं ठहरा इसके बाद वे तथाकथित हिन्दू राजपूत सती मंदिर की मांग करते हुए नारे लगाते हुए जुलूस निकालने लगे, ‘तलवार निकली है म्यान से ,मंदिर बनेगा शान से।’ यही नारे कुछ सालों बाद अयोध्या में भी लगाए जाने लगे।
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लेकिन साल 1987 में कई महिला संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की कोशिशों के बाद सती निवारण कानून पारित किया गया, कई गिरफ्तारियां भी हुईं। हालांकि, बाद में सभी रिहा कर दिए गए। इस सब के बावजूद रूप कंवर के परिवार और समाज के लोग अपनी इस क्रूरता को दैवीय और धार्मिक कर्तव्य बताते रहे। अपने किए पर उन्हें बिल्कुल भी शर्मिंदगी या डर था ही नहीं। इसके विपरीत ये लोग उन महिला संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अश्लीलता भरे भाषण और टिप्पणी करते हैं, ‘ये वही लोग कर रहे हैं जो कि हिंदुस्तान के धर्म, रीति-रिवाज को नहीं जानते हैं और ये वे लोग हैं जिनकी महिलाओं को सुबह घूमने के लिए कोई अन्य साथी की जरूरत पड़ती है, दोपहर को लंच लेने के लिए किसी दूसरे साथी की जरूरत होती है और रात को सोने के लिए उन्हें कोई अलग-अलग हर तरफ लोग तलाशने होते हैं।’ वर्णव्यवस्था में शुद्धता और पवित्रता पर बहुत जोर दिया जाता रहा है। इस दृष्टि से देखा जाए तो बाल विवाह और पर्दा प्रथा के शुरू होने का एक कारण ये भी रहा हो ताकि खून में मिलावट न हो।
पितृसत्ता ने वंश परम्परा और पुरूष सत्ता को मजबूत करने के लिए ही शायद उन तमाम स्त्री विरोधी प्रथाओं को शुरू किया ताकि ताउम्र स्त्री मानसिक और शारिरिक गुलाम बनी रहे। “औरतों को पतिव्रता बनाए रखना और जायदाद को अपने ही हाथ में रखने का इससे अच्छा और कौन-सा तरीका हो सकता है कि पति के साथ पत्नी को भी जिंदा फूंक डाला जाए।“ ये उसी तरह था जब यूरोप में सन 1400 और 1800 में एक लाख औरतें जला दी गईं और ये सब चर्च की सहमति से किया गया, जिसे नाम दिया गया डायन दहन।
धार्मिक कट्टरपंथियों विशेषकर मनुवाद के अनुयायियों ने संविधान को कभी स्वीकार नहीं किया। उसे न मानने के पीछे एक मानसिकता थी स्त्रियों और उनकी भाषा में ‘अछूत’ कहे जानेवाले लोगों का संविधान बनाने में योगदान तो दूसरा कारण था संविधान का धर्म में मौजूद रूढ़िवादी कुरीतियों और परंपराओं पर वार करते हुए उन्हें गैरकानूनी घोषित करना। जाहिर है यह दखल उन्हें ज़रा भी पसन्द नहीं थी। जैसा कि डॉक्यूमेंट्री में एक बाबा के शब्द दर्शाते हैं, ‘आजकल हम लोगों ने ऐसे लोगों को राज्य का तंत्र दे रखा है जो कि हमारे सनातन धर्म को सत्यानाश, सबसे पहले हिन्दू कोड बिल, विवाह बिल, जनेऊ तोड़ बिल (जेपी नारायण), मंदिर प्रवेश बिल और उसके बाद वर्ण आश्रम व्यवस्था नाशक बिल हजारों बिल बनाए।’ डॉक्यूमेंट्री बताती है कि उस दौरान धार्मिक उन्मादी इन तमाम कानूनों का पालन करनेवाले हिंदुओं को ‘नपुंसक जाति’ कहकर भड़का रहे थे और उनकी भाषा में यह सब, मुसलमान आबादी से तथाकथित खतरे में आए बहुल आबादी वाले हिंदू समाज को जगाने के लिए था।
लेकिन मुस्लिम समुदाय में भी पितृसत्तात्मक मानसिकता की मौजूदगी का परिचय दे रहे थे। तीन तलाक, हलाला, पर्दे की अनिवार्यता ने मुस्लिम महिलाओं को कम शोषित नहीं किया। इन्हीं तमाम शोषणों के ख़िलाफ़ हिंदू-मुस्लिम महिलाएं और पुरुष एक साथ खड़े होकर संघर्ष करते नज़र आते हैं।
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डॉक्यूमेंट्री का दूसरा भाग ‘HERO PHARMACY’ बचपन से ही लड़कों को अक्सर सिखाया जाता है कि माचो मैन, टफ गाय यानी मर्द होना ही पुरूष होना है, थोड़ा भी संवेदनशील और भावुक होना उन्हें ‘कायर, नपुंसक और नामर्द’ की श्रेणी में डाल देगा। अंग्रेजों का भारतीय विशेषकर हिंदुओं को नामर्द और कायर कहना उनके लिए त्रासदी का दौर रहा होगा तभी तो, “उभरती भारतीय राष्ट्रीयता को अपनी मर्दानगी सिद्ध करने की धुन सवार हो गई। महात्मा गांधी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे ने घोषणा की कि उसने देश के माथे पर लगे हुए नपुंसक अहिंसा के कलंक को धो डाला है।” इस तरह उस कायरता के आरोप से चोट खाए राष्ट्रवादियों ने अपने ऐतिहासिक वीरों का मिथक बनाना शुरू कर दिया।
मर्द की परिभाषा में स्त्रियां केवल उसकी संपत्ति मात्र हैं, जैसे जायदाद हुआ करती है और बलात्कार उसका विजय का प्रतीक। यह भाग धर्म के लिए लड़ते पुरुषों और पितृसत्ता से ग्रस्त महिलाओं (साध्वी ऋतंभरा) पर आधारित है जहां अतिवादियों ने भाषा की सारी मर्यादाओं को तोड़ते हुए अश्लीलता धारण कर ली। जैसा कि यहां मुस्लिम समुदाय के लिए प्रयोग किए गए इस वाक्य को देखिए, ‘हमें अधूरा कुछ नहीं चाहिए, ये अधूरा देश भी नहीं चाहिए और अधूरा आदमी भी नहीं चाहिए, हमको तो कटा हुआ कुछ नहीं चाहिए…’
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इस प्रकार यह दस्तावेजी फ़िल्म धार्मिक हिंसा और पितृसत्तात्मक क्रूरता का दस्तावेजीकरण है जो कि दुनिया के हर धर्म में दिखाई देती है। सती प्रथा के ख़त्म होने के आज 35 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी स्त्री घरेलू हिंसा और पतिव्रत के उस दायरे से नहीं निकल पाई है, हाल ही में मैरिटल रेप पर जब स्त्रियों ने मुखर हो आवाज़ें उठाईं और उसके लिए कानून बनाने की बात हुई तो उनके विरोध में सोशल मीडिया पर एक ट्रेंड बहुत वायरल हुआ जिसमें पुरुषों ने मैरिटल रेप के विरोध में #MarriageStrike ट्रेंड किया। उनका कहना था कि अगर इस पर कानून बनाया जाता है तो इसका गलत इस्तेमाल किया जाएगा। ट्रेंड में शामिल मर्दों ने शादी न करने की धमकी भी दी।
इस डॉक्यूमेंट्री में जहां नफरत फैलाते नेता और धार्मिक कट्टरपंथी दिखाई दिए तो वहीं स्त्री मंच,एकता समिति और इंडियन प्यूपल्स ह्यूमन राइट्स ट्रिब्यूनल जैसे संगठन आम जनता को धार्मिक सद्भाव और मानवता का संदेश देते नज़र आए। जहां आज तमाम समुदायों में लैंगिक असमानता देखने को मिलती है तब हम आदिवासी समुदाय की ओर मुड़कर देखने पर मजबूर होते हैं जहां आज भी दुनिया के कई आदिवासी सभ्यताओं में औरत और पुरुषों के बीच समानता पाई जाती है। आखिर में फ़िल्म की यह पंक्ति हमें आज में जीने के लिए प्रेरित करती नज़र आती है, ‘मानव अस्तित्व के पचास हजार साल पुराने सबूत मिलते हैं और युद्ध का इतिहास सिर्फ पाँच हजार साल पुराना है। बीते हुए कल को याद करने से भी ज़्यादा जरूरी है आने वाले कल की कल्पना।’
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