ज़ाकिर हुसैन महाविद्यालय, दिल्ली की सहायक प्रोफेसर डॉ राजकुमारी का पहला उपन्यास ‘द डार्केस्ट डेस्टिनी’ समाज के ऐसे डार्केस्ट मुद्दे पर बात रखता है, जिसके बारे में आमतौर हम अपने मुंह पर ताला जड़ लेते हैं और थूक तक गटक जाते हैं। यह समाज का वह सच है जिस पर कम से कम आज के समय में तो खुलकर बात की जानी चाहिए। यह सर्वविदित है कि भारत एक पुरुष प्रधान देश है। यहां शुरू से ही पितृसत्तात्मक समाज का अधिपत्य रहा है। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हो जाने के बाद महिलाओं को भी मुख्यधारा में खड़े होने का मौका मिला। हालांकि असमानता की खाई को पाटना अभी बाकी है। लेकिन महिला और पुरुष ही केवल जेंडर की परिभाषा में नहीं आते। हमारे समाज में एक ऐसा वर्ग भी है जिस पर समाज बात करने से हिचकिचाता है। समाज उन्हें मान-सम्मान देने से अपना मुंह फेरता है, यह हैं ट्रांस समुदाय। जिन्हें आमतौर पर हमारे रूढ़िवादी समाज में ‘किन्नर’ या ‘हिजड़ा’ कहकर संबोधित किया जाता है। ‘द डार्केस्ट डेस्टिनी’ उपन्यास इसी वर्ग की दास्तान बयां करता है।
उपन्यास के बारे में
इस उपन्यास की कहानी कुछ सत्य और कुछ काल्पनिक है। इसमें पुरुषओं और महिलाओं के द्वारा ट्रांस समुदाय के साथ किए जानेवाले व्यवहार को अच्छे से समझा जा सकता है। उपन्यास के मुख्य पात्र में अमृता हैं जिन्हें अपनी लैंगिक पहचान के कारण जीवन के हर मोड़ पर तिरस्कार और अपमान झेलना पड़ता है। अमृता एक आदिवासी ट्रांस व्यक्ति हैं। उसके जन्म लेते ही उसकी मां की मौत हो जाती है जिसका कसूरवार नन्ही सी जान अमृता को ही ठहराया जाता है। यह परिवार को अपने लिए किसी काल के जैसे लगता है। इसके बाद उनके घर की नौकरानी इमरतिया, जिसने एक मांस के लोथड़े को अमृता का नाम दिया, वह उसे अपनाने और पालन पोषण करने के लिए तैयार हो जाती है। ट्रांस समुदाय को लेकर समाज में फैली नफरत और पूर्वाग्रह के कारण उसके पिता मांझी उसे घने जंगलों में फेंक आते हैं। इमरतिया इसकी सूचना पुलिस को दे देती है।
और पढ़ेंः मानोबी बंधोपाध्याय की आत्मकथा : ‘पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन’
इस उपन्यास की कहानी कुछ सत्य और कुछ काल्पनिक है। इसमें पुरुषओं और महिलाओं के द्वारा ट्रांस समुदाय के साथ किए जानेवाले व्यवहार को अच्छे से समझा जा सकता है। उपन्यास के मुख्य पात्र में अमृता हैं जिन्हें अपनी लैंगिक पहचान के कारण जीवन के हर मोड़ पर तिरस्कार और अपमान झेलना पड़ता है।
पुलिस बच्ची को ढूंढने में सफल होती है और उसके पोषण की ज़िम्मेदारी इमरतिया को देती है। अमृता जैसे-जैसे बड़ी होती है उसे जीवन के हर पहलू पर उसकी लैंगिक पहचान के कारण अपमान का सामना करना पड़ता है। कई बार शारीरिक शोषण करने की कोशिश की जाती है। मौका पाकर वह घर से भाग जाती है। डॉ आंबेडकर की प्रतिमा के नीचे जाकर बैठ जाती है और बाबा साहब से पूछती है कि उन्होंने करोड़ों दलितों, महिलाओं, पिछड़ों के लिए इतना संघर्ष किया, अधिकार दिलाए क्या ट्रांस समुदाय के लिए भी कुछ किया है? इसके कुछ समय बाद वह ट्रांस समुदाय के मठ में शामिल हो जाती है, जिसके बाद उसका जीवन पूरी तरह बदल जाता है।
पहले कुछ दिन वह चौक, चौराहों और ट्रेन में भीख मांगने का काम करती है। इसके बाद उसे समझ आता है कि वह इन सबके लिए नहीं बनी है। वह पढ़ना चाहती है। मठ में जाकर वह कहती है कि वह पढ़ना चाहती है। मठ अमृता के पढ़ने और रहने-खाने का सारा खर्च उठता है। उसका दाखिला कॉलेज में करा दिया गया। वहां अमृता को अनुराग नाम का लड़का मिला। दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। कुछ समय बाद यह दोस्ती प्यार में बदल गई। बात आखिर में शादी तक भी पहुंच गई। लेकिन जैसे ही अनुराग अपने परिवार को अमृता की लैंगिक पहचान के बारे में बताता है उसका परिवार अमृता को सिरे से नकार देता है। बाद में अनुराग विदेश चला जाता है और वापिस आकर किसी दूसरी लड़की से शादी कर लेता है।
और पढ़ेंः जानें : LGBTQIA+ से जुड़े 6 मिथ्य, जो आज भी मौजूद हैं
अमृता कदम-कदम पर अपमान के घूंट पीती है। निजी जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन में अपनी पहचान के कारण उसे तिरस्कार का सामना करना पड़ात है। कहीं उन्हें महिला शौचालय तक इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता तो कहीं उनके साथ पढ़नेवाले लड़के ही उसका शारीरिक शोषण करते हैं। कॉलेज में पहुंचने पर लड़के उन पर फब्तियां कसते हैं और भला-बुरा कहते हैं। हर पल उसे अलग होने का अहसास कराया जाता है। आगे चलकर वह सामाजिक कार्यकर्ता बन जाती है और बच्चों की शिक्षा के साथ ट्रांस समुदाय के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती है।
प्रकृति में हमें समान बनाया है। हर किसी का अपना महत्व है। लिंग, जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और रंग के आधार पर भेदभाव की इजाज़त संविधान भी नहीं देता। भारतीय संविधान के अनुसार सब बराबर हैं। डॉ आंबेडकर ने कहा था, “जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं है।” वर्तमान में ट्रांस समुदाय की प्रतिष्ठा बाबा साहेब की इन दो पंक्तियों के अनुसार है।
और पढ़ेंः ज़ोया थॉमस लोबो : भारत की पहली ट्रांस महिला फ़ोटो जर्नलिस्ट
होटल में अपमान की एक घटना
जब अमृता एक होटल में रुकती हैं तो वह महिला शौचालय इस्तेमाल करती है। कुंडी न होने की वजह से दरवाजा बंद नहीं हो पाया और कुछ महिलाएं अमृता को देख लेती हैं। महिलाएं उसके साथ बदतमीजी करने लगती हैं। वे अमृता को देखकर कहती हैं कि उसकी हिम्मत कैसे हुई इस महिला शौचालय में घुसने की। इतने में भीड़ जमा हो जाती है और अमृता पर तंज कसते हुए लोग उन्हें भला बुरा कहना शुरू कर देते हैं। अमृता हर जगह मिल रहे अपमान से तंग आ चुकी थी और पहली बार क्रोधित होकर चिल्लाते हुए कहती है, “सभ्य समाज के लोगों! तुमसे एक सवाल है। कौन सा ऐसा शौचालय है जहां लिखा हो मेल, फीमेल और ट्रांस समुदाय? बताइए मुझे? क्या हमने इस देश का नागरिक होने का अधिकार भी खो दिया है? या फिर हम यूरिन पास करना बंद कर दें? आप और आपकी सो कोल्ड सोसायटी हमें अपना नहीं पाती। हमारी प्रॉब्लम का सलूशन निकालती नहीं तो कहां जाएं हम? अब आप हमें यहां सार्वजनिक क्षेत्रों से भी निकाल फेंकना चाहते हैं? वाह! और मैडम आप बताओ क्या मैंने आपके साथ बदतमीजी की? क्या कोई गलत इशारा किया? नहीं न? फिर ये मेला जोड़ने की, बखेड़ा खड़ा करने की क्या जरूरत थी? न मेल बाथरूम यूज़ करने देंगे, ना आप जैसी सभ्य महिला फीमेल वॉशरूम। तो हम कहां जाएं? हमने नहीं कहा था तुम्हारे ईश्वर से कि हमें किन्नर बनाओ? कल को आपके घर ऐसा बच्चा पैदा हो जाए तो क्या तब भी ऐसा ही बर्ताव करोगे? अमृता भीड़ को चीर कर निकल गई और फिर मुड़कर उन्हें संबोधित करते हुए चिल्ला कर बोली “आई हेट योर हाई सोसाइटी, आई हेट योर थिंकिंग।”
‘द डाकेस्ट डेस्टिनी’ उपन्यास में अमृता के ट्रांस व्यक्ति के रूप में जीवन के अंधकार को पन्नों पर उकारा गया है। जीवन के हर पहलू पर कैसे उसकी लैंगिक पहचान के कारण अपमान, तिरस्कार और हीन भावनाओं से देखा। इस उपन्यास में ट्रांस समुदाय के प्रति लोगों की नफरती सोच को भी उजागर किया गया। समाज में कैसे किसी व्यक्ति की लैंगिक पहचान के कारण उनसे नफरत की जाती है।
और पढ़ेंः पद्मश्री मंजम्मा जोगती : एक ट्रांस कलाकार जो बनीं कई लोगों की प्रेरणा
तस्वीर साभारः amazon.com