बनारस के देईपुर गाँव में रहनेवाली पैंतीस वर्षीय पुष्पा इन दिनों बिस्तर पर हैं। नसबंदी करवाने के बाद उन्हें डॉक्टर ने तीन-चार दिन आराम करने की सलाह दी है और किसी भी तरह के भारी काम करने से मना किया है। पुष्पा के तीन छोटे बच्चे हैं। इन दिनों उनके परिवार को ढंग से खाना मिलना तक मुश्किल हो गया है। पुष्पा के पति घर के किसी भी काम में हाथ नहीं बंटाते, जिसकी वजह से घर के सारे काम से लेकर परिवार नियोजन तक की ज़िम्मेदारी पुष्पा पर ही है।
जब भी बात घर संभालने से लेकर परिवार नियोजन की आती है तो पूरा समाज महिलाओं का मुंह ताकने लगता है। यही वजह है कि पुष्पा जैसी न जाने कितनी महिलाओं को परिवार नियोजन की ज़िम्मेदारी भी अपने सिर लेनी पड़ती है। कहीं न कहीं इसी पितृसत्तात्मक सोच के चलते भारत के ज़्यादातर परिवार नियोजन से जुड़े कार्यक्रम, नीतियां, योजनाएं महिलाओं को ही ध्यान में रखकर बनाए गए। गर्भनिरोधक गोलियों, इंजेक्शन से लेकर नसबंदी तक में महिलाओं को ही आगे बढ़ाया जाता है।
शरीर तो महिलाओं का होता है पर उस पर फ़ैसला परिवार और खासकर पुरुषों का होता है। ‘शादी कब होगी, किससे होगी’ जैसे फ़ैसले पिता-भाई मिलकर लेते हैं और ‘शादी के बाद बच्चे कब होंगे, कितने होंगे और परिवार नियोजन के लिए क्या इस्तेमाल करना है’ ये सभी फ़ैसले पति के होते हैं। कहने को तो बच्चे पैदा करना, नहीं करना यह महिला का अधिकार है पर वास्तव में महिलाएं इस अधिकार से आज भी कोसों दूर हैं।
आशा, आंगनवाड़ी वर्कर्स से लेकर सभी समुदाय स्तर पर काम करनेवाली स्वास्थ्य कार्यकर्ता चूंकि खुद भी महिलाएं होती हैं, इसलिए वे परिवार नियोजन के मुद्दे पर महिलाओं से बात करने में ज़्यादा सहज होती हैं। इसमें ज़्यादा मज़बूती से काम करता है “परिवार का ख़्याल रखने से लेकर परिवार नियोजन के साधन का इस्तेमाल करने की ज़िम्मेदारी महिलाओं की होती है” वाला पितृसत्तात्मक विचार।
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अगर बात करें गाँव में परिवार नियोजन की तो इसमें महिलाओं को ही ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी दी जाती है। आशा, आंगनवाड़ी वर्कर्स से लेकर सभी समुदाय स्तर पर काम करनेवाली स्वास्थ्य कार्यकर्ता चूंकि खुद भी महिलाएं होती हैं, इसलिए वे परिवार नियोजन के मुद्दे पर महिलाओं से बात करने में ज़्यादा सहज होती हैं। इसमें ज़्यादा मज़बूती से काम करता है “परिवार का ख़्याल रखने से लेकर परिवार नियोजन के साधन का इस्तेमाल करने की ज़िम्मेदारी महिलाओं की होती है” वाला पितृसत्तात्मक विचार। इन वजहों से परिवार नियोजन की जानकारी और भागीदारी, दोंनो से ही पुरुष सीधेतौर पर पीछे छूट जाते हैं।
नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (2015-16) की रिपोर्ट बताती है कि पुरुषों में परिवार नियोजन की विधियों का इस्तेमाल भारत में बहुत कम होता है। देश के हर आठ में से तीन पुरुषों को लगता है कि परिवार नियोजन महिलाओं की ज़िम्मेदारी है और उन्हें इसके बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। इसमें क़रीब 20 फ़ीसद पुरुष मानते हैं कि जो महिलाएं गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करने का फ़ैसला ख़ुद से करती हैं, उनका चाल-चलन ठीक नहीं है या उनके कई पुरुषों के साथ संबंध होते हैं।
परिवार नियोजन को लेकर जहां एक तरह महिलाओं को केंद्र में रखा जाता है, वहीं जैसे ही महिलाएं इसमें अपनी इच्छानुसार किसी साधन का चुनाव करती हैं तो समाज उन पर सवाल खड़े करने लगता है। अगर बच्चों की संख्या ज़्यादा होती है तो इसके लिए महिलाओं को ज़िम्मेदार बताया जाता है और अगर महिला ने अपनी मर्ज़ी से परिवार नियोजन के साधन का इस्तेमाल करना शुरू किया तो उनके चरित्र पर उंगली उठाई जाने लगती है। इन सब में पुरुषों की भूमिका अपने विशेषधिकारों का इस्तेमाल करके महिलाओं की यौनिकता, उनके शरीर और अधिकारों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने तक मज़बूती से क़ायम रहती है।
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शरीर तो महिलाओं का होता है पर उस पर फ़ैसला परिवार और खासकर पुरुषों का होता है। ‘शादी कब होगी, किससे होगी’ जैसे फ़ैसले पिता-भाई मिलकर लेते हैं और ‘शादी के बाद बच्चे कब होंगे, कितने होंगे और परिवार नियोजन के लिए क्या इस्तेमाल करना है’ ये सभी फ़ैसले पति के होते हैं। कहने को तो बच्चे पैदा करना, नहीं करना यह महिला का अधिकार है पर वास्तव में महिलाएं इस अधिकार से आज भी कोसों दूर हैं।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-(2019-21) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में परिवार नियोजन के तहत 15-49 साल तक की 37.9 प्रतिशत महिलाओं ने नसबंदी करवाई। वहीं, सिर्फ 0.3 प्रतिशत पुरुषों ने नसबंदी करवाने का फैसला लिया है।
अगर बात करें उत्तर प्रदेश की तो यहां, महिला और पुरुष नसबंदी के बीच का यह अंतर साफ नज़र आता है। यूपी में 16.9 प्रतिशत महिलाओं ने नसबंदी कराई है, वहीं केवल 0.1 प्रतिशत पुरुषों ने नसबंदी करवाई है।
ये आंकड़े ग़ैर-बराबरी को दिखाने के लिए काफ़ी हैं। साफ़ है परिवार नियोजन का पूरा ज़िम्मा समाज और व्यवस्था ने महिलाओं पर थोपा है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पुरुषों के नसबंदी कराने का यह स्तर तब है जब उनके लिए सरकार की तरफ़ से ख़ास पुरुष नसबंदी की जागरूकता का अभियान चलाया जाता रहा है। पुरुषों की नसबंदी को लेकर समाज में अलग-अलग भ्रांति फैलाई जाती हैं। जैसे, “इससे पुरुषों की ‘मर्दानगी’ कम हो जाती है। इससे पुरुषों की सेक्स करने की क्षमता कम हो जाती है,” वग़ैरह-वग़ैरह, इनका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है।
वास्तव में स्वास्थ्य के जानकार बताते है कि पुरुषों की नसबंदी महिलाओं की अपेक्षा ज़्यादा सरल होती है। यह एक छोटा-सा ऑपरेशन होता है और इसके लिए उन्हें भर्ती होने की भी ज़रूरत नहीं होती है। कुछ राज्यों में तो सरकार की तरफ़ से पुरुषों को नसबंदी के लिए तीन हज़ार रुपए मिलते है। वहीं, महिलाओं को सिर्फ़ दो हज़ार रुपए ही दिए जाते है। इसके साथ ही सरकार की तरफ़ से नसबंदी फेल होने पर मुआवज़ा देने का भी प्रावधान है।
इन तमाम सरकारी सुविधाओं के बाद परिवार नियोजन के मुद्दों पर पुरुषों की भागीदारी तय कर पाना मुश्किल है, जिसके चलते महिलाओं को इसका भार ढोना पड़ रहा है। समाज में लैंगिक भेदभाव के चलते घर के काम से लेकर परिवार संभालने तक में पुरुषों की कोई भागीदारी तय नहीं की गई, जिसकी वजह से उन्होंने परिवार नियोजन को भी महिलाओं का ही काम समझा है। लेकिन इस सबके बीच दुखद यह है कि परिवार नियोजन के लिए योजना-नीति बनानेवालों ने भी समुदाय स्तर पर परिवार नियोजन की सेवाओं को पहुंचाने के लिए केवल महिला कर्मचारियों का चुनाव किया, पुरुषों को इससे दूर रखा। इससे समाज की ग़ैर-बराबरी वाली सोच को चुनौती देना और भी मुश्किल हुआ है और आज भी घर के काम से लेकर, परिवार नियोजन तक पुरुषों की भागीदारी न के बराबर है।
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तस्वीर साभार: Paula Bronstein/Getty Images/ ICRW